सार्थक लोकतंत्र के महानायक-जेपी

 

रामबहादुर राय

महात्मा गांधी ने परस्पर विपरीत प्रवृतियों के प्रतिभाशाली व्यक्तियों को स्वाधीनता संग्राम की संघर्ष  धारा से जोड़ा। उनमें एक जेपी थे। यही उनका लोकप्रिय नाम है। जिन्हें बिहार आंदोलन में लोकनायक जयप्रकाश नारायण की पदवी मिली। जेपी ने भी स्वाधीनता के पश्चात्  सामाजिक-राजनीतिक क्रांति के अपने बहुविध प्रयासों और आंदोलनों से विभिन्न धाराओं का एक महानद बनाया। उसे देखें तो गांधीजी का यह कथन सार्थक हो जाता है, ‘जब मैं नहीं रहूंगा, तब यह आदमी (जेपी) मेरी भाषा में बोलेगा।’ यही जेपी ने किया। इसलिए भी भारत के राजनीतिक आकाश पर वे ध्रुवतारे की तरह बने रहेंगे। लोकतंत्र में सुधार पर जब भी चर्चा होगी तब जेपी अवश्य  याद किए जाएंगे।

उनका संपूर्ण जीवन प्रेरक है। प्रासंगिक है। असाधारण है। हर अर्थ में उन्होंने लीक से हटकर जीवन जीने का उदाहरण पेश किया। लोग राजनीति में उतरते हैं और सत्ता की दौड़ में शामिल  हो जाते हैं। जेपी ने इस नियम को तोड़ा। वे अपवाद रहे। वे थे पूरे जीवन राजनीति में, लेकिन सत्ता के मायामोह में नहीं फंसे। लोक राजनीति की। वे चाहते तो सत्ता के शिखर  पर आसानी से पहुंच जाते। एक बार विनोबा से किसी ने पूछा कि जेपी में आपको कौन-कौन सी विशेषताएं  मिलती हैं। विनोबा ने कहा-‘उनकी दो-तीन विशेषताएं  हैं। जवाहरलाल के बाद प्रधानमंत्री के रूप में जयप्रकाश का नाम लिया जाता था। परंतु जयप्रकाश ने कभी सत्ता हाथ में ली नहीं। उन्हें सत्ता की अभिलाषा रही नहीं। दूसरी बात, गृहस्थाश्रमी होकर भी वे ब्रह्मचर्य   का पालन करते हैं। लेकिन वे स्वयं इतने विनम्र हैं कि बहुत कम लोगों को उनकी इस विशेषता का पता है। गांधीजी, अरविंद और रामकृष्ण की बात तो प्रकट है। परंतु जयप्रकाश जी के ब्रह्मचर्य के विषय में कोई जानता नहीं। उनकी तीसरी विशेषता, नम्रता, सरलता और स्नेह।’

वास्तव में जेपी विशेषताओं के हिमालय थे। सात साल अमेरिका में रहकर पढ़ाई की। उन्होंने अपने अध्ययन के लिए अमेरिका को चुना। इसकी प्ररेणा उन्हें स्वामी सत्यदेव परिव्राजक से मिली। उस समय ज्यादातर छात्र लंदन पढ़ने जाते थे। अमेरिका में उन्होंने उंची शिक्षा  प्राप्त की। वे लौटे तब मार्कस्वादी प्रभाव में थे। अपनी पत्नी प्रभावती के कारण गांधीजी के संपर्क में आए। 1929 के लाहौर कांग्रेस में वर्धा से लाहौर गांधीजी के साथ ही पहुंचे। जहां कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज का संकल्प लिया। पंडित नेहरू के संपर्क में आए। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय  में प्रोफेसर बनने का अवसर ठुकराया और कांग्रेस के दफ्तर में लेबर रिसर्च ब्यूरो का संभाला। कुछ सालों बाद कांग्रेस शोशलिष्ट  पार्टी बनाई। स्वाधीनता संग्राम में क्रांति के पथिक बने। फिर नायक बने। ज्यादातर बड़े नेता 1942 के भारत छोड़ो में बंद थे। जेपी उससे पहले ही बंदी जीवन बिता रहे थे। जब देखा कि अगस्त क्रांति की आग ठंडी पड़ रही है तो हजारीबाग जेल की ऊंची दिवार पार कर बाहर आए। अगस्त क्रांति की कमान संभाली।

ऐसे जेपी को राष्ट्र  कवि दिनकर ने इन शब्दों में परिभाशित किया, ‘कहते हैं इसको जयप्रका श जो नहीं मरण से डरता है, ज्वाला को बुझते देख कुंड में, स्वयं कूद जो पड़ता है।’ उस जेपी को अंग्रेजों ने लाहौर जेल की एक काल कोठरी में रखा। यातना दी। अनेक जेलों में घुमाया। आखिरकार सबसे बाद में 11 अप्रैल, 1946 को जेल से वे रिहा किए गए। उनके लिए 21 अप्रैल, 1946 को पटना के गांधी मैदान में जो सभा हुई वह इतिहास में अमिट है। पहले आम चुनाव में उन्होंने समाजवादी पार्टी का नेतृत्व संभाला। चुनाव लड़वाया, लेकिन स्वयं चुनाव नहीं लड़े। उन चुनावों के बाद उन्होंने राजनीति पर सोचा। मनन-चिंतन से गुजरे। एक निर्णय किया। जिससे पूरा दे श चकित रह गया। वे लंबे उपवास पर गए। आत्म शुद्धि  की प्रक्रिया अपनाई। जब उनका उपवास पूरा हुआ तो प्रभावती जी ने कहा-‘उनका पुनर्जन्म हुआ है।’ उन्हीं दिनों लुई  फिषर जेपी से मिलने आए। पूछा-‘क्या आप धार्मिक बन रहे हैं।’ जेपी ने जवाब दिया-‘मैं एक ऐसी सभ्यता का निर्माण करना चाहता हूं जिनके आधार पर मनुष्य  ऊंचा उठता जाए।’

ऐसी ऊंची कल्पना के व्यक्ति की दलीय राजनीति में क्या कोई जगह है? इस कारण वे दलीय राजनीति से परे होते चले गए। भूदान आंदोलन की ओर झुके। उन्हें उस आंदोलन में क्रांति का उफान और फिर तूफान की संभावना दिख रही थी। जब वह प्रकट नहीं हुई तो जेपी ने पुनः खोज शुरू  की कि क्रांति का नया वाहक और वाहन क्या हो? उन्हीं दिनों जेपी ने एक लेख लिखा-‘भारतीय राज्य व्यवस्था की पुनर्रचना।’ इसमें उन्होंने राजनीतिक ढांचे में सुधार और नई रचना के सुझाव दिए। उस पर चर्चा हुई। लोकतंत्र को जनआकांक्षाओं के लिए सक्षम बनाने की ढांचागत व्यवस्था कैसे ऐसी बने जिसमें साधारण नागरिक अपनी भूमिका खोज सके और उसका स्वतंत्रतापूर्वक निर्वाह कर सके। इसे ही जेपी ने अपनी राजनीति के केंद्र में रखा। जो लेख लिखा था उसे प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को 1959 में भेजा। पंडित नेहरू को उससे मदद मिली क्योंकि सोवियत माडल पर उन्होंने सामुदायिक विकास की जो योजना शुरू  की थी वह वास्तव में विफल सिद्ध हो गई थी। तब क्या हो? यह प्रश्न  था जिसे जेपी ने हल किया।

पंचायती राज प्रणाली की राह जेपी ने दिखाई। उस पर भारत सरकार ने चलने का विचार बनाया। लेकिन जिस औपनिवेशिक  राज्य व्यवस्था में शासन  उस समय था और वह थोडे़ सुधार से चल ही रहा है, उसमें पंचायती राज प्रणाली के रास्ते में कदम-कदम पर अड़चनें हैं। उन्हें दूर करने के लिए बौद्धिक स्तर पर ही केवल नहीं बल्कि प्रायोगिक स्तर पर भी प्रयास में जेपी ने अपनी सारी शक्ति लगा दी। उनका आग्रह था कि भारत में सजीव लोकतंत्र स्थापित हो। इसकी उन्होंने एक रूपरेखा भी दी। ‘इस लोकतंत्र का ढांचा ग्राम सभा के आधारभूत स्तर से शुरू होकर लोकसभा की मंजिल पर पहुंचता है।’ वे चाहते थे कि हर स्तर पर इसका एक संवैधानिक ढांचा बने, जिसमें अधिकार, कार्य, कर्तव्य और साधन का स्पष्ट  निर्देश हो। यही उनकी कल्पना में महात्मा गांधी का ग्राम स्वराज था। जिसे जेपी सत्ता का विकेंद्रीकरण कहते थे। वे सावधान करते हुए कहते थे कि अगर पंचायती राज जिला स्तर तक सीमित रह जाएगा और उस पर दलीय राज का प्रभुत्व बना रहेगा तो जनता अपने को ठगी हुई अनुभव करेगी। वैसी स्थिति में लोग मानेंगे कि राजनीतिज्ञ सचमुच सत्ता छोड़ने को तैयार नहीं हैं।

सत्ता और समाज के परंपरागत और औपनिवेशिक ढांचे को बदलने के लिए जेपी ने जितने प्रयोग किए उसके दूसरे उदाहरण नहीं मिलते। वे प्रयोगधर्मी थे। उनके व्यक्तित्व में शुरू से यह तत्व प्रधान था। स्वाधीनता संग्राम के दिनों में कांग्रेस को  किसानों और मजदूरों का मंच बनाया। आजादी के बाद सरकार के सामने चैदह सूत्री कार्य योजना प्रस्तुत की। उसे ही उन्होंने बिहार आंदोलन के दौरान संपूर्ण क्रांति में रूपातंरित किया। जिसमें उनका अनुभव स्पष्ट रूप से दिखता था। आखिरकार जेपी की राह पर भारत सरकार ने पहला कदम तब उठाया जब 73वां और 74वां संविधान संषोधन हुआ। 24 अप्रैल, 1993 से जिला, मध्यवर्ती और ग्राम स्तर की पंचायतें बनने का रास्ता साफ हुआ। आज इस प्रक्रिया में निर्वाचित प्रतिनिधियों की संख्या 34 लाख है। जनता शासन के दिनों में राजस्थान के मुख्यमंत्री भैरो सिंह शेखावत ने अंत्योदय कार्यक्रम चलाया। जिसकी जेपी ने प्रसंशा की। नरेंद्र मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने जेपी के सपने को गले लगाया है।

वे हर साल राष्ट्रीय  पंचायती राज दिवस पर इस प्रणाली के परिष्कार  के लिए सुझाव देते हैं और उस पर अमल करवाते हैं। यह क्रम 2015 से चल रहा है। करोना महामारी के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते 24 अप्रैल को वीडियो कांफ्रेंसिंग से सरपंचों को संबोधित किया। उन्होंने कहा कि ‘गांव तक सुराज पहुंचाने के हमारे संकल्प को दोहराने का पंचायती राज दिवस एक अवसर है।’ उसी दिन उन्होंने आत्मनिर्भर भारत का लक्ष्य निर्धारित किया। जेपी अगर होते तो वे एक सौ अठारह साल का जीवन पूरा करते और नई यात्रा में पंचायतों की बड़ी भूमिका को सार्थक बनाने के लिए हर स्तर पर प्रयास करते।

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