
शाह आयोग की रिपोर्ट यह बताती है कि इमरजेंसी लगाने के लिए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने परत-दर-परत गलतबयानी की। राष्ट्रपति से लेकर नागरिक तक को गुमराह किया। अपने कार्यालय के अफसरों को अंधेरे में रखा। मंत्रिमंडल के सहयोगियों को भरोसे में नहीं लिया। अपना स्वार्थ साधा। अपने निजी हित में संविधान तक की हत्या कर दी।
क्या इमरजेंसी लगाना अपरिहार्य हो गया था? क्या लोकनायक जयप्रकाश नारायण (जेपी) के रामलीला मैदान में भाषण से देश में विद्रोह की लपटें उठने जा रही थीं? ये इमरजेंसी के मूल प्रश्न हैं। अगर लोकसभा चुनाव के परिणाम वैसे ही होते, जैसे इंदिरा गांधी चाहती थीं, तो इन प्रश्नों में छिपा सत्य कभी उजागर नहीं हो सकता था। इंदिरा गांधी ने इस आशा से इमरजेंसी में लोकसभा का चुनाव कराया कि भारत के लोग उनके झूठ और फरेब को सच मानते हैं। इस आधार पर उन्होंने उम्मीद की थी कि उनकी तानाशाही पर लोग अपने जनादेश की मोहर लगा देंगे। इससे उन्हें दुनिया भर में अपने लोकतांत्रिक होने का ढिंढोरा पीटने का अवसर मिल जाता। संभव था कि तानाशाही की कालिख से भी वे बच जातीं। लेकिन उनका मंसूबा धरा रह गया। इसलिए कि जनादेश तानाशाही के विपरीत आया। वह जनादेश भारत के जन-जन में गहरी लोकतांत्रिक समझ का परिचायक था।
लोकतंत्र की वापसी से जनता पार्टी की सरकार बनी। प्रधानमंत्री बने, मोरारजी देसाई। उनकी सरकार ने इमरजेंसी काल के अत्याचारों की जांच के लिए एक आयोग बनाया। वह शाह आयोग था। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जे.सी . शाह उसके अध्यक्ष थे। शाह आयोग की रिपोर्ट का पहला अध्याय हर स्तर पर पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाना चाहिए। इसलिए कि रिपोर्ट से सच उजागर हो जाता है। इसे छिपाया और दबाया गया है। रिपोर्ट के प्रारंभिक अंश में ही वे प्रामाणिक तथ्य हैं, जिसे पढ़कर छात्रों की हर पीढ़ी स्वयं यह जान सकती है कि इमरजेंसी लगाने के लिए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने परत-दर-परत गलतबयानी की। राष्ट्रपति से लेकर नागरिक तक को गुमराह किया। अपने कार्यालय के अफसरों को अंधेरे में रखा। मंत्रिमंडल के सहयोगियों को भरोसे में नहीं लिया। अपना स्वार्थ साधा। अपने निजी हित में संविधान तक की हत्या कर दी।
शाह आयोग की रिपोर्ट में इमरजेंसी के मूल प्रश्न का स्पष्ट उत्तर है। वह समाधानकारक है। शाह आयोग ने सबसे पहले इस बात की छानबीन की है कि 12 जून से 25 जून, 1975 के बीच प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के निवास, कार्यालय और उनके निर्देश पर राज्यों में क्या-क्या गतिविधियां हुई। इस क्रम में आयोग ने मुख्यमंत्रियों, दिल्ली के उपराज्यपाल, प्रधानमंत्री कार्यालय में प्रमुख सचिव, गृहमंत्री, गृहसचिव के अलावा कांग्रेसी नेताओं और उन अफसरों की गवाहियां लीं, जो तब इंदिरा गांधी के हाथ-पांव थे। जो शाह आयोग में उपस्थित हुए और जिन्होंने गवाही दी, उसे पढ़ने पर स्पष्ट हो जाता है कि इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाने का इरादा बना लिया था। सिर्फ एक जगह उनको हल्की सी उम्मीद थी। वह था, सुप्रीम कोर्ट। सुप्रीम कोर्ट में उन दिनों गर्मियों की छुट्टियां थीं। इसलिए एक ग्रीष्मकालीन अवकाश जज थे, वी.आर. कृष्ण अय्यर।
उनकी ऊंची अदालत में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती दी गई। इंदिरा गांधी के वकीलों में बड़े-बड़े नाम थे। जैसे, नानी पालकीवाला। अपने संस्मरण में फली एस. नरीमन ने इंडियन एक्सप्रेस में 23 जून, 2015 को लिखा कि वकीलों की कतार में मेरा नंबर तीसरा था। 20 जून, 1975 को इंदिरा गांधी की ओर से अपील की गई। उसमें यह अनुरोध किया गया था कि सुप्रीम कोर्ट, इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर पूरा स्थगन आदेश जारी कर दे। एक तरफ सुप्रीम कोर्ट में अनुरोध की याचिका दायर की गई, तो दूसरी तरफ बनावटी जनसमर्थन के लिए सरकारी तंत्र का भारी दुरुपयोग शुरू किया गया। इंदिरा गांधी के तानाशाही इरादे उन रैलियों में ऊंचे स्वर से बोलने लगे। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से दो दिन पहले प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के निवास से निर्देश जारी होने लगे। वे निर्देश तानाशाही के अंधेरे की बोलती भयावह कहानी हैं। शाह आयोग का गठन जांच आयोग कानून के अधीन किया गया था। जांच आयोग का कानून ही ऐसा है कि आयोग जिसे चाहे उसे बुला सकता है। जो पेश हुए, उन लोगों ने सही बातें बताई। उसका शाह आयोग की रिपोर्ट में आवश्यक विवरण है। इस विवरण से इंदिरा गांधी के दावे सरासर झूठे साबित होते हैं। कहावत की भाषा में उन्हें दिखाने के दांत कह सकते हैं। खाने के दांत का विवरण शाह आयोग में मिलता है। उससे इंदिरा गांधी की कलई खुलती जाती है। अज्ञात सच पर सूरज की रोशनी पड़ती हुई अनुभव की जा सकती है। शाह आयोग की रिपोर्ट ही एकमात्र वह दस्तावेजी आधार है जिससे इमरजेंसी का सच जानना संभव है। शुरू से ही शुरू करना चाहिए। इंदिरा गांधी ने 26 जून, 1975 की सुबह 8 बजकर 15 मिनट पर रेडियो पर राष्ट्र के नाम अपने संदेश में एक ‘गहरी व व्यापक साजिश’ की बात कही। उसी भाषण से देश-दुनिया को इमरजेंसी लगाए जाने की सूचना मिली। वह वज्रपात था। प्रश्न है कि क्या वास्तव में लोकनायक जयप्रकाश नारायण गैर सीपीआई विपक्षी नेताओं के साथ कोई गहरी साजिश रच रहे थे? स्वतंत्र भारत में जेपी महात्मा गांधी के वास्तविक प्रतिनिधि थे। उनमें वैसी ही पारदर्शिता और गहरी सूझबूझ, देशभक्ति से भरी निष्ठा थी, जैसी देश-दुनिया ने महात्मा गांधी में पाई। अगर जेपी ने कोई साजिश की तो इमरजेंसी में इंदिरा गांधी की सरकार ने उन पर देशद्रोह का मुकदमा क्यों नहीं चलाया? यही प्रश्न मोरारजी सरकार से इंदिरा गांधी की बाबत पूछा जा सकता है। लेकिन दोनों प्रश्नों के उत्तर जो हैं, वे एक-दूसरे के विपरीत हैं। जनता पार्टी की सरकार सत्ता के बंदरबाट में न पड़ी होती तो शाह आयोग की रिपोर्ट के आधार पर वही होता, जो होना चाहिए।
शाह आयोग की रिपोर्ट अगर न होती तो इंदिरा गांधी के झूठे आरोप सच माने जाते। यह बहुत अफसोस की बात है कि अनेक पुस्तकों में इमरजेंसी के लिए जितना इंदिरा गांधी को दोषी ठहराया गया है, उतना ही जिम्मेदार जेपी को भी सिद्ध करने की तथ्यहीन खींचतान की गई है। तथ्यों के साथ इसे बेइमानी नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे! इतिहास के इस अध्याय से खिलवाड़ करने वाले नाम अनेक हैं। वे नाम ऊंचे हैं। उनका काम मोहग्रस्त है। इसीलिए वे बदनाम होते रहेंगे। इतिहासकार विपिन चंद्र उनमें अग्रणी हैं। उनकी राह पर जो भी चला है और चलेगा, वह समय की शिला पर कलंकित होता रहेगा।
भारत की लोकतांत्रिक राह में इमरजेंसी एक भारी भरकम चट्टान है। लेकिन वह प्रकृति प्रदत्त तो बिल्कुल नहीं है। वह क्यों अभी भी है? इसके मूल रहस्य को शाह आयोग की जांच और गवाही से जाना जा सकता है। वह मूल रहस्य क्या है? इमरजेंसी पर जिन पुस्तकों को विशेष रूप से पढ़ा और पढ़ाया जाता रहा है, उनमें जो मूल रहस्य बताया गया है, उसे ही आधार बनाएं तो शाह आयोग की रिपोर्ट का महत्व समझना सरल होगा। एक तथ्य को लें। रामलीला मैदान में 25 जून, 1975 को एक विशाल सभा हुई। उसे लोकनायक जयप्रकाश नारायण सहित अनेक नेताओं ने संबोधित किया। उसमें जेपी जो बोले, उसे ही इंदिरा गांधी ने अपने रेडियो भाषण में इमरजेंसी लगाने का आधारभूत कारण बताया। उसे ही गलत तरीके से पेश कर इतिहासकारों ने इमरजेंसी के लिए जेपी को भी समान दोषी ठहराया है।
जनसत्ता हिन्दी दैनिक के संस्थापक संपादक प्रभाष जोशी ने 26 जून, 2009 को ‘जेपी आंदोलन की दुविधा’ शीर्षक से अपने अखबार में एक लेख लिखा। इसमें दो बातें हैं। प्रभाष जी रामलीला मैदान की सभा में शुरू से उपस्थित थे। उन्होंने जेपी के भाषण को प्रजानीति के लिए नोट किया था। उनके लेख का यह अंश जो पढ़ेगा उसे सच के आकाश का दर्शन अपने आप होगा, ‘पच्चीस जून की रात रामलीला मैदान में जेपी का भाषण खत्म हुआ तो हम उन्हें गांधी शांति प्रतिष्ठान में उनके कमरे में छोड़कर अपने घर गांधी निधि की राजघाट कॉलोनी में आ गए। रात में ही पता चला कि जेपी को गिरफ्तार कर लिया गया है। छब्बीस जून की सुबह इंदिरा गांधी को आकाशवाणी से इमरजेंसी लगाते सुना। जेपी की गिरफ्तारी और इमरजेंसी का एक कारण यह बताया गया कि उन्होंने रामलीला मैदान से सेना और पुलिस को बगावत करने के लिए भड़काया।’ ‘जेपी का पूरा भाषण मैंने खुद हूबहू नोट किया था। क्या कहा था उन्होंने-‘जब ये लोग देशभक्ति के नाम पर, लोकतंत्र के नाम पर, कानून के नाम पर जो भी हुक्म दें और उसका आप पालन करें तो यह पालन है या उसका अपमान है? यह सोचने के लिए मैं बराबर चेतावनी देता रहा हूं। सेना को यह सोचना है कि जो आदेश मिलते हैं, उनका पालन करना चाहिए कि नहीं? देश की सेना के लिए आर्मी एक्ट में लिखा हुआ है कि भारत के लोकतंत्र की रक्षा करना उसका कर्तव्य है। लोकतंत्र की, संविधान की रक्षा करने का। हमारा संविधान लोकतांत्रिक है और इसलिए कह रहा हूं कि लोकतंत्र की रक्षा उसका कर्तव्य है…और यह प्रधानमंत्री उसको आदेश दे तो उसके पीछे कौन-सी ताकत होगी? जिस प्रधानमंत्री के हाथ-पैर इतने बंधे हों जो पार्लियामेंट में बैठ तो सकती हों, पर वोट नहीं दे सकती हों, उनके आदेश?’’
शाह आयोग की रिपोर्ट से एक नया तथ्य निकलता है। यह तथ्य दिल्ली के तत्कालीन उपराज्यपाल कृष्णचंद्र के कथन का एक अंश है। वे 4 अक्टूबर, 1974 से 31 मार्च, 1977 तक अपने पद पर थे। उन्होंने शाह आयोग के समक्ष कहा, ‘मुझे 23 जून, 1975 को प्रधानमंत्री निवास बुलाया गया। आर.के. धवन ने निर्देश दिया कि 24 जून को रामलीला मैदान में विपक्ष की रैली के बाद जेपी सहित विपक्षी नेताओं को बंदी बना लेना है।’ वह रैली 24 जून को न होकर 25 जून को हुई। इसकी एक अलग कहानी है। उपराज्यपाल कृष्णचंद्र का यह कथन इमरजेंसी की साजिश का एक सबूत भी है, ‘जिन नेताओं को गिरफ्तार किया जाना था, उनकी सूची प्रधानमंत्री निवास में एक खुफिया अफसर तैयार कर रहा था।’ इससे यह सच उजागर होता है कि रामलीला मैदान की रैली में जेपी ने जो भी कहा होगा, उससे इमरजेंसी के लगाने का कोई सीधा संबंध नहीं था। इमरजेंसी लगाने की तैयारी तो 12 जून, 1975 से ही शुरू कर दी गई थी। प्रधानमंत्री निवास में आर.के. धवन सूत्रधार थे। वे थे कौन? प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के वे अतिरिक्त निजी सचिव थे। शाह आयोग की रिपोर्ट में हर किसी ने अपने बयान में उनके निर्देश का या उनकी मौजूदगी का उल्लेख बार-बार किया है। इस प्रकार आर.के. धवन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के मुख और मुखौटा दोनों थे। इमरजेंसी लगाने के इंदिरा गांधी के गुपचुप निर्णय का पालन कराना उनकी जिम्मेदारी थी।
‘मुझे 23 जून, 1975 को प्रधानमंत्री निवास बुलाया गया। आर.के. धवन ने निर्देश दिया कि 24 जून को रामलीला मैदान में विपक्ष की रैली के बाद जेपी सहित विपक्षी नेताओं को बंदी बना लेना है।’-
कृष्णचंद्र ,दिल्ली के तत्कालीन उपराज्यपाल