भाजपायी अत्यंत प्रफुल्लित हो रहे होंगे। उनकी किस्मत से सोनिया-कांग्रेस के छीकें में सूराख पड़ गई। फूटना शेष है। बेंगलुरु में 26-दलों के गठबंधन को जन्में 24 घंटे ही गुजरे कि इसी के एक बड़े घटक द्रविड़ मुनेत्र कजगम ने हथौड़ी चला दी।
तमिलनाडु के द्रमुक मुख्यमंत्री एमके स्तालिन ने कल ही 20 जुलाई 2023 नरेंद्र मोदी से मांग कर डाली कि इंदिरा गांधी द्वारा 1974 में श्रीलंका को उपहार में दिए गए कच्छतिवु द्वीप को वापस ले लिया जाए। (दैनिक दि हिन्दू, कॉलम 1-4, पृष्ठ-3, 21 जुलाई) श्रीलंका के प्रधानमंत्री रानिल विक्रम सिंघे नई दिल्ली में द्विराष्ट्रीय मैत्री वार्ता हेतु आए हुये हैं। स्तालिन ने अपने चौंतीस सांसदों को निर्दिष्ट किया है कि वे भी दिल्ली में कच्छतिवु की वापसी के मसले पर दबाव बनाएं। दो दिन पूर्व ही बेंगलुरु में स्तालिन 26-दलों के विपक्षी गठबंधन की बैठक में शामिल हुए थे। अगले साल प्रस्तावित लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी सरकार को अपदस्थ करने की रणनीति वहां बनी थी।
वर्तमान संसद में डीएमके तीसरी बड़ी पार्टी है। हालांकि उसके सांसद पहले अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार का भी समर्थन कर चुके हैं। तमिलनाडु सागरतट से सटा कच्छतिवु मछुवारों का खास द्वीप है। इसे वापस लेने का संघर्ष तमिल अस्मिता और भावना के साथ आत्मीयता से जुड़ा हुआ है। कोई भी द्रविड़ पार्टी इस मुद्दे पर किसी भी सीमा तक जा सकती है। स्तालिन के पिता स्वर्गीय एम. करुणानिधि ने मुख्यमंत्री के नाते भी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से कच्छतिवु द्वीप श्रीलंका को दे देने पर सरकार का (1974) कड़ा विरोध जताया था। करुणानिधि का आरोप था इंदिरा गांधी ने अपने मित्र (प्रथम महिला प्रधानमंत्री बनी) श्रीमती सिरीमावो बंदरानायके को यह द्वीप दान दे दिया।
तो है क्या यह आधी सदी पुराना विवाद ? भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान जब मद्रास प्रेसेडेंसी की स्थापना हुई थी, यह द्वीप अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया था। इस द्वीप पर हक़ को लेकर 1921 में पहली बार विवाद जन्मा। चूंकि श्रीलंका जो तब सीलोन के नाम से जाना जाता था, पर भी अंग्रेज़ों का राज था। फिर ब्रिटिश सरकार ने इस द्वीप का सर्वे करवाया। इसे श्रीलंका का हिस्सा बताया था। भारत की तरफ से इस पर विरोध दर्ज़ हुआ, क्योंकि ऐतिहासिक रूप से ये एक भारतीय राजा (रामनाड) के शासन में आता था। रामेश्वरम से केवल 20 किमी. के फासले पर है। बहरहाल 1947 तक ये विवाद ज्यों का त्यों ही रहा। औपनिवेशिक सरकारी दस्तावेज़ों के हिसाब से 1947 में इसे भारत का हिस्सा माना गया। तब भी श्रीलंका ने इस पर अपना अधिकार छोड़ा नहीं। ये द्वीप मछली पकड़ने की जगह है, अतः दोनों देश के मछुवारे इसे इस्तेमाल करते रहे। सीमा के उल्लंघन को लेकर कई बार तनाव भी हुआ। समुद्री सीमारेखा विवाद को सुलझाने के लिए साल 1974 में दोनों देशों के बीच एक समझौता हुआ। इसके तहत इन्दिरा-सरकार ने कच्छतिवु श्रीलंका को दे दिया। हालांकि एक सवाल ये उठा कि क्या भारत की सरकार अपनी जमीन ऐसे ही किसी दूसरे देश को दे सकती है ? इसके लिए संविधान संशोधन जरुरी था।
अन्ना डीएमके नेता और मुख्यमंत्री जयललिता 2008 में इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंची। उनका दावा था कि बिना संविधान संशोधन के सरकार ने भारत की जमीन दूसरे देश को दे दी। मुख्यमंत्री बनने के बाद 2011 में उन्होंने विधानसभा में प्रस्ताव भी पारित करवाया। इस मामले पर 2014 में अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने कहा था : “कच्छतिवु द्वीप एक समझौते के तहत श्रीलंका को दिया गया। अब ये अंतर्राष्ट्रीय बाउंड्री का हिस्सा है। इसे वापिस लेने के लिए भारत को युद्ध करना पड़ेगा।”
मगर इन्दिरा सरकार पीछे नहीं हटी। इसका एक कारण रहा श्रीलंका की तत्कालीन प्रधानमंत्री सिरीमा बंडरानाइक। वे दुनिया की पहली महिला थीं, जो किसी देश की प्रधानमंत्री मंत्री चुनी गई। इंदिरा की तरह वे भी एक ताकतवर नेता थीं। उन्होंने भी अपने देश पर आपातकाल लादा था। साल 1980 की बात है। भारत में 1975 की तरह।
दोनों देशों के बीच 1974 के बाद 1976 में समुद्री सीमा को लेकर एक और समझौता हुआ। मुख्यतः ये समझौता मन्नार और बंगाल की खाड़ी में सीमा रेखा को लेकर हुआ था। लेकिन इसी समझौते में एक और चीज जुड़ी थी, जिससे कच्छतिवु का विवाद सुलगा दिया गया। नियम बना कि “भारत के मछुवारे और मछली पकड़ने वाले जहाज श्रीलंका के ‘एक्सक्लूसिव इकनोमिक ज़ोन’ में नहीं जाएंगे।” समंदर के श्रीलंका वाले हिस्से में कच्छतिवु भी आता था। ये एक बड़ी दिक्कत थी, क्योंकि इस समझौते से पहले भारतीय मछुवारे कच्छतिवु द्वीप तक निर्बाध मछली पकड़ने जाते थे।
इस मामले में 2015 में श्रीलंका के तत्कालीन प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे (आज दिल्ली में हैं) के एक बयान से विवाद हुआ था। उन्होंने एक टीवी चैनल पर ऐलान किया था : “अगर भारतीय मछुवारे इस इलाके में आएंगे तो उन्हें गोली मार दी जाएगी।” दक्षिण के नेताओं की इस बयान पर काफी तीखी प्रतिक्रिया भी आई थी। चूंकि ये मछुवारों की रोजी रोटी से जुड़ा मुद्दा है, इसलिए समय समय पर तमिलनाडु की राजनीति इसको लेकर गर्माती रहती है।
कच्छतिवु द्वीप का मुद्दा दो देशो से जुड़ा है। इसलिए इस विषय पर भारत एकतरफा कदम नहीं उठा सकती है। तमिलनाडु विधानसभा ने 1991 में प्रस्ताव पास किया और इस द्वीप को वापस लेने की मांग की गई। कच्छतिवु द्वीप को लेकर हुए समझौते को अमान्य घोषित करने की अपील की। उन्होंने कहा कि श्रीलंका को कच्छतिवु गिफ्ट में देना असंवैधानिक है। जलडमरूमध्य में निर्जन द्वीप वाले पर 14वीं शताब्दी में ज्वालामुखी विस्फोट के कारण यह द्वीप बना था। ब्रिटिश शासन के दौरान 285 एकड़ की भूमि का भारत और श्रीलंका संयुक्त रूप से इस्तेमाल करते थे। यह द्वीप बाद में मद्रास प्रेसीडेंसी का हिस्सा बना। भारत और श्रीलंका दोनों ने 1921 में मछली पकड़ने के लिए इस भूमि पर अभी भी अपना-अपना दावा किया। विवाद अनसुलझा रहा।