भविष्य के प्रति आशा, सुन्दर सपनों की बुनियाद, आंखों में अटके वे आंसू, जिन्हें एकान्त नहीं मिला बह पाने को, घर परिवार की चिन्ताएं, क्या कुछ नहीं होता पत्रों के संसार में। कागज पर उतरे भाव शब्द दर शब्द संवेदनाओं के तारों को झंकृत करते जाते हैं। मौसम अगर अकेलेपन का हो तब तो पत्रों से बेहतर मित्र कोई हो ही नहीं सकता। यही परम मित्र उस समय कल्याण सिंह को सहारा देते रहे। जब वे राजनैतिक संघर्षों के दौरान जेल यात्राओं पर रहे। कल्याण सिंह राजनेता होने के साथ ही हमेशा एक कुशल गृहस्थ भी रहे। वे ऐसा व्यक्तित्व हैं, जो एक ही पल में कई लोगों के लिए फिक्रमंद होते हैं।
जब वक्त ने खींचकर उन्हें उनके परिवार से, मित्रों से दूर जेल की सीखंचों के पीचे धकेल दिया मानों वे माली हों और उनके नन्हें पौधे उनसे छूट गए हों। सचमुच माली ही तो हैं वे अपने परिवार के। वक्त के आगे कब किसका जोर चला है और कल्याण सिंह भी वक्त की गिरफ्त से मुक्त नहीं हो सके। जेल की दीवारों में वहां के बोझिल दिनों और ऊबाई शामों के दौरान वक्त गुजारते हुए उन्होंने पत्रों के जरिए अपने परिवार तक पहुंच जाने का आसान रास्ता निकाला। आज भी उन पत्रों को खोलने पर खुलता है भावनाओं का एक महकता संसार, जिसमें जेल के पीछे होने का दर्द हरगिज नहीं है।
दूर, बहुत दूर होने के बावजूद कल्याण सिंह ने जिस भाषा का, जिस लहजे और शब्दों का प्रयोग किया है, उससे यही लगता है कि वे साक्षात रू-ब-रू हैं पत्र लिखने वाले के। लिखने के अंदाज में प्रेम, चिन्ता और हिदायतें सब कुछ होता है, साथ ही होता उनकी चिंताओं का निराकरण भी जैसे-“मैं यहां पूर्णतया निश्चिंत हूं। स्वाभिमानपूर्वक रह रहा हूं। सभी बंधुओं का स्नेह, सम्मान,विश्वास तथा आत्मीयता भी प्राप्त है। अपने व्यवहार से एक मान्यतापूर्ण विशिष्ट स्थान बनाकर रह रहा हूं। बात का वजन है। विभिन्न जिलों तथा विभिन्न संस्थाओं के कार्यकर्ता हैं। अब कुल मिलाकर तीन बैरकों में 75 राजनैतिक बंदी हैं। जिस बैरक में मै हूं उसमें 51 व्यक्ति हैं। अपनी अपनी दिनचर्या में सभी अपने अपने अनुसार व्यस्त है। यूं ही दिन पर दिन व्यतीत हो रहे हैं। मेरी ओर से आप सब निश्चिंत रहें। मै पूर्णतया स्वस्थ हूं, प्रसन्न हूं, ठीक हूं, मगन हूं। जीव की दिनचर्या का क्रमानुसार बड़े व्यवस्थित रूप से चला रहा हूं। वजन 60 किलों पर रोक दिया है। वैसे गत एक माह से वजन लिया भी नहीं।”
इसी प्रकार के तमाम आश्वासनों से भरे पत्रों में यह प्रयास होता कि वे जहां हैं प्रसन्न हैं और उनके बारे में चिंता योग्य कोई बात नहीं। इसी प्रकार अपने लगभग सभी पत्रों में कल्याण सिंह ने देश की, घर की, समाज की चिन्तायें अभिव्यक्त की हैं। उनके पत्र वो रोचक जखीरा हैं जो फिर फिर पढ़ने योग्य हैं और सराहे जाने योग्य भी। विपरीत परिस्थितियों में खुद को अपनों के करीब ले जाने का जो मार्ग उन्होने अपनाया है, वह कोई नया नहीं है लेकिन पत्रों को अपनी तमाम अनुभूतियां सौंपकर वे बड़ी चतुराई से खुद भी जा पहुंचते अपने घर के आंगन में, अपनों के बीच। यह ढंग सचमुच अनोखा है। पत्र के एक टुकड़े के जरिये वे कितनी सहजता से जा पहुंचे हैं अपने घर के आंगन में, जरा देखिये –
“मुझे यह जानकर भारी संतोष और हर्ष हुआ कि प्रभा और राजे अपनी अपनी परीक्षाओं की तैयारियों में पूरी तरह जुटे हुए हैं तथा नियमित अध्ययन कर रहे हैं। अब परीक्षाओं में दिन भी कम रह गये हैं। समय का सुचारू विभाजन करके प्रत्येक क्षण का पूर्ण सदुपयोग करना फलप्रद होगा। उत्तम रहे कि यदि एक नियमित दिनचर्या बना ली जाए और उसका परिपालन शत प्रतिशत रूप से किया जाए। कुछ और आवश्यक बातों की ओर ध्यान फिर देता हूं –
1-परीक्षा की स्कीम लिखकर अपने पाठ घर पर रखना ताकि किस दिन किस विषय का कौन सा प्रश्न पत्र आयेगा, इसकी यथाविधि सही जानकारी बनी रहे।
2- परीक्षा के लिए अभी से दो दो कलम तैयार कर लो। अच्छे निब डलवाकर उन्हें चालू भी कर लो ताकि घिसकर ठीक हो सकें।
3- परीक्षा एक खेल तमाशा है, इससे घबराने की आवश्यकता नहीं है।
4- परीक्षा के दिनों में प्रात: इतनी जल्दी जगो कि सभी काम समय से पूरा करके निर्धारित समय से कम से कम 15 मिनट पहले अवश्य पहुंचों।
5- जब प्रश्न पत्र हाथ में आए तो उसे नितांत निश्चिंततापूर्वक और आत्मविश्वास पूर्वक कम से कम दो बार अवश्य पढ़ों और….
ऐसे ही ढेरों निर्देशों से भरे पत्र जब दरवाजे पर दस्तक देते तो अहसास होता कि खुद कल्याण आ गये हैं। स्वास्थ्य, परीक्षा, आदतें, सबके बारे में इतने सहज निर्देश, मानों वे पत्र नहीं लिख रहे बल्कि चारपाई पर बैठकर बच्चों को समझा रहे हों।
(बालेश्वर त्यागी की पुस्तक “कल्याण सिंह व्यक्तित्व और विचार” से)