विपक्ष जिस तरह अपनी राज्य सरकारों द्वारा नागरिकता संशोधन कानून का विरोध कर रहा है, उससे देश के संघीय ढांचे के सामने गंभीर संकट पैदा होता जा रहा है। देश के मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने इस कानून का विरोध करते हुए कहा है कि वह कांग्रेस शासित राज्यों में इस कानून पर अमल नहीं होने देगी। कांग्रेस जानती है कि ऐसा करना व्यावहारिक रूप से उसके लिए संभव नहीं है। नागरिकता संबंधी कानून केंद्र सरकार के दायरे में आते हैं। पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के प्रताड़ित जिन अल्पसंख्यकों को भारतीय नागरिकता देने के लिए यह कानून बना है, वे देश के विभिन्न राज्यों में बसे हुए हैं। कांग्रेस शासित राज्यों में भी उनकी बड़ी संख्या निवास करती है। उन्हें भारतीय नागरिकता प्रदान करना केंद्र सरकार का दायित्व है। क्या कांग्रेस शासित राज्य सरकारें यह घोषणा कर सकती हैं कि वे इन वर्गों को भारतीय नागरिक के रूप में स्वीकार नहीं करेंगी? कांग्रेस नेता जानते हैं कि ऐसा करना संभव नहीं है। इसलिए अब कांग्रेस के भीतर से भी कुछ विसंवादी स्वर उभरने लगे हैं।
विपक्ष के अब तक के रवैये से एक गलत परंपरा पड़ गई है। विपक्ष ने अपने व्यवहार से देश के संघीय ढांचे को आघात पहुंचाया है। अगर वोट बैंक के आधार पर केंद्र और राज्य परस्पर इसी तरह टकराते रहे तो देश की एकता का क्या होगा?
कपिल सिब्बल और जयराम रमेश आदि ने अपनी पार्टी की इस नीति पर सार्वजनिक रूप से प्रश्न खड़े कर देना आरंभ कर दिया है। इसके बावजूद कांग्रेस का शिखर नेतृत्व इस कानून के विरोध के बहाने केंद्र सरकार पर दबाव बनाना जारी रखे हुए हैं। नेहरू-इंदिरा गांधी परिवार के सभी सदस्य इस कानून का विरोध करने की मुहिम छेड़े हुए हैं। अब कांग्रेस ने घोषित किया है कि वह जनगणना प्रक्रिया के अंतर्गत तैयार की जाने वाली राष्ट्रीय जनसंख्या पंजी में सहयोग नहीं करेगी। इसका अर्थ यह है कि वह अपने शासित राज्यों में जनगणना के कार्य में बाधा पहुंचाएगी। क्या कोई राज्य सरकार ऐसा कर सकती है? कांग्रेस की यह सभी घोषणाएं देश के संघीय ढांचे पर आघात हैं और ऐसा करते हुए वह अपनी राज्य सरकारों को संकट में डालती जा रही है। नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में मार्क्सवादी पार्टी कांग्रेस से भी एक कदम आगे बढ़ गई है। उसने विधानसभा में इस कानून का विरोध करते हुए एक प्रस्ताव पारित करवा लिया है। केरल सरकार में मार्क्सवादी नेतृत्व वाला वाम मोर्चा है और विपक्ष में कांग्रेस के नेतृत्व वाला संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा है।
विधानसभा में इन दोनों का ही वर्चस्व है। यह दोनों न केवल नागरिकता संशोधन कानून के विरुद्ध है, बल्कि उनमें इस कानून का बढ़-चढ़कर विरोध करने की होड़ लगी हुई है। इस कानून के विरुद्ध विधानसभा में प्रस्ताव पारित करते समय मार्क्सवादी और कांग्रेस साथ साथ थे। लेकिन राज्य के अल्पसंख्यक वोटों को प्रभावित करने की प्रतिस्पर्धा ने दोनों को अलग कर दिया। केरल की लगभग आधी आबादी मुस्लिम या ईसाई है। मुस्लिम आबादी एक चौथाई से अधिक है। शुरू में मार्क्सवादी इस कानून के खिलाफ पहल करने से हिचकिचा रहे थे क्योंकि सबरीमला मामले में वे राज्य के हिन्दू समुदाय को नाराज करके अपने हाथ झुलसा चुके हैं और उन्हें डर था कि इस कानून का विरोध करते हुए उन्हें और नाराज कर देंगे। लेकिन 11 दिसम्बर को जैसे ही राज्यसभा में नागरिकता संशोधन विधेयक पारित हुआ कांग्रेस के राज्यस्तरीय नेताओं ने इस कानून का विरोध करने के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाने और विधानसभा का विशेष अधिवेशन बुलाने की मांग कर डाली। उसके तुरंत बाद कांग्रेस समर्थित मुस्लिम लीग इस कानून के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में चली गई। मार्क्सवादियों ने उसके बाद आगा-पीछा नहीं देखा।
विधानसभा की बैठक बुलाकर इस कानून के खिलाफ प्रस्ताव पारित करवाया। तीन जनवरी को मार्क्सवादी मुख्यमंत्री पिनरई विजयन ने विपक्ष शासित 11 राज्यों के मुख्यमंत्रियों को एक पत्र लिखकर इस कानून के खिलाफ एकजुट होने का आग्रह किया। इसके बाद 14 जनवरी को मार्क्सवादी सरकार इस कानून के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच गई। सर्वोच्च न्यायालय इस कानून के खिलाफ दायर की गई याचिकाओं पर बाद में सुनवाई करेगा। उससे पहले केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने राज्य की मार्क्सवादी सरकार के इन सभी कदमों पर अपनी घोर आपत्ति जताई है। शुरू में पिनरई विजयन ने राज्यपाल की आपत्ति को खारिज कर दिया और कहा कि उन्हें संविधान पढ़ना चाहिए। लेकिन आरिफ मोहम्मद खान संवैधानिक व्यवस्था के आधार पर ही यह आपत्ति कर रहे थे। वे न केवल मुस्लिम हैं बल्कि मुस्लिम हितों के पैरोकार भी रहे हैं। वे सक्रिय रूप से नागरिकता संशोधन कानून का समर्थन कर रहे हैं और तर्क देते रहे हैं कि इससे मुसलमानों का कुछ लेना-देना नहीं है। उन्हें कोई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का झंडाबरदार बताकर उनकी दलीलों की अनदेखी नहीं कर सकता। इसी बात से मार्क्सवादी और अधिक हताश हैं। उनकी हताशा हाल ही केरल में आयोजित इतिहास कांग्रेस के सम्मेलन में प्रकट हुई थी। इस सम्मेलन में सब मर्यादाएं लांघकर मार्क्सवादी इतिहासकार इरफान हबीब राज्यपाल के साथ हाथापाई करने के लिए मंच पर चढ़ गए थे। लेकिन राज्य सरकार अपने राज्यपाल के पक्ष में आगे नहीं आई। इसके बाद से सरकार और राज्यपाल के बीच तनातनी बनी हुई है।
नियमों के अनुसार विधानसभा में उसी मामले को उठाया जा सकता है, जिसका राज्य से संबंध हो। नागरिकता संशोधन कानून का संबंध राज्य से नहीं है। इस तरह केरल सरकार ने संविधान की मर्यादा का उल्लंघन किया है।
राज्य सरकार ने लगभग एक सप्ताह बाद अपनी ओर से सफाई देने के लिए 21 जनवरी को मुख्य सचिव को राज्यपाल के पास भेजा था। लेकिन राज्यपाल ने यह कहते हुए उन्हें लौटा दिया कि मार्क्सवादी सरकार ने विधानसभा में इस कानून के विरुद्ध प्रस्ताव पारित करवाकर संविधान का उल्लंघन किया है। उसके इस कार्य की कोई सफाई नहीं हो सकती। नियमों के अनुसार राज्य विधानसभा में उसी मामले को उठाया जा सकता है, जिसका राज्य से संबंध हो। नागरिकता संशोधन कानून का संबंध राज्य से नहीं है। इस तरह राज्य सरकार ने संविधान की मर्यादा का उल्लंघन किया है। राज्य सरकार के सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर करने पर भी कई संविधान विशेषज्ञों ने सवाल उठाए हैं। राज्य सरकार संविधान की धारा 131 के तहत इस कानून को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दे रही है। लेकिन इस धारा के अंतर्गत कोई मामला तभी उठाया जा सकता है जब उसका संबंध केंद्र और राज्य के बीच हितों के टकराव से या अन्य राज्यों के साथ हितों के टकराव से हो, इस मामले में ऐसा कुछ नहीं है। देश के संघीय ढांचे के सामने वास्तविक चुनौती इस वर्ष अप्रैल में पैदा होगी। एक अप्रैल से दशकीय जनगणना की प्रक्रिया आरंभ होने वाली है। इस बार की जनगणना के दौरान राष्ट्रीय जनसंख्या पंजी का काम भी शुरू होगा।
अब तक जो सूचनाएं सामने आई हैं, उनमें कहा गया है कि नागरिकों से उनके माता पिता के जन्म स्थान संबंधी सूचनाएं भी मांगी जाएंगी। इस आधार पर कांग्रेस, मार्क्सवादियों और ममता बनर्जी ने घोषित किया है कि राष्ट्रीय जनसंख्या पंजी राष्ट्रीय नागरिक पंजी का ही पूर्व रूप है और इस नाते यह देश के मुसलमानों को बेदखल करने का षड्यंत्र है। इस आधार पर इन सभी ने घोषित कर दिया है कि वे अपने यहां राष्ट्रीय जनसंख्या पंजी का काम शुरू नहीं होने देंगे। केंद्र सरकार ने पंजी से संबंधित आशंकाओं को समाप्त करने के लिए स्पष्ट किया है कि माता-पिता संबंधी जानकारी देना अनिवार्य नहीं होगा। उसके बाद भी विपक्ष राष्ट्रीय जनसंख्या पंजी के काम में बाधा डालने के लिए कृतसंकल्प दिख रहा है। इन सभी मुद्दों से संबंधित याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय में हैं। इन पर निर्णय में समय लग सकता है।
अगर एक अप्रैल तक सर्वोच्च न्यायालय का फैसला नहीं आया तो क्या राज्य सरकारें अपने यहां जनगणना का काम रुकवा देंगी? ऐसा करना असंवैधानिक होगा। अगर यह जानते हुए भी विपक्ष की सरकारें अपनी घोषणा पर अड़ी रहती हैं, तो केंद्र के पास क्या विकल्प बचेगा? एक विकल्प तो यही है कि ऐसी सरकारों को बर्खास्त कर दिया जाए। पर केंद्र सरकार ऐसा कोई कदम उठाने से शायद बचे। हो सकता है वह सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आने तक मामले को तूल न दे। पर विपक्ष के अब तक के रवैये से एक गलत परंपरा पड़ गई है। विपक्ष ने अपने व्यवहार से हमारे संघीय ढांचे को काफी आघात पहुंचाया है। अगर वोट बैंक राजनीति के आधार पर केंद्र और राज्य परस्पर इसी तरह टकराते रहे तो देश की एकता का क्या होगा?