खाप पंचायतों को लेकर कुछ सालों में एक गलत धारणा बन गई है। खाप पंचायतों को कबीलाई दृष्टि से देखा जाने लगा। लेकिन खाप पंचायतें इस देश की सामाजिक व्यवस्था का शक्तिशाली स्वरूप है। इसके स्वरूप को समझने के बाद ही हमे पता चलता है कि वे कैसे काम करती थी? इसका ब्योरा देने और समझाने की कभी कोशिश नही की गई। जनसत्ता के संपादक रहे वरिष्ठ पत्रकार बनवारी के कुछ लेख हमे खाप पंचायत को समझने में मदद करेंगे। उसका पहला हिस्सा आज लोकनीति केन्द्र पर हम दे रहे हैं………………..
राजा बहुत सीमित अर्थ में ही शासक था। वास्तविक शासन पंचायतों के ही हाथ में था, जो गांव से लगाकर जनपद के स्तर तक आहूत की जा सकती थीं। हमारे अधिकांश विद्वानों ने यह तो स्वीकार किया है कि शासन की मूल इकाई ग्राम पंचायतें थीं। लेकिन उनका स्वरूप क्या था? वे कैसे काम करती थीं? इसका ब्यौरा देने और समझने की कभी कोशिश नहीं की गई। भारत की पंचायतें कैसे काम करती थीं? इसका विस्तृत ब्यौरा दिल्ली के आस पास 200 किलोमीटर के वृत में फैले जाट बहुल क्षेत्र की खाप पंचायतों से समझा जा सकता था। उनके पास महाराजा हर्ष के बाद से अबतक के विस्तृत दस्तावेज हैं। लेकिन अब वे दस्तावेज भी लुप्तप्राय हैं। उनके आधार पर कुछ स्थानीय लेखकों ने कुछ ब्यौरे दिए हैं। इस विषय पर एक अच्छी पुस्तक एमसी. प्रधान की है। शीर्षक है- उत्तर भारत के जाटों की शासन व्यवस्था। पर यह व्यवस्था केवल जाटों की नहीं, सर्वजातीय व्यवस्था थी। इन्हीं से हमें अपने स्वराज्य के ढांचे का अनुमान लग सकता है।
खाप पंचायतें भारतीय समाज की कोई अलग और अनोखी संस्था नहीं है। बल्कि वे उस पंचायती व्यवस्था का एक अधिक शक्तिशाली स्वरूप हैं जो पूरे भारतीय समाज में व्याप्त रही है और उसकी कार्यप्रणाली, दायित्व और मर्यादाएं भी वहीं हैं जो पूरे भारतीय समाज के सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक संगठन में दिखाई देती हैं। उनकी विशेषता सिर्फ इतनी ही है कि इस पंचायती शासन की रीढ़ संख्या बहुल जाट रहे हैं, जिन्होंने अपने भीतर राजतांत्रिक महत्वाकांक्षाओं को पनपने नहीं दिया। वे जिस कुरू जांगल प्रदेश में बसे हुए थे, वहां की कठिन परिस्थितियों में भाईचारा व्यवस्था दृढ होना स्वाभाविक ही था।
दिल्ली के चारों तरफ फैला यह वही क्षेत्र था, जिसे पहले मुस्लिम आक्रांताओं और फिर अंग्रेजों के बर्बर शासन को लगातार झेलना पड़ा। इस चुनौती ने उन्हें मजबूत ही बनाया और उन्होंने कभी इन विदेशी शक्तियों के सामने घुटने नहीं टेके, बल्कि उन्हें अपनी शक्ति मानने के लिए विवश किया। औरंगजेब के अत्याचारी शासन का सामना करने के लिए 1665 में उन्होंने गोकुल जाट को एक बड़ी सेना खड़ी करने के लिए चुना था। इसी कड़ी में भरतपुर राजवंश का उदय हुआ, जिसकी कीर्ति बदन सिंह और सूरजमल के समय सबसे अधिक थी और मुगल शक्ति को छिन-भिन्न करने का काफी श्रेय इन जाट राजाओं को दिया जाता है। पर उनका शासन भरतपुर के आस-पास ही था और उन्होंने खाप पंचायतों के शासन में कभी कोई हस्तक्षेप नहीं किया।
खाप पंचायतों की मूल इकाई उसी तरह वंश या कुल हैं, जिस तरह वे दुनिया भर में समाज की मूल इकाई रहे हैं। इसी आधार पर नृशास्त्रियों ने उनकी तुलना जनजातीय कबीलों से की है। लेकिन ये खाप पंचायतें केवल सगोत्रीय या एकदेशीय सभाएं नहीं हैं जैसा कि कबीलाई या उसके समकक्ष सामाजिक संगठनों में होता है। पंचायत स्वराज्य की, स्वशासन की एक नैतिक व्यवस्था है। पंचायती शासन केवल अपने सदस्यों के हित की रक्षा के लिए नहीं होता। वह धर्म की, उसके मूलभूत नियमों की रक्षा के लिए है, इसलिए पंचायतें पूरे भारतीय समाज की उत्तरोत्तर स्तरों पर एकता बनाए रखने की वाहक रही हैं, कभी उसके विभेद की कारक नहीं बनी।
नृशास्त्री यह भूल जाते हैं कि कबीलों के बीच जिस तरह वर्चस्व की लड़ाई होती रही है, वैसी पूरे खाप पंचायत क्षेत्र में कहीं, कभी नहीं रही। खाप पंचायतों के क्षेत्र में सिर्फ जाटों के ही लगभग पौने तीन सौ वंश अर्थात् गोत्र हैं। उनमें जिस तरह का सद्भाव और सहयोग पिछली डेढ सहस्त्राब्दि में रहा है, वैसा दुनिया में कहीं देखने को नहीं मिलेगा। इसके अलावा हर खाप क्षेत्र में एक डेढ दर्जन दूसरी जातियां रहती हैं। खाप पंचायत का पूरा ढांचा ही ऐसा है कि उसमें सभी जातियां अनोखे सद्भाव और सहकार के साथ रहती आई हैं। उन्होंने एक दूसरे की स्वायत्तता की रक्षा करते हुए परस्पर एकता बनाए रखी है।
इसका एक उदाहरण सर्वखाप पंचायत के अभिलेखों में उल्लिखित यह वर्णन है। ईस्वी 1680 की यह घटना मुजफ्फरनगर जिले की मुख्य खाप बालियान के एक गांव रघुवीरपुरा से संबंधित है। गांव के निवासी चौधरी घुरकूराम के आठ वर्षीय पुत्र करार सिंह को गांव की बाल्मीकी बिरादरी के छांगा नाम के व्यक्ति ने आभूषणों के लालच में और तंत्र मंत्र के उद्देश्य से मारकर कच्चे कुंए में फैंक दिया। उसी बिरादरी की एक महिला ने उसका यह कृत्य देखा और गांव की पंचायत बुलाई गई। इस पंचायत में सभी जातियों के तीन सौ पचपन लोग उपस्थित थे।
पंचायत में छांगा भंगी ने स्वीकार किया कि उसने शराब के नशे में भूतप्रेतों को बलि देने के उद्देश्य से यह हत्या की थी। इस स्वीकारोक्ति के बाद उसे दंडित करने के लिए ग्राम पंचायत ने उसे बाल्मीकी बिरादरी को सौंप दिया। पंचायत में उस समय बाल्मीकी बिरादरी के 19 लोग उपस्थित थे। उन्होंने सबसे पहले पूरी ग्राम पंचायत से यह वचन लिया कि उनका जो भी निर्णय होगा वह पूरी पंचायत को स्वीकार होगा। फिर उनकी पंचायत बैठी और पंचायत में निर्णय हुआ कि छांगा भंगी ने लोभ में आकर एक अबोध बच्चे की हत्या की है। यह पाप क्षमा के योग्य नहीं है, इसलिए उसे मृत्युदण्ड दिया जाए। फिर सारी ग्राम पंचायत ने बाल्मीकी पंचायत के इस निर्णय का अनुमोदन किया और पूरी पंचायत के सामने छांगा को मृत्युदण्ड दिया गया….जारी