कोदंड कठिन चढ़ाइ सिर जट जूट बाँधत सोह क्यों।
मरकत सयल पर लरत दामिनि कोटि सों जुग भुजग ज्यों॥
कटि कसि निषंग बिसाल भुज गहि चाप बिसिख सुधारि कै।
चितवत मनहुँ मृगराज प्रभु गजराज घटा निहारि कै॥
मरकत सयल पर लरत दामिनि कोटि सों जुग भुजग ज्यों॥
कटि कसि निषंग बिसाल भुज गहि चाप बिसिख सुधारि कै।
चितवत मनहुँ मृगराज प्रभु गजराज घटा निहारि कै॥
कठिन धनुष चढ़ाकर सिर पर जटा का जू़ड़ा बाँधते हुए प्रभु कैसे शोभित हो रहे हैं, जैसे मरकतमणि (पन्ने) के पर्वत पर करोड़ों बिजलियों से दो साँप लड़ रहे हों। कमर में तरकस कसकर, विशाल भुजाओं में धनुष लेकर और बाण सुधारकर प्रभु राम राक्षसों की ओर देख रहे हैं। मानो मतवाले हाथियों के समूह को (आता) देखकर सिंह (उनकी ओर) ताक रहा हो।
जाने माने लेखक देवांशु झा ने ‘कोदंड रामकथा’ लिखी है। इस पुस्तक की महिमा भी कुछ इसी तरह है। पुस्तक का प्राक्कथन आपसे साझा करता हूं।
मैंने रामचरितमानस का पाठ अपने गांव में सुना था। गांव से शहर आया, पाठ छूट गया। साहित्य से अनुराग पुराना था इसलिए रामकथा पर कुछ छिटपुट पढ़ता रहा। यद्यपि विशेष नहीं। कॉलेज से निकलने के बाद निराला की कविता, राम की शक्तिपूजा पढ़ी। निराला के राम मेरे भीतर धंस गए। अपनी मानवीय उपस्थिति, संशय, दृढ़ता, शक्ति, करुणा और अंतत: विराटता से उन्होंने मुझे बारंबार उद्वेलित किया। पैंतालीस की वय में वाल्मीकि रामायण पढ़ी। रामायण पढ़ने के बाद भगवान राम के जीवन पर चार-पांच लेख लिखे। फिर एक दिन अनायास ही रामकथा लिखने बैठ गया। कोदंड नाम के लिए भी मुझे संघर्ष नहीं करना पड़ा। वह सहज रूप से चेतना में चमक उठा।
कोदंड संक्षिप्त है। वह रामकथा पर लिखे विशाल उपन्यासों के सामने अत्यंत छोटा है किन्तु राम के तप-त्याग, संघर्ष, आर्जव, प्रेम, करुणा, शौर्य को शब्द देता है। प्राचीन काल के महाकवियों से लेकर मध्यकाल और आधुनिक युग के बड़े रचनाकारों ने रामकथा लिखी। सैकड़ों रामायणों, महाकाव्यों, खण्डकाव्यों उपन्यासों के मध्य मेरी उपस्थिति नगण्य है। किन्तु राम के संपूर्ण जीवन की दीप्ति, उनके तप-त्याग ही ऐसे हैं कि मुझ जैसा साधारण लेखक भी कुछ लिखने को प्रवृत हो जाता है।
यों तो रामकथा की प्रासंगिकता हर युग में रही है लेकिन आज के युग में भगवान राम से सीखना एक तरह से अनिवार्य ही है। आज जब मनुष्य क्षुद्र स्वार्थ के लिए अपने ही परिजनों, माता-पिता, बंधु-बांधवों से लड़ता भिड़ता है, उन्हें त्याग देता है, तब रामकथा की उदात्त भावभूमि उसे तनिक ऊपर उठा सकती है। मैं नहीं जानता, अपने लेखन में कितना सफल हो सका हूं किन्तु इतना अवश्य जानता हूं कि मैंने यह पुस्तक मनोयोग और पूरी ईमानदारी से लिखी है। इस पुस्तक का आधार केवल और केवल वाल्मीकि रामायण है। उसके अतिरिक्त मैंने किसी पुस्तक का कोई सहारा नहीं लिया। निराला के राम यदा-कदा इसमें कौंधते रहते हैं। कोदंड से पूर्व मेरी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं किन्तु मैं अपने लेखक जीवन का प्रारंभ इसी पुस्तक से मानता हूं। हिन्दी पट्टी के विशाल पाठक वर्ग से मेरी बड़ी आशा है। मैं उन्हें इतना तो आश्वस्त कर ही सकता हूं कि कोदंड को पढ़ते हुए वे उस विराट भावसागर में उतर सकेंगे, जिसमें युगों-युगों से भारतीय जनमानस गोते लगाता रहा है। मैं अपने अभिन्न मित्रों का विशेष आभारी हूं जिन्होंने इस पुस्तक को प्रकाशित करने में मेरी सहायता की।