आज बापूजी की बात कहने लगा हूं, तो उससे पहले थोड़ी अपनी कहानी भी सुना दूं।
मैं बचपन से ही थोड़ा विद्रोही रहा हूं। घर में विद्रोह, पाठशाला में विद्रोह। शिक्षकों के साथ भी मेरे कई बार झगड़े हुए। दो बार तो मुझे काॅलेज से निकाल दिया गया था। नौकरियां बदलनी पड़ी हैं। इतना ही नहीं प्रांत भी बदलने पड़े हैं। मैं अपने मित्रों को भी कष्ट देता हूं, शत्रु की तो कोई बात ही नहीं। इसी कारण मुझे कोई अपने पास नहीं रखता।
आजकल क्रांति की बातें खूब होती हैं। जहां जाओ, वहां ‘इंकलाब जिंदाबाद’ की आवाज सुनाई देती है। परंतु उस जमाने में इंकलाब पुकारने वाला कोई नहीं था। मरने वाले थेड़े-से थे। शायद उन थोड़ों में एक मैं भी था।
हमको अहिंसा वगैरह में कोई भरोसा न था। पढ़ाई पूरी होते ही मैं अध्यापक बन गया। वह क्यों? दूसरों पर क्रांति की रंगत लगाने के लिए! सरकार मुझे वेतन देती थी और मैं सरकार के विरुद्ध बगावत फैलाता था। ऐसे समय में जब बापूजी आए, तब मैं बिहार के मुजफ्फरपुर में इतिहास पढ़ाता था।
बापूजी सन् 1914 में अफ्रीका से भारत आए और अपने लड़कों यानी अपने आश्रम के लड़कों को लेकर कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर के शांति निकेतन में उतरे थे। तब तक वे ‘महात्मा’ की उपाधि से विभूषित नहीं हुए थे। उन दिनों वे मिस्टर गांधी कहलाते थे। फिर भी वे एक विचित्र प्राणी तो थे ही। विचित्र प्राणी को देखने का किसका मन नहीं होता? मैं भी कौतूहलवश उनसे मिलने निकला।
उनका शरीर इतना छोटा और दुबला कि किसी को यह नहीं लग सकता था कि यहां कोई महापुरुष बैठा है। लेकिन दो चीजें उनको बाकी सबसे अलग कर देती थीं। उनकी वाणी और आंखें। उनकी आंखों में कोई अद्भुत ज्योति थी। उनकी वाणी में अजब शक्ति। उनकी आवाज भारी नहीं थी तो भी ऐसा मालूूम होता मानो मेघ गरज रहे हों। खूब विचार-विचार कर बोल रहे हों। ऐसा लगता था कि जो कुछ वे कह रहे हैं, उसे वे करके छोड़ेंगे। ऐसी ध्वनि उसमें सुनाई देती। इसी कारण उनका धीमा और मंदगति वाला शब्द प्रवाह भी बहुत प्रबल, शक्तिशाली लगता था।
उस समय बापू की पोशाक, आहार सबकुछ अलग था। आज जो गांधी टोपी घर-घर प्रख्यात हो चुकी है, वही गांधी टोपी वे उन दिनों पहना करते थे। पैर नंगे! आहार में मूंगफली। यहां आने से पहले वे फलाहार ही करते थे। वह उनका नियम था। यहां आकर देखा कि फलाहार बहुत महंगा पड़ेगा और महंगा आहार गरीब को कैसे ठीक पड़ेगा। इसलिए उन्होंने मूंगफली खाना शुरू किया। यह तो हुई उनकी बाहर की बात। अब सुनो भीतर की।
पहली मुलाकात में ही मैं समझ गया कि यह आदमी जो काम हाथ में लेगा, उसे पूरा किए बिना छोड़ेगा नहीं। या तो काम को समाप्त कर डालेगा, या अपने को ही समाप्त कर डालेगा। इसके अलावा उस समय उनमें एक दूसरी शक्ति भी मुझे दिखाई पड़ी। वह है लोगों को अपनी ओर खींच लेने की शक्ति। इस आकर्षण का कारण यह था कि यह आदमी सर्वथा प्रामाणिक था। ऐसी एकाग्रता, दृढ़ता, प्रामाणिकता तथा विचारवता वाला आदमी मैंने पहले कभी नहीं देखा था। महापुरुष मैंने अनेक देखे थे, परंतु उनकी जैसे शक्ति मैंने कहीं भी नहीं देखी थी। उस समय के बहुत बड़े-बड़े नायकों ने देश की गरीबी के विषय में बड़ी-बड़ी पुस्तकें लिखी थीं, परंतु गरीबी क्या चीज है, यह भी नहीं जाना था। उन लोगों ने स्वदेशी के विषय में बड़े-बड़े उत्तेजक भाषण दिए थे, परंतु स्वदेशी कपड़ा कैसा होता है, यह कभी नहीं देखा था।
इस तरह अपनी पहली मुलाकात में ही मैंने अपने को उनके प्रति सौंप दिया था। इसका यह अर्थ नहीं है कि बापू की सभी बातें मुझे मान्य हैं- भई बिलकुल नहीं! बापू जबसे आए हैं, संयम की बातें करते रहते हैं। मुझमें संयम है ही नहीं। इस प्रकार हमारे बीच में कुछ भी मेल नहीं है। मेरे जैसा विद्रोही चेला गांधी का दूसरा कोई नहीं होगा। इतना होते हुए भी मैंने उनकी तानाशाही मंजूर की है। इसका कारण बताता हूं।
दुनिया में तीन प्रकार के लोग होते हैं। पहले हैं, जो अपनी महत्ता और शक्ति को समझते हैं। उनमें दूसरों को ले चलने की भी शक्ति होती है। दूसरा प्रकार उन लोगों को है, जिनमें दूसरों को चलाने की शक्ति नहीं होती। वे स्वयं मानो अनुयायी होने के लिए ही बनाए गए होते हैं। इसलिए वे लोग दूसरे की महत्ता और शक्ति को समझ सकते हैं, स्वीकार कर सकते हैं तथा स्वीकार कर लेते हैं। तीसरे प्रकार के लोग वे होते हैं, जिनमें महत्ता और शक्ति नहीं होती। वे दूसरों की महत्ता और क्षमता को समझ नहीं सकते, स्वीकार भी नहीं कर सकते। ये लोग कुछ नहीं कर सकते। इनकी हालत त्रिशंकु जैसी बड़ी विचित्र होती है।
अक्सर लोग मुझसे पूछते हैं कि आप हिंसा में भरोसा रखने वाले हैं और गांधी ठहरे परम अहिंसावादी। गांधी जी ब्रिटिश राज्य में श्रद्धा रखने वाले हैं और आप उसका उच्छेद करने वाले। तो आपने उनका नेतृत्व किस प्रकार स्वीकार किया? मैंने इस आदमी में एक शक्ति देखी है। वह है या तो काम को अंत तक पहुंचाना या अपना अंत कर देना। इसलिए मैंने इनको अपना नेता स्वीकार किया है।
दूसरे उनमें सच्चाई है। आज वे अहिंसा का समर्थन करते हैं, परंतु जिस क्षण इनको यह समझ में आ जाएगा कि अहिंसा से कुछ सिद्ध होने वाला नहीं है, उसी समय वे हिंसा के रास्ते पर चल कर ऐसी उग्रता से लड़ेंगे, वैसा दूसरा नहीं लड़ेगा। इस एक ही चीज ने मुझे उनके प्रति आकृष्ट किया है। इसीलिए मैं उनके साथ हूं। हिंसा के विषय में तो मेरा विश्वास हो गया है कि बापू को हिंसा से डिगा देना, विचलित करना, एकदम असंभव है। उनको जिस क्षण यह लगा कि ब्रिटिश राज्य देश के कल्याण के लिए नहीं है, उसी समय उन्होंने उसके लिए ऐसे कठोर विशेषण प्रयुक्त किए हैं, जैसे लोकमान्य तिलक भी नहीं कर पाए थे। ब्रिटिश शासन को उन्होंने शैतानी राज्य कहा और वह भी इतने जोर से कि फिर तो पूरा देश उसको शैतान कहने लगा। नन्हें बच्चे भी उसे शैतान सरकार कहते तो भी उनको कोई पकड़ता नहीं था।
उनके जैसा काम करने वाला और काम लेने वाला अब तक मैंने नहीं देखा। वे छोटे-छोटे कामों में भी अपना प्राण होम करने के लिए तैयार हो जाते। अपने प्राण हथेली पर रखकर घूमने वाला मैंने उन जैसा कोई दूसरा नहीं देखा। अपने प्राणों को संकट में डालकर उनको यह नहीं लगता था कि वे कोई महान त्या कर रहे हैं। छोटे-छोटे कामों में भी वे बड़े-बड़े कामों को समाया हुआ समझते थे।
वे टट्टी साफ करते हरिजनों का काम करते हैं और मानते हैं कि वे देश का उद्धार कर रहे हैं। जिस काम को कुछ एक लोग ‘ओल्ड डेम्स वर्क’ यानी पुरानी बुढ़िया का काम कहते थे, उस चरखे में भी वे देश का उद्धार देखते थे। कोई भी छोटा काम उनको जरा भी छोटा नहीं लगता था। उसमें तो उनको स्वराज्य के दर्शन होते।
हम लोग आत्मा में परमात्मा का दर्शन करना कहते हैं, उसी प्रकार वे उन चीजों में स्वराज्य के दर्शन करते। इसी कारण उनके साथ कोई प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता था। मुझे तो यह लगता है कि उनकी फिलासाफी का एक महत्वपूर्ण अंग यह है कि उनने कहीं भी प्रतिस्पर्धा के लिए कोई जगह ही नहीं छोड़ रखी थी। तुम एक बंदूक रखोगे तो सामने वाला दो बंदूक ले आएगा। लेकिन यदि तुम अहिंसक बन जाओगे, बंदूक ही नहीं रखोगे तो सामने वाला तुमसे होड़ करने, लड़ने भला क्या ले आएगा?