कुंभ मूलत: साधु-संन्यासियों के इकट्ठा होने का अवसर था, लेकिन अंग्रेजों के समय कुंभ का स्वरूप मेले का बना दिया गया। स्वतंत्रता के बाद भी सरकारों ने कुंभ के लिए यह विशेषण यथावत रखा और कुंभ की व्यवस्थाएं मेले के आधार पर ही होती रही हैं।
उ त्तर प्रदेश की सरकार ने कुंभ के बाहरी स्वरूप में बड़ा परिवर्तन कर दिया है। मुस्लिम शासकों द्वारा बदलकर रखे गए इलाहाबाद नाम को फिर प्रयागराज करने का निर्णय पहले ही हो चुका है। प्रयाग में इस बार अद्धुर्कुंभ है, लेकिन राज्य सरकार ने उसकी सब व्यवस्थाएं पूर्णकुंभ जैसी ही की है। वैसे भी राज्य सरकार ने प्रयाग में कुंभ के आयोजन के लिए एक स्थायी प्राधिकरण गठित किया है। राज्य की विधानसभा से पारित करवाकर प्रयागराज मेला प्राधिकरण बनाया गया है, जो हर कुंभ के समय सक्रिय हो जाएगा। कुंभ के लिए राज्य सरकार ने 4,000 करोड़ रुपये की राशि सुनिश्चित की थी। यह पिछले कुंभ पर खर्च की गई राशि से दोगुनी है। इस बार कुंभ में संगम पर 35 घाट बनाए गए हैं।
इस बात का ध्यान रखा गया है कि यहां आने वाले श्रद्धालुओं को किसी तरह की कोई समस्या न हो। पूरे कुंभ क्षेत्र में साफ-सफाई का विशेष ध्यान दिया गया है। संगम क्षेत्र का जल अधिक साफ और स्नानादि के योग्य है। इस बार की व्यवस्था से ऐसा लगता है कि वह तीर्थयात्रियों की भीड़ को नियंत्रित करने के उद्देश्य से नहीं, बल्कि कुंभ आने वाले तीर्थयात्रियों को हरसंभव सुविधा देने और उसकी यात्रा को सुखद बनाने के लिए की गई है। 3500 हेक्टेयर में फैले कुंभ क्षेत्र में सभी व्यवस्थाएं सुचारू रूप से बनी रहे, इसके लिए प्रशासन में कुशलता ही नहीं निष्ठा की भी आवश्यकता होती है। प्रदेश में न केवल बीजेपी की सरकार है, बल्कि उसकी कमान योगी आदित्यनाथ के हाथ में है। इसलिए स्वाभाविक ही था कि इस बार की व्यवस्थाओं को अब तक होने वाली व्यवस्थाओं से बेहतर बनाया जाता। योगी सरकार निश्चय ही सिद्ध करना चाहेगी कि धार्मिक आयोजनों में उसकी गहरी निष्ठा है। कुछ महीने बाद होने वाले आम चुनाव को भी ध्यान में रखा गया हो तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हर कुंभ में प्रशासनिक व्यवस्था के समानांतर संन्यासी अखाड़ों की अपनी व्यवस्था होती है। उनका पूरा ध्यान इस बात पर रहता है कि यहां आने वाले श्रद्धालुओं के लिए भंडारे की समुचित व्यवस्था हो। संसार में कुंभ जैसा कोई दूसरा आयोजन नहीं है। कुंभ में कई करोड़ लोग स्नान और प्रवचन आदि के लिए पहुंचते हैं।
इन सबके समुचित भोजन की व्यवस्था काफी बड़ा दायित्व है। लेकिन हर अखाड़ा प्रयत्न करता है कि उसके यहां आने वाले श्रद्धालुओं के रहनेखा ने की व्यवस्था समुचित हो। पुराने समय में कुंभ की सारी व्यवस्था अखाड़ों की परिषद के ही हाथ में होती थी। उनके बीच कुछ प्रतिस्पर्द्धा होना स्वाभाविक है। उनके बीच शाही स्नान और अन्य विशेष अवसरों पर क्या क्रम होना चाहिए, इसके बारे में कुछ परंपराएं हैं। उसके बाद भी कुछ विवाद उठना स्वाभाविक है। हमारे यहां के सभी अखाड़े पंचायती हैं और उनकी आंतरिक व्यवस्था बहुत लोकतांत्रिक है। इसी आधार पर एक अखाड़े के दूसरे अखाड़े से संबंध परस्पर सौजन्य और पारंपरिक शिष्टाचार पर आधारित रहे हैं। इसलिए समय-समय पर उठने वाले विवादों का निपटारा हो जाता था। लेकिन अंग्रेजों के समय इन विवादों को तूल दिया गया, ताकि ब्रिटिश प्रशासन को दखल देने का अवसर मिले। जब विवादों का निपटारा किसी बाहरी संस्थान के हस्तक्षेप पर निर्भर हुआ, तो अखाड़ों के आपसी सौजन्य की क्षति हुई और अखाड़ों के बीच खूनी संघर्ष भी हुए। अंग्रेजों के समय दर्ज ये खूनी संघर्ष ही अब इतिहास बना दिए गए हैं और कुंभ के आयोजन में राज्य की भूमिका प्रधान हो गई है। अलबत्ता एक अच्छी बात यह है कि राज्य अपने-आपको बाहरी व्यवस्था तक ही सीमित रखता है और संन्यासियों के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप नहीं करता। अंग्रेजों के समय कुंभ का स्वरूप मेले का बना दिया गया था। कुंभ में हमेशा साधु-संन्यासी और शुभ मुहूर्त में स्नान का पुण्य अर्जित करने के लिए साधारण गृहस्थ बड़ी संख्या में आते रहे हैं। पहले मुस्लिम और फिर ब्रिटिश शासनकाल में संन्यासियों पर अनेक तरह के प्रतिबंध लगे, तो उनका कुंभ में आना-जाना भी कुछ बाधित हुआ। फिर भी यह माना जाता था कि कुंभ में सुदूर स्थानों के वे संन्यासी भी यदा-कदा पहुंचते हैं, जो अन्यथा अपने स्थान पर तपस्या में ही लीन रहते हैं। ऐसे संन्यासियों का सत्संग करने के लिए भी कुंभ में गुणी लोग इकट्ठा होते थे। लेकिन आरंभ में साधु-संन्यासियों और साधारण गृहस्थों की संख्या में जो संतुलन रहा होगा, वह धीरे- धीरे बदला। साधु-संन्यासियों की संख्या घटी और साधारण गृहस्थों की संख्या बढ़ी।
अंग्रेजों को वैसे भी भारतीय समाज और उसकी व्यवस्थाओं की कोई समझ नहीं थी। इसलिए उन्होंने कुंभ को स्नान के लिए उपस्थित होने वाली भीड़ के रूप में देखा। इस नाते उसे मेला कहा जाने लगा। स्वतंत्रता के बाद भी सरकारों ने कुंभ के लिए यह विशेषण यथावत रखा और कुंभ की व्यवस्थाएं मेले के आधार पर ही होती रही हैं। राज्य की मुख्य चिंता पर्व-स्नान के लिए उपस्थित होने वाली विशाल संख्या को नियंत्रित करने की ही रही। तीर्थयात्रियों के निरंतर प्रवाह को सुचारू बनाए रखने के नाम पर जो इंतजाम किए गए, वे अनेक बार उनके प्रवाह में बाधा डालने वाले सिद्ध हुए। कई बार भीड़ में मची अफरा- तफरी के कारण दुर्घटनाएं हुईं। अगले कुंभ को दुर्घटनारहित बनाने के लिए प्रशासन ने हर बार कमर कसी, लेकिन प्रशासनिक अधिकारी अक्सर नियोजन और नियंत्रण का अंतर भूल जाते हैं। उसी से दुर्घटनाओं की आशंका बनी रहती है।
कुंभ मूलत: साधु-संन्यासियों के इकट्ठा होने का अवसर था। हमारे धार्मिक प्रतिष्ठान में दो समानांतर धाराएं रही हैं। एक धारा शास्त्र केंद्रित रही है, जिसके शिखर पर आचार्य हैं। शास्त्र केंद्रित धारा में मुख्यत: चार संप्रदाय हैं, जो त्रयी की विशेष व्याख्या के आधार पर बने हैं। त्रयी का अर्थ है उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और भागवद्गीता। उनकी नई व्याख्या करने वाले आचार्य माने जाते हैं और उनके अनुयायी एक नए संप्रदाय में संगठित हो जाते हैं। इस तरह का पहला संप्रदाय आदिशंकर द्वारा प्रसूत था और उन्होंने देश में चार पीठों की स्थापना करके चार शंकराचार्यों की व्यवस्था की थी। पांचवीं पीठ कांचीपुरम में हुई, जहां वे स्वयं रहे थे। इस तरह आज देश में पांच शंकराचार्य हैं। इसके अलावा रामानुज, मध्व और बल्लभ संप्रदाय के आचार्य हैं। दूसरी धारा साधना केंद्रित है। जो साधु-संन्यासी तपश्चर्या में लगे रहते हैं और योग-मार्ग के आधीन हैं, वे संन्यासी वर्ग में आते हैं। वे दो तरह के अखाड़ों में संगठित हैं। दशनामी अखाड़े आदिशंकर की परंपरा में हैं। अन्य तीनों संप्रदायों से संबद्ध अखाड़े वैरागी अखाड़े कहे जाते हैं।
संन्यास मार्ग की दीक्षा आचार्य द्वारा दी जाती थी। जब दीक्षा लेने वालों की संख्या बढ़ी तो महामंडलेश्वरों का एक नया स्तर पैदा हो गया। आजकल आचार्य कम ही दीक्षा के आयोजनों में दिखाई देते हैं। यह दायित्व महामंडलेश्वर ही निभाते हैं। उनका चयन अखाड़े करते हैं, पर उनकी मान्यता तभी होती है, जब उन्हें अन्य अखाड़ों की भी स्वीकृति-सहमति प्राप्त हो जाए। कुंभ के समय आचार्य और अखाड़े एक साथ दिखाई देते थे और आम गृहस्थों की जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए कथा-प्रवचन आयोजित करते थे। अब अखाड़ों में श्रीमहंथों और महामंडलेश्वरों का प्राधान्य हो गया है। कम लोग जानते हैं कि देश में अखाड़ों का व्यापक तंत्र है। सुदूर अरुणाचल तक में किसी दुर्गम जगह पर कोई मंदिर या साधना स्थल मिल जाएगा जो किसी अखाड़े की देखरेख में हो। जब देश स्वाधीन नहीं था और भारत के लोगों को विदेशी शासन में काफी अत्याचार और धार्मिक असहिष्णुता झेलनी पड़ी थी, अखाड़ों के साधुसं न्यासी ही उनकी रक्षा में तत्पर रहते थे। उस समय देश को एक सांस्कृतिक धारा में बनाए रखने के लिए वे दुर्गम स्थानों तक गए और वहां सनातन धर्म की रक्षा के केंद्र स्थापित किए। यह दुर्भाग्य की बात है कि हमारे आधुनिक प्रशासनिक तंत्र में इन अखाड़ों की कोई समझ नहीं है। उन्हें सार्वजनिक व्यवस्थाओं से दूर रखा जाता रहा है। इससे उनमें भी कुछ कमजोरियां पैदा हुई हैं। साधनों का अभाव रहता ही है। पिछले दिनों महामंडलेश्वर के पद पर कुछ विवादास्पद चयन भी हुए हैं। असल में सार्वजनिक व्यवस्थाओं से अलग कर दी गई संस्थाएं लोक की निगरानी में नहीं रहतीं और इससे उनमें कुछ कमजोरियां पैदा हो जाती हैं। धार्मिक प्रतिष्ठान में आई कमजोरियों को दूर करने का काम भी उन्हें ही करना होगा। सभी अखाड़ों में समन्वय के लिए अखाड़ा परिषद है।
अखाड़ा परिषद को समाज की व्यवस्थाओं के बारे में अधिक जागरूक होकर निर्णय करने की आवश्यकता है। इसी के लिए कुंभ की व्यवस्था हुई थी, लेकिन अब वह केवल एक मेला होकर रह गया है। उसे उसकी मूल अवस्था में लौटाने की आवश्यकता है। कुंभ को संन्यासियों के समागम के रूप में ही देखा जाना चाहिए। कुंभ में जाने वाले लोगों को भी केवल तीर्थ स्नान तक अपनी कुंभ यात्रा सीमित नहीं करनी चाहिए। यह साधु-संन्यासियों और समाज के बीच संपर्क बनाए रखने का एक अद्भुत अवसर है। उसकी वह भूमिका बनी रहनी चाहिए।