नागरिकता संशोधन कानून को बने और लागू हुए दो सप्ताह से अधिक हो गए हैं। विपक्ष ने इस कानून के विरोध में एक देशव्यापी आंदोलन खड़ा करने की कोशिश की। कुछ जगह धरने-प्रदर्शन और रैलियां हुईं। लेकिन विपक्ष जिस तरह का व्यापक आंदोलन छेड़ने की योजना बना रहा था, उसे उसमें सफलता नहीं मिली। जल्दी ही यह स्पष्ट हो गया कि देश में इस कानून को लेकर व्यापक सहमति है। देश के बहुसंख्यक लोग उसे पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से मजहबी असहिष्णुता का शिकार होकर भारत आए हिन्दू, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी और ईसाई समुदाय को दिए गए वचन पालन के रूप में ही देख रहे हैं। इन समुदायों को भारत के विभाजन का शिकार होना पड़ा था। इसलिए यह उनका सहज अधिकार था कि वे सुरक्षित जीवन के लिए भारत आए और यह भारत का कर्तव्य था कि वह उन्हें नागरिकता प्रदान करके उनके जीवनयापन को सामान्य बनाने का प्रयत्न करे। यह काम पिछले सात दशक में नहीं किया गया था, इसकी जवाबदेही अब तक की सरकारों पर आती है। देश के अधिकांश दल और नेता समय-समय पर उन्हें नागरिकता दिए जाने की मांग करते रहे थे।
सीएए को लेकर संतोष की बात है कि देश की विशाल बहुसंख्या इस कानून के समर्थन में खड़ी होकर विपक्ष को यह संदेश दे रही है कि लोकतंत्र को भीड़तंत्र मत बनाइए।
आज उनमें से बहुत से इस कानून का विरोध कर रहे हैं। इससे स्पष्ट हो गया था कि यह लोकतंत्र के नाम पर की जा रही नकारात्मक राजनीति ही है। कांग्रेस, मार्क्सवादियों या ममता बनर्जी जैसे नेताओं का वास्तविक विरोध इस कानून से नहीं है, उनका विरोध भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में होने से है। 2014 में सत्ता में आई भाजपा 2019 में और भी बड़ी शक्ति के साथ सरकार बनाने में सफल हो गई। इसलिए अपनी राजनैतिक असफलता से निराश विपक्षी दल मोदी सरकार के विरुद्ध आंदोलन छेड़ने का कोई न कोई बहाना ढूंढ रहे थे। इस कानून को लेकर किसी को कोई वास्तविक आपत्ति नहीं हो सकती। इसलिए पहले उन्होंने पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के प्रताड़ित धार्मिक वर्गों में मुसलमानों को शामिल न किए जाने का तर्क दिया। पर जो देश मजहबी आधार पर बने और जिन्होंने अपने आपको इस्लामी गणतंत्र घोषित किया, उनके यहां प्रताड़ित मुस्लिम ढूंढकर उन्हें अपने यहां आमंत्रित करना और नागरिकता देना संभव नहीं हो सकता था। यह बात पूरे देश को आसानी से समझ में आ गई।
अब तक विदेशी पैसे से चलने वाले स्वयंसेवी संगठनों के बल पर विपक्षी दल कुछ जगह धरना-प्रदर्शन करवाने में लगे रहे हैं। पश्चिम बंगाल में पहले मार्क्सवादियों ने और अब तृणमूल कांग्रेस ने एक बड़ा राजनैतिक माफिया पैदा कर रखा है। ममता बनर्जी इस माफिया के सहारे नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ हिंसा और उत्पात फैलाने में लगी रहीं। कांग्रेस, मार्क्सवादी, द्रमुक आदि दल और सभी तरह के वाममार्गी देश के मुसलमानों को गुमराह करने में लगे रहे कि यह कानून उन्हें देश से निकालने की दिशा में पहला कदम है। अगला कदम राष्ट्रीय नागरिकता पंजी होगा। इस बीच सरकार ने राष्ट्रीय जनसंख्या पंजी बनाने की घोषणा की तो उसे भी मुसलमानों के खिलाफ इस तथाकथित दुरभिसंधि का अंग घोषित कर दिया गया। विपक्षी दल अपनी नकारात्मक राजनीति में पूरे देश को उलझाते रहे, यह लोकतंत्र के लिए बहुत हानिकारक है। पर इससे भी आगे बढ़कर वे देश की आबादी के 14 प्रतिशत मुसलमानों में असुरक्षा पैदा करके उन्हें हिंसा और आगजनी की ओर धकेलने की कोशिश करें, यह खतरनाक राजनीति है। किसी भी दूसरे देश में इसे देशद्रोह की संज्ञा दे दी जाती। यह हमारे समाज की सहिष्णुता ही है कि विपक्षी नेता इतना बड़ा राजनैतिक अपराध करने का साहस करते रहे हैं। देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद राष्ट्रीय कांग्रेस जब से नेहरू कांग्रेस में बदल गई, उसने देश के मुस्लिम समुदाय को अपना वोट बैंक बनाए रखने के लिए उनमें असुरक्षा पैदा किए रखने की नीति अपना ली। भारत के आम मुसलमान बहुसंख्यक समुदाय के साथ सहजीवन में कोई समस्या नहीं देखते। इसलिए वे सामान्यत: शांत रहे हैं।
लेकिन आवेश में आकर हिंसा और उपद्रव पर उतारू होता रहा है। इससे कांग्रेस की सरकारों को भी कठिनाई होती रही थी। गृह मंत्रालय की पुरानी खुफिया रिपोर्ट या जांच समितियों की रिपोर्ट उठाकर कोई भी देख सकता है कि सांप्रदायिक दंगों में सदा मुसलमानों के इसी उपद्रवी वर्ग की अग्रणी भूमिका होती थी। सार्वजनिक रूप से सांप्रदायिक दंगों का दोष हिन्दुओं पर या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर डालने के बाद भी कांग्रेस सरकारें इन उपद्रवी तत्वों के विरुद्ध सख्ती करने के लिए मजबूर हुईं। उत्तर प्रदेश में दंगाइयों को सबक सिखाने के लिए पीएसी का इस्तेमाल करने वाली कांग्रेस सरकारें ही थीं। कांग्रेस की वोट बैंक की राजनीति ने माहौल को जितना आवेश से भर दिया था, उसमें उपद्रवी तत्वों में भय पैदा करने की कोशिश में पीएसी से कुछ ज्यादती भी हुई होगी।
बहुत से निरपराध मुसलमान भी इस ज्यादती का शिकार हुए होंगे। लेकिन पीएसी की कार्रवाई के बाद सांप्रदायिक दंगे होना कम हो गए। पर इस प्रक्रिया में मुसलमान कांग्रेस से अलग हो गए। वे कांग्रेस छोड़कर तथाकथित सेक्यूलर राजनीति करने वाले मुलायम सिंह, लालू प्रसाद या ममता बनर्जी जैसे नेताओं के पीछे खड़े हो गए। 2014 में मुसलमानों के समर्थन के बिना भाजपा के सरकार में आने से यह भ्रम भी टूट गया कि उनका समर्थन केंद्र या राज्यों की सत्ता में पहुंचने के लिए अपरिहार्य है। इससे मुसलमानों में दो तरह की प्रतिक्रियाएं हुई हैं। एक तरफ ऐसे बहुत से मुसलमान हैं, जो मानते हैं कि अब तक उनमें असुरक्षा की भावना पैदा करने के लिए उन्हें गुमराह किया जा रहा था। इनमें से कुछ भारतीय जनता पार्टी के साथ भी आए हैं। दूसरी तरफ मुस्लिम समुदाय के वे लोग हैं, जो हिन्दुओं की राजनैतिक शक्ति में वृद्धि को अपनी असुरक्षा के रूप में देखते हैं। नागरिकता संशोधन कानून के विरोध के दौरान मुसलमानों का यह विभाजन और स्पष्ट हुआ है। ऐसा पहली बार हुआ है कि देश के मुसलमानों के अनेक बड़े नेता मुखर रूप से इस कानून के समर्थन में आगे आए हैं। उन्होंने खुलकर यह कहा है कि इस कानून से मुसलमानों का कोई अहित नहीं होता क्योंकि इस कानून से उनका कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए समस्या मुसलमानों के बीच के उन दंगाई तत्वों की रह गई, जो विपक्षी नेताओं के भड़कावे पर हिंसा और उत्पात पर उतर आए। पश्चिम बंगाल में तो सरकार ही उनकी पीठ पर थी।
लेकिन उत्तर प्रदेश में अदालतों के कुछ पुराने आदेशों का सहारा लेकर मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने घोषित किया कि दंगाइयों की पहचान की जाएगी और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वालों से उसकी वसूली होगी। उत्तर प्रदेश पुलिस और प्रशासन ने इस दिशा में कार्रवाई आरंभ की और उसके सकारात्मक परिणाम सामने आने लगे। सर्वोच्च न्यायालय ने 2009 में और इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 2010 में यह निर्देश दिए थे कि सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वालों से उस नुकसान की वसूली की जाए। बुलंदशहर में तो पुलिस और प्रशासन की संपत्ति कुर्क करने की कार्रवाई से बचने के लिए कुछ सदाशय मुस्लिम नेताओं की पहल पर 6.27 लाख रुपया इकट्ठा करके उस राशि का चेक प्रशासन को सौंप दिया गया। उत्तर प्रदेश सरकार की इस सख्ती के बाद राज्य में हिंसा और आगजनी की घटनाएं रुक गईं। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा की गई इस कार्रवाई का अन्य राज्य और सरकारी प्रतिष्ठान भी अनुकरण कर रहे हैं।
दिल्ली समेत जहां-जहां सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने की घटनाएं हुई हैं, उसके लिए जिम्मेदार लोगों को पहचान कर उनसे नुकसान की वसूली शुरू कर दी गई है। भारतीय रेल का भी इन विरोध-प्रदर्शनों के दौरान व्यापक नुकसान हुआ है। प्रारंभिक आकलन 80 करोड़ का है। उसकी वसूली की प्रक्रिया भी शुरू की जा रही है। देश में पहली बार यह पहल हुई है, वह स्वागत योग्य है क्योंकि इससे लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदलने से रोका जा सकेगा। सरकार की इस पहल ने विपक्षी दलों को काफी निराश किया है। विपक्ष ने मुसलमानों के अलावा छात्रों को भी अपना मोहरा बनाने की कोशिश की है। अपने छात्र संगठनों के माध्यम से उन्होंने अनेक विश्वविद्यालयों में उबाल पैदा करने की कोशिश की। युवा वर्ग में व्यवस्था का विरोध करने की जो सहज प्रवृत्ति होती है, उसका लाभ उठाकर छात्रों को उकसाया गया।
यूरोप में जो विचारधाराएं विकसित हुई थीं, उनकी अब काफी पोल खुल चुकी हैं। यूरोपीय देशों और अमेरिका आदि के युवाओं में इस समय जिस तरह की विचारहीनता है, वैसी ही विचारहीनता यूरोपीय शिक्षा के कारण हमारे युवा वर्ग में भी व्याप्त हो गई है। उसके कारण छात्रों का एक वर्ग विपक्ष का आसानी से मोहरा बन गया। पर अब छात्रों और युवाओं के इस वर्ग का उबाल भी ठंडा पड़ गया है। पर विपक्ष इस मुद्दे को अभी भी छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। नेहरू-इंदिरा गांधी परिवार में से राजनीति में नई सक्रिय हुई प्रियंका गांधी इस विरोध का झंडा उठाए घूम रही हैं। केरल की मार्क्सवादी सरकार ने विपक्षी कांग्रेस के सहयोग से विधानसभा में प्रस्ताव पारित करके इस कानून को निरस्त किए जाने की मांग की है। कांग्रेस की राज्य सरकारें और ममता बनर्जी अपने यहां कानून न लागू करने की घोषणा कर चुकी हैं यह जानते हुए भी कि यह केंद्रीय कानून है और उनके दायरे से बाहर है। अपनी इस नकारात्मक राजनीति की अंतत: विपक्ष को काफी कीमत चुकानी पड़ सकती है। यह संतोष की बात है कि देश की विशाल बहुसंख्या इस कानून के पीछे है और उन्हें यह संदेश दे रही है कि लोकतंत्र को भीड़तंत्र मत बनाइए।