महात्मामय महादेव

महात्मा गांधी से पहली भेंट से वापस आते हुए महादेव भाई देसाई अपने मित्र से बोले, ‘‘नरहरि, मुझे तो इस पुरुष के चरणों में बैठे जाने का दिल करता है।’’ यह बात 1915 की है। कोचरब गांव में बैरिस्टर जीवन लाल के बंगले में गांधीजी ने आश्रम की स्थापना कर दी थी। वहीं ये दो मित्र उनसे मिलने गए थे। प्रसंग भी असाधारण था। गांधीजी ने आश्रम की नियमावली बनाई थी। उसे पढ़कर इन दोनों ने कुछ सुझाव दिए थे। उस पर ही गांधीजी से उनकी देर तक बातचीत हुई। उसी बातचीत से लौटते हुए महादेव भाई के मन में जो संकल्प उभर रहा था, उसे अपने मित्र से कहा। यह संकल्प-विकल्प चला करीब दो साल। इन दो सालों को आत्ममंथन का समय भी कह सकते हैं। सितंबर, 1917 की एक घटना अंतत: निर्णायक बनी। महादेव भाई एक बैंक की नौकरी में थे। वेतन अधिक था। गांधीजी से उनका मिलना-जुलना चलता रहा।

एक दिन गांधीजी ने उनसे कहा-‘तुम्हें रोज उपस्थित रहने को कहता हूं उसका एक कारण है। तुम्हें तो मेरे साथ आकर रहना है। पिछले तीन दिनों में मैंने तुम्हारी कीमत तय कर ली है। कोई दो वर्षों से मैं जिस प्रकार के तरुण की खोज में था वह मुझे तुममें मिल गया है। जिसको मैं अपना काम सौंप सकूं और मैं पूरा निवृत्त हो सकूं या जिसके गले लटक सकूं, ऐसा आदमी मुझे तुममें मिल गया है। अब होमरूल लीग, जनमनादास सबको छोड़कर तुम्हें मेरे पास आ जाने की तैयारी करनी है। अपनी जिंदगी में मैंने बहुत कम व्यक्तियों से ऐसा कहा है-सिर्फ तीन व्यक्तियों को-पोलाक, मिस स्लेशिन और मगनलाल को मैंने ऐसा कहा है। आज तुम्हें वे ही शब्द कह रहा हूं। और बड़े आनंद से कह रहा हूं क्योंकि तुम्हारे अंदर तीन सद्गुण मैंने देखे हैं: प्रामाणिकता, वफादारी और बुद्धिमत्ता।’ यह उस पत्र का छोटा सा अंश है जिसे महादेव भाई ने अपने मित्र नरहरि को लिखा था। उसमें ही यह सूचना है कि गांधीजी ने महादेव भाई को सोचने के लिए एक साल का समय दिया था और कहा था-‘तब तक मैं निभा लूंगा।’

महादेव भाई ने निर्णय में मात्र दो माह लगाए। तब वे 25 साल के थे। उनके जीवन का नया अध्याय 1 नवंबर, 1917 के दिन प्रारंभ हुआ। वह जीवनयज्ञ था। जिसमें अपनी आहुति देने के लिए वे गांधी से जुड़े। ‘आत्म आहुति की वह कथा लोमहर्षक है। अपने आप को दिन-रात निर्मल करते हुए परम ज्योति में समर्पित हो जाने की वह कथा है।’ उस कथा का प्रसाद रिजवान कादरी ने ढूंढ़ निकाला है। पिछले दिनों नेहरू संग्रहालय एवं पुस्तकालय की एक बैठक में उन्होंने वह प्रसाद मुझे दिया। उन्होंने अंग्रेजी में एक पुस्तिका छपवाई है, ‘द स्प्रिट ऑफ महात्मा।’ इसकी प्रस्तावना में वे लिखते हैं कि ‘मुझे बहुत महत्वपूर्ण दस्तावेज मिले जो महात्मा गांधी और महादेव देसाई के संबंधों पर नई और प्रामाणिक रोशनी डालते हैं।’ ये दस्तावेज उन्हें बड़ी कठिनाई से मिले। उसकी एक अलग कहानी है। महात्मा गांधी के कुछ दस्तावेज ऐसे हैं जो अब तक अप्रकाशित रहे हैं। उनमें ही ये दस्तावेज एक हैं। जिनका गांधी वांग्मय में कोई समावेश नहीं है।

ये दस्तावेज महादेव भाई के बारे में महात्मा गांधी के संस्मरण हैं। गांधीजी के ये संस्मरण गुजराती में हैं। जिनका अंग्रेजी में अनुवाद नचिकेता देसाई ने किया। वे महादेव भाई के पौत्र हैं। अपने पहले संस्मरण में गांधीजी ने दो बातें लिखी हैं। पहली यह कि इसे मैं नरहरि को दिखाउंगा। दूसरी बात का संबंध उनकी इच्छा और योजना से है। वे चाहते हैं कि उनके संस्मरण में दूसरों के भी संस्मरण शामिल हों और उसकी एक पुस्तक बने। क्या ऐसा हुआ? इसका उत्तर खोजना सरल है। जैसा गांधीजी चाहते थे वैसा तो नहीं हुआ, लेकिन महादेव भाई के योग्य पुत्र नारायण भाई देसाई ने उनकी जन्मशती पर एक विस्तृत जीवनी लिखी, ‘अग्निकुंड में खिला गुलाब।’

गांधीजी ने अपने संस्मरण में लिखा है कि कोचरब आश्रम में महादेव और नरहरि आते थे। उस समय वे पगड़ी पहनते थे। प्रार्थना में शामिल होते थे और मुझ से कुछ प्रश्न पूछते थे। अपने तीसरे संस्मरण में उन्होंने लिखा कि ‘परमात्मा के विधान को कौन जान सकता है!’ ‘महादेव को मेरा संस्मरण लिखना था, लेकिन उसने अपने लिए मेरी बाहों में अनंत निद्रा में जाने का मार्ग चुना। अब मुझे उसका संस्मरण लिखना पड़ रहा है। लोग कहेंगे कि महादेव की मृत्यु असामयिक थी। यथार्थ यह है कि कोई मृत्यु असामयिक नहीं होती। हर जीवन का एक प्रारब्ध होता है। उसे उसको पूरा करना होता है।’ उसी संस्मरण में गांधीजी ने लिखा-‘महादेव मेरे साथ 25 साल रहे। उनके शरीरांत से हमारे आध्यात्मिक संबंध का अंत नहीं होता।’

महादेव देसाई के व्यक्तित्व का इससे बेहतर वर्णन नहीं हो सकता जो गांधीजी ने लिखा-‘उनमें जादुई आकर्षण था।’ उसी संस्मरण में एक बहुत कीमती वाक्य है। जिससे महादेव देसाई के समर्पण का भागवत पुराण कह सकते हैं। गांधीजी के शब्द हैं-‘मैं समझता हूं कि महादेव मुझसे किसी राजनीतिक उद्देश्य के कारण नहीं जुड़े। जब वे मेरे साथ आए तब भारत में मेरी राजनीतिक शक्ति का कोई आभामंडल नहीं था।’ महादेव देसाई के बाद प्यारेलाल ने उनका काम संभाला। उन्होंने लिखा, ‘गांधीजी जगत के लिए जीते हैं महादेव भाई गांधीजी के लिए जीते थे।’ गांधीजी और महादेव देसाई के परस्पर आत्मीयता की करुण कहानी का एक विचित्र प्रसंग भी है। 1938 के मार्च महीने में गांधी सेवा संघ का सम्मेलन था। वह सम्मेलन एक गांव में था, डेलांग। वह स्थान जगन्नाथ पुरी के पास ही था। उस मंदिर के दरवाजे हरिजनों के लिए बंद थे। सम्मेलन में गांधीजी ने कहा कि ‘मेरी इच्छा है कि उस मंदिर की पुरानी प्रतिष्ठा फिर से जीवंत बनाई जाए। उस इच्छा को पूरी करने में आप सबको मुझे मदद करनी है। जगन्नाथ मंदिर के द्वार जब तक हरिजनों के लिए बंद हैं, वे मेरे लिए भी बंद ही हैं।’

इस स्पष्ट संबोधन के बावजूद कस्तूरबा सहित कई महिलाएं जगन्नाथ पुरी मंदिर में गई। उनमें महादेव देसाई की पत्नी दुर्गा भी थीं। गांधीजी को इसकी जानकारी मिली। उनकी नींद उड़ गई। रक्तचाप बढ़ गया। लोग चिंतित हो उठे। उन्होंने महादेव देसाई को बुलाया। कठोर शब्दों में इस घटना के लिए उन्हें उलाहना दी और जिम्मेदार ठहराया। महादेव देसाई पर इसका प्रभाव गहरे पड़ा। वे भी रातभर जागते रहे। सुबह एक पत्र लिखा। उसमें गांधीजी से प्रार्थना की कि मुझे आप अपने से अलग हो जाने की अनुमति दें। गांधीजी ने महादेव देसाई को बुलाया। कहा-‘मैं हजारों गलतियां सहन करूंगा, तुम्हारा त्याग नहीं कर पाउंगा। भक्तों के हाथ मरना अच्छा है, अभक्तों के हाथ बचना भी मरने के समान है।’ उस घटना के बाद महादेव देसाई ने सोचा और बाद में लिखा, ‘आज स्वस्थ होकर सोचता हूं तब लगता है कि बापू की परीक्षा करने वाला मैं कौन? मुझे जो राई लगे, वह उन्हें अगर पहाड़ लगता हो तो क्या? जिस व्यक्ति ने पचास वर्ष तक तंद्रारहित स्थिति में रहकर धर्माचरण किया हो, उसे धर्म की ज्यादा समझ होगी, या राग-द्वेष के भरे हुए मुझे? और उनके साथ रूठना क्या? उनके पास से निकल कर मुझे जाना भी कहां है? उन्हें संत पद देकर, स्वर्ग के देवता बना बैठने में न्याय है क्या? वे तो अपने को संत मानते भी नहीं। अरे, अपने को महात्मा तक नहीं मानते हैं, हमारे जैसे सीधे-सादे मानव ही तो अपने को समझते हैं और इसीलिए उनके साथ रहा जा सकता है। अगर कभी उनका ताप उग्र बन गया तो उससे हम कैसे तंग आ सकते हैं? तंग आकर भागना उचित है, या उस ताप में खाक होने की प्रार्थना उचित है?’

महादेव भाई की जीवनी में उल्लेख है कि ‘डेलांग में जिस दिन उन्होंने गांधीजी का साथ छोड़ने की इच्छा व्यक्त की, और गांधीजी, दुर्गा बहन और बाबला (नारायण देसाई) तीनों ने मना किया, उसी दिन से उनका कामकाज पूर्ववत शुरू हो गया। उनके मुख पर प्रसन्नता का गुलाब हमेशा के भांति खिलता ही रहा था।’ गांधी और महादेव के पारखी नारायण देसाई ने दोनों को इन शब्दों में पिरोया है-‘बापू का समग्र व्यक्तित्व बैशाख मास के मध्याह्न सूर्य-सा प्रखर था। महादेव का व्यक्तित्व शरद पूर्णिमा के चंद्र समान शीतल-सौम्य था।’ ‘महादेव का तो समग्र व्यक्तित्व बापू ने ही बनाया। मगर बापू के ऊपर उनका कुछ प्रभाव भी था?’ ‘गांधीजी के समकालीनों के संदर्भ में इस बात को जरा देखें। रवींद्रनाथ टैगोर, श्री अरविंद, या तिलक महाराज को महादेव भाई मिले होते तो? परंतु उनमें से किसी को न मिलकर, गांधीजी को मिले। गांधी को गांधी बनाने में महादेव का योगदान कोई कम नहीं था।’ ‘गांधीजी के लेखों की शैली में महादेव भाई का संग मिलने के बाद परिवर्तन हुआ था, यह तो साफ बात है। हिन्द स्वराज की शैली और आत्मकथा की शैली में तुलना करने से यह परिवर्तन नजर आएगा।’ बर्लिन के गांधी केंद्र के क्रिश्चियन बार्तोल्फ ने नारायण भाई से एक मुलाकात में कहा कि ‘गांधीजी के लेखों का अध्ययन करने पर हमें स्पष्ट लगा है कि महादेव भाई के संपर्क में आने के बाद गांधीजी की भाषा में कोमलता के साथ सावधानी भी आई है। पश्चिम के लोगों को गांधीजी  के विचार समझने के लिए महादेव का लिखा हुआ साहित्य बहुत सहायक बनता है।’ नारायण भाई ने इसका समापन इस तरह किया है-‘बापू के भाव-जगत पर भी महादेव का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहा था। जब महादेव थे तब बापू कहते थे, ‘महादेव ने आश्रम का गौरव बढ़ाया है और महादेव की मृत्यु के बाद कहते थे, उसकी कमी छह-छह व्यक्ति भी पूरी नहीं कर सकते हैं।

 

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