हिन्दुस्तान का हर एक घर विद्यापीठ है, महाविद्यालय है; मां-बाप आचार्य हैं।

गांधी जी ने गुजरात महाविद्यालय के उद्घाटन के अवसर पर भाषण दिया। यह भाषण गुजराती में था। गांधी जी के इस भाषण को गुजराती नवजीवन में 18 नवंबर 1920 को छपा। अपने उद्बोधन में गांधी ने कहा कि हिन्दुस्तान का हर एक घर विद्यापीठ है, महाविद्यालय है; मां-बाप आचार्य हैं। गांधी जी का यह मार्मकि भाषण इस प्रकार है। 

भाइयों और बहनों

अपनी जिंदगी में मैंने बहुतेरे काम किए हैं। उनमें से बहुत से कामों के लिए मैं अपने मन में गर्व भी करता हूं, कुछ के लिए पछतावा भी होता है। इनमें से कई तो बड़ी जिम्मेदारी के भी थे। पर फिलहाल जरा भी अतिशयोक्ति किए बिना मैं कहना चाहता हूं कि मैंने ऐसा एक भी काम नहीं किया, जिसके साथ आज के काम की तुलना हो सके। इस काम में मुझे बड़ी जोखिम लगती है, वह इसलिए नहीं कि उससे जनता का नुकसान होगा। पर मुझे जिस बात का दुःख हुआ करता है या मैं अपने मन में जिसका मुकाबला कर रहा हूं, वह यही है कि मैं जो काम करने बैठा हूं, उसके लायक मैं लायकियत नहीं रखता। यह मैं शिष्टाचार की दृष्टि से नहीं कह रहा हूं, बल्कि जो कुछ मेरी आत्मा कह रही है, उसी का चित्र आपके सामने रख रहा हूं।

मुझे अगर पता होता कि अभी जो काम करना है, वह शिक्षा के सच्चे अर्थ के आधार पर करना है, तो मुझे यह प्रस्तावना न करनी पड़ती। इस महाविद्यालय की स्थापना करने का उद्देश्य सिर्फ विद्या देना नहीं, बल्कि आजीविका के साधन जुटा देना भी है; और इसलिए जब मैं इस विद्यालय की तुलना गुजरात कॉलेज आदि से करता हूं, तो मुझे चक्कर आ जाता है।

इसमें भी अतिशयोक्ति नहीं कि कहां गुजरात कॉलेज और ऐसे ही दूसरे कॉलेज और कहां हमारा यह छोटा-सा महाविद्यालय! मेरे ख्याल से तो यह बड़ा ही है। पर मुझे डर है कि आपकी नजर में हिन्दुस्तान के कॉलेजों के मुकाबले में यह महाविद्यालय अणु-विद्यालय लगता होगा।

इस विद्यालय का विचार करते वक्त आपके मन में ईंट-चूना तुलना होती होगी। ईंट-चूना तो मैं गुजरात कॉलेज में ज्यादा देखता हूं। रेल में आ रहा था तब मैं यही विचार करता आ रहा था कि आपके सामने आज मैं क्या विचार रखूं, जिससे यह ईंट-चूने की तुलना आपके मन से निकाल सकूं। यह बात मुझे चुभ रही है कि यह विचार मुझे अभी तक नहीं सूझा।

ऐसा कठिन अवसर मैंने अपने लिए पहले कभी पैदा नहीं किया। इस वक्त अनायास यह मेरे माथे आ पड़ा है। मेरे दिल के अंदर जो चीज सिद्ध है, उसे मैं आपके सामने उसी तरह सिद्ध नहीं कर सकता। यह मैं किस तरह बताऊं कि जिसे आप खामी समझते हैं, वह कोई ख्यामी नहीं है। इन खामियों को सरल भाव से बताकर भाई किशोरीलाल (महामात्र) ने मेरा काम आसान कर दिया है।

आप यह माने कि इन खामियों के बावजूद यह काम बढ़ा है। मेरे दिल में इसके लिए जो श्रद्धा है, वैसी ही श्रद्धा परमात्मा आपके दिल में पैदा करे। मैं यह श्रद्धा आपमें पैदा नहीं कर सकता, मेरी इतनी तपस्या नहीं। मुझे अपनी असमर्थता स्वीकार करनी चाहिए। मैंन शिक्षा के क्षेत्र में ऐसा काम नहीं किया, जो मैं आपको बता सकूं कि यह काम बड़े-से-बड़ा है। हिन्दुस्तान की आज की परिस्थिति में हम जो काम कर रहे हैं, वही शोभा देता है। मकानों की क्या तुलना?

आज तो एक इंच जमीन भी हमारी नहीं है। सब कुछ सरकार का है। यह जमीन, ये पेड़ सब कुछ सरकारी हैं। शरीर भी सरकार का है और आज मुझे इसमें भी शंका हो रही है कि हमारी आत्मा भी हमारी अपनी है या नहीं। ऐसी दयाजनक हालत में हम महाविद्यालय के लिए अच्छे से-अच्छे मकान कैसे टूढ़े? विद्वानों को ढूंढ़ते रहें तो कैसे काम चले? कोई अज्ञानी से अज्ञानी और अनाड़ी आदमी भी आकर कहे और समझा सके कि हमारी आत्माएं शुष्क हो गई हैं और यह देश निस्तेज और ज्ञानहीन हो गया है तो उस मनुष्य को मैं आचार्य की पदवी दूंगा।

मुझे यकीन नहीं कि आप किसी गड़रिए को आचार्य का ओहदा देने को तैयार होंगे इसलिए हमें भाई पद के सिवा और तरह से शायद न पहचानते होंगे। पर इस विद्यालय की जांच के लिए दूसरा नाप रखना। मैं चाहता हूं कि इसकी परख के लिए आप दूसरी कसौट ढूंढ़े। मामूली कसौट पर कसोगे तो यह पीतल-सा दिखाई देगा; पर चरित्र की कसौटी पर कसोगे तो यह आप को पीतल नहीं, खरा सोना दिखाई देगा।

यहां इस विद्या के काम के लिए जो संगम हुआ है, वह तीर्थ की तरह है। यहां चरित्रवान लोग इकट्ठे हुए हैं। अच्छे से अच्छे सिंधी, महाराष्ट्रीय और गुजराती एकत्रित हो सके हैं। ऐसा संगम हमें कहां से मिल सकता है?

यहां तो भाई-बहन आए हैं, पहले उनसे मैं प्रार्थना करूंगा। इस महाविद्यालय की स्थापना के आप गवाह हैं। आप में से किसी को भी यह स्थापना करना तमाशा-सा लगता हो तो ऐसे लोगों के अंतःकरण को उद्देश्य करके मैं उनसे कहना चाहता हूं कि आप इस स्थापना में मत बैठिए। आप यहां अपना आश्शीर्वाद देने के लिए ही बैठें। आपका आशिर्वाद मिलने से महाविद्यालय महान बन जाएगा। मगर वह मुंह से ही नहीं, दिल से दिया जाना चाहिए। दिल से आशिर्वाद तो आप अपने लड़के-लड़कियों को महाविद्यालय भेजकर ही दे सकते हैं।

हिन्दुस्तान में रूपया देने की शक्ति तो बहुत है। रूपए की कमी से कोई तरक्की नहीं रूकती। काम तो रूकता है आदमियों की कमी से, अध्यापकों या मुखिया के अभाव में और मुखिया हो तो उसके शिष्यों यानी सिपाहियों के अभाव में। मैं मानता हूं कि जहां नेता लायक होते हैं, वहां सिपाही मिल ही जाते हैं। बढ़ई के औजार कितने ही भोंथरे क्यों न हों तो भी वह कभी उनके साथ झगड़ा नहीं करता। वह भोंथरे से भोंथरे औजार से भी अपना काम निकाल लेगा। इसी तरह मुखिया भी सच्चा कारीगर होगा तो जैसी चीज मिलेगी उसी से देश की मिट्टी में से सोना पैदा कर लेगा। आचार्य से मेरी यही प्रार्थना है।

यहां आचार्य और अध्यापकों की, काम करने में, एक ही भावना है-विद्या का नहीं, बल्कि चरित्र का चमत्कार दिखाकर तुम आजादी दिलाने वाले हो। सरकार की तेज तलवार का मुकाबला तलवार से करके नहीं, बल्कि सरकार की अशांतिकर राक्षसी प्रवृत्ति का, अपनी शांतिमयी दैवी प्रवृत्ति से; भले ही वह अपूर्ण हो तो भी मुकाबला करके।

इस वक्त हमें आजादी का बीज बोकर और उसे सींचकर उससे स्वराज्य का सुंदर वृक्ष पैदा करना है। वह चरित्र से, शुद्ध दैवी बल से ही बड़ा होगा। जब तक आचार्य और अध्यापक यही एक दृष्टि रखकर काम करते रहेंगे, तब तक हमारी जरा भी बदनामी न होगी। आचार्य और अध्यापकों के बारे में मेरी जो श्रद्धा है, ईश्वर उसे सच्ची साबित करे। यह अटल श्रद्धा मुझ में न होती तो मैं अपढ़ आदमी कुलपति के इस पवित्र स्थान को मंजूर ही न करता।

मैं इसी काम में जीने और मरने के लिए तैयार हूं। जैसे इस काम में मरने को ही मैं जीना समझता हूं, वैसा ही आप भी समझते हैं, यह जानकर ही मैं आपके साथ रहता हूं और इसलिए इस बड़े पद को मैंने मंजूर किया है।

अगर आचार्य और अध्यापक अपना धर्म-पालन करें तो विद्यार्थियों से फिर मुझे क्या कहना है? विद्यार्थियों पर आक्षेप लगाने का नीच काम मैं नहीं करूंगा। विद्यार्थी तो परिस्थिति का आईना हैं। उनमें दंभ नहीं, द्वेष नहीं, ढोंग नहीं। वे जैसे हैं वैसा ही अपने को दिखाते हैं। अगर उनमें पुरूषार्थ नहीं, सत्य नहीं, ब्रह्मचर्य नहीं, अस्तेय नहीं, अपरिग्रह और अहिंसा नहीं तो यह उनका दोष नहीं; दोष मां-बाप का है, अध्यापकों का है, आचार्य का है, राजा का है। पर इसमें राजा को भी क्या दोष दिया जाए? कल ही मैंने बंबई में विद्यार्थियों से कहा था कि जैसे ‘यथा राजा तथा प्रजा’ सच है वैसे ही ‘यथा प्रजा तथा राजा’ भी सच है। बल्कि यही सच कहा जाएगा। पहला दोष जनता का है। जनता के दोष विद्यार्थियों में आए हैं और इसलिए वे विद्यार्थियों में साफ तौर पर दिखाई देते हैं। हमें मां-बाप, आचार्य और अध्यापकों को उन खराबियों को दूर करने के लिए, जो कुछ करना जरूरी हो, वह करना चाहिए।

हिन्दुस्तान का हर एक घर विद्यापीठ है, महाविद्यालय है; मां-बाप आचार्य हैं। मां-बाप ने आचार्य का यह काम छोड़कर अपना धर्म छोड़ दिया है। बाहर की सभ्यता को हम पहचान न सके, उसके गुणों और दोषों का अंदाज नहीं लगा सके। बाहर की सभ्यता को हमने किराए पर ले लिया, मगर हम किराया कुछ नहीं देते; इसलिए हमने उसे चुरा लिया है। ऐसी चोरी की सभ्यता से हिन्दुस्तान कैसे ऊंचा उठ सकता है?

हम इस विद्यालय की स्थापना विद्या की दृष्टि से नहीं बल्कि राष्ट्रीय दृष्टि से विद्यार्थियों को बलवान और चरित्रवान बनाने की खातिर करते हैं। मैं चारों तरफ कह रहा हूं कि मुझे जितनी कामयाबी विद्यार्थियों में मिलेगी, उसी हद तक, हम हिन्दुस्तान के स्वराज के लायक हो सकेंगे। स्वराज और की तरह कायम नहीं हो सकता। ऐसे विद्यालयों को सफल बनाने के लिए हम अपना चाहे जितना रूपया खर्च करें और चाहे जितना चरित्र बल लगाएं, थोड़ा है।

यह बोलने का वक्त नहीं, करने का वक्त है। मेरे दिल में जो बात आई, वह मैंने आपसे कह डाली। आपसे जो मांगना था, मांग लिया। अब पढ़ने वाले विद्यार्थियों से भी मांगता हूं। इसमें शक नहीं कि उनके पास साहस है। जो भर्ती हो चुके हैं, उन्हें मैं विद्यार्थी नहीं समझूंगा। यानी मैं उन्हें जिम्मेदारी से मुक्त नहीं समझूंगा। जिन विद्यार्थियों ने यहां नाम लिखाया है, वे आधे शिक्षक माने जाएंगे। उन्होंने ही महाविद्यालय की नींव डाली है। उन्हीं पर महाविद्यालय की इमारत खड़ी है। वे भर्ती न हुए होते तो महाविद्यालय खड़ा ही नहीं हो सकता था। इसलिए उनकी भी पूरी जिम्मेदारी है। तुम उसमें पूरी तरह साझेदार हो और तुम अपना हिस्सा पूरी तरह न दो तो शिक्षक कितनी ही कोशिश करें, तो भी सफल नहीं होंगे; पूरी तरह सफल हो ही नहीं सकते।

जिन विद्यार्थियों ने अपने स्कूल छोड़े हैं,  उन्हें जान लेना चाहिए कि वे क्या समझकर यहां आए हैं, उन्हें यहां क्या मिलेगा। परमात्मा उनमें ऐसी शक्ति भर दे कि यह भयानक लड़ाई कितनी ही लंबी क्यों न चले,  तो भी इस बीच वे अपना काम करते रहें। ऐसा हुआ तो मुझे भरोसा है कि मुठ्ठी भर विद्यार्थी होंगे, तो भी यह महाविद्यालय शोभा पाएगा और सारे हिन्दुस्तान में आदर्श  विद्यालय होगा।

इसका कारण न गुजरात का धन है, न गुजरात की विद्या, पर इसका कारण यह है कि असहयोग की पैदाइश गुजरात में हुई है। असहयोग की जड़ गुजरात में रोपी गई है, उसी की सिंचाई गुजरात में हुई है, और उसके लिए तपस्या भी गुजरात में हुई है। इससे यह न मान लेना कि यह आदमी झूठा घमंड करता है। यह न मानना कि यह सारी तपस्या मैंने ही की है, या यह जड़ मैंने ही जमाई है। मैंने तो सिर्फ मंत्र दिया है। एक बनिए का बेटा अगर ऐसा कर सकता हो तो मैंने यह ऋषि का काम किया है।

इससे ज्यादा मैंने कुछ नहीं किया। उसकी जड़ तो मेरे साथियों ने जमाई है। उसकी श्रद्धा तो मुझसे भी ज्यादा थी, तभी तो काम हुआ। मेरा दावा है कि मुझे अनुभव-ज्ञान है। देवता भी आकर समझाए तो भी मेरी श्रद्धा हिल नहीं सकती। जैसे इन आंखों से मुझे सामने के पेड़ साफ दिखाई देते हैं, वैसे ही मुझे साफ दिख रहा है कि हिन्दुस्तान की उन्नति शांतिपूर्ण असयोग से ही होगी। पर मेरे साथियों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। उन्होंने तर्क से, दलील से और श्रद्धा से माना है कि इस शांत सहयोग से ही तरक्की हो सकेगी।हिन्दुस्तान में या दुनिया में, कहीं भी कोई अपने ही अनुभव से काम नहीं करता। कुछ को अनुभव होता है, जबकि और लोग वही काम श्रद्धा से करते हैं।

मेरे साथियों ने बुनियाद डाली हैं, उसमें ज्यादा गुजराती हैं, महाराष्ट्री भी हैं। पर ये महाराष्ट्री गुजरात में आकर आधे, पौने या सवाये गुजराती ही बन गए हैं। उनके हाथों यह शस्त्र उज्वल बना है। इसका पूरा चमत्कार अभी हमने नहीं देखा। जिस काम के लिए लड़कियों ने अपनी चूड़ियां उतारकर मुझे दी हैं, उसका और अधिक चमत्कार तो आप छह महीने के अंदर देख सकेंगे। पर इस सबकी जड़ उसकी प्रत्यक्ष मूर्ति यह महाविद्यालय है। हिन्दू मूर्तिपूजक हैं और इसके लिए हमें अभिमान है।

इस मूर्ति के अलग-अलग अंग हैं। उनमें से कुलपति मैं खुद हूं; दूसरे कामों में लगा हुआ हूं। मेरे जैसा पका पत्ता झड़ जाए, तो पेड़ की कोई हानि न होगी। आचार्य और अध्यापक भी पत्ते हैं, अलबत्ता अभी कोमल पत्ते हैं। थोड़े समय में वे भी पककर शायद गिर जाएंगे। पर विद्यार्थी इस सुंदर पेड़ की डालियां हैं और उन्हीं डालियों में से आचार्य और अध्यापकरूपी पत्तियां फूटेंगी।

विद्यार्थियों से मेरी प्रार्थना है कि तुम्हारी जितनी श्रद्धा मुझ पर हैं, उतनी ही तुम अपने अध्यापकों पर रखना। पर तुम्हें अपने आचार्य या अध्यापक कमजोर जान पड़े तो उस वक्त तुम प्रह्लाद जैसी आग से, इन आचार्यों और अध्यापकों को, भस्म कर डालना और अपने काम को आगे बढ़ाना। यही ईश्वर से प्रार्थना है और विद्यार्थियों को मेरा  यही आर्शीवाद है। 

आखिर में मैं परमेश्वर से प्रार्थना करता हूं और उस प्रार्थना में आप सबकी सम्मति चाहता हूं। मेरी प्रार्थना में आप सब साफ दिल से शरीक होंः

हे ईश्वर, इस महाविद्यालय को ऐसा बनाइए कि इसके भीतर, हम जिस आजादी का रात-दिन जप कर रहे हैं, वह आजादी मिले और उस आजादी से अकेला हिन्दुस्तान ही नहीं बल्कि सारी दुनिया, जिसमें हिन्दुस्तान एक बूंद के बराबर है, सुखी हो।

 

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