इस देश में लोगों को कैसे शिक्षित किया जाए, जो मानते हैं कि अभी तक लागू मैकाले सिस्टम ने उन्हें अच्छा भविष्य दिया है। ऐसे लोग क्या वास्तव में भारतीय ज्ञान विज्ञान के अन्य पहलुओं के बारे में जानते हैं? निश्चित रूप से काफी कम। भारत में पैदा होने और भारतीय स्कूलों में पढ़ाई करने के बावजूद उन्हें हर चीज की पश्चिमी समझ हासिल है। मैंने देखा कि मैं भी इसी बीमारी से पीड़ित था। इससे उबरने में मुझे कई साल लगे।
12 साल पहले मैंने मल्टीवर्सिटी परियोजना की स्थापना की। जिससे विद्वानों को एक साथ लाया जा सके। हमारे मष्तिस्कों के क्षतिग्रस्त होने पर चर्चा की जा सके। वास्तव में स्कूलों और विश्वविद्यालय में अजीब स्थिति की वजहों में से एक नई शिक्षा नीति पर टी एस आर सुब्रमण्यम समिति की नियुक्ति थी।
सुब्रमण्यम समिति एक मोटी ड्राफ्ट रिपोर्ट तैयार की। मैंने समिति के सामने एक प्रस्तुतीकरण दिया। स्कूलों में हो रही पढ़ाई और देश की जरूरतों को लेकर सिस्टम में अंतर को आधे घंटे तक बताने, और लीक से हटने के सख्त विकल्पों के प्रस्तावों के बावजूद मुझसे इसे दुबारा पेश करने के लिए कहा गया। इस पर मैंने सिर्फ एक वाक्य कहा कि इसे रिपोर्ट में कहीं-कहीं शामिल किया जा सकता है। आखिरकार मैंने उनके प्रस्ताव को खारिज कर दिया। अब मैंने रिपोर्ट पढ़ी है। उस संदर्भ की बातें मैं यहां साझा कर रहा हूं।
रिपोर्ट क्या कहती है? अन्य रिपोर्टों की तरह यह काफी कुछ कहती है। इसमें अधिकांश पिछली रिपोर्टों का संदर्भ लिया गया है। अवलोकन को दोहराते हुए यह समाप्त होती है। लेकिन इसमें सरलता से इन सामान्य सवालों के जवाब नहीं दिए गए। हम क्यों पढ़ाते हैं और हम क्या पढ़ते हैं। उसकी लगभग सभी चिंताएं बुनियादी ढांचे पर केंद्रित हैं। इसमें सामग्री और तरीके पर कुछ नहीं कहा गया। क्या डिलिवर किए जाने की जरूरत है। क्या डिलिवर किया जा रहा है। इस पर ध्यान दिए बिना व्यापक तौर पर डिलिवरी प्रणाली पर जोर दिया गया।
इसमें शुरुआत में दिए गए एक पैराग्राफ का उल्लेख करना जरूरी है।प्राचीन भारत में विकसित हुई शिक्षा प्रणाली को वैदिक प्रणाली के नाम से जाना जाता है। शिक्षा के महत्व को भारत में खासी मान्यता दी गई थी, ‘स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान सर्वत्र पूज्यते।’ “एक राजा का सिर्फ अपने ही देश में सम्मान होता है, लेकिन एक विद्वान की दुनिया भर में पूजा जाता है।” प्राचीन भारत में शिक्षा का उद्देश्य दुनिया में जीवन या जीवन के आगे के लिए तैयार होने के लिए ज्ञान हासिल करना ही नहीं था, बल्कि स्वयं की पूर्ण अनुभूति हासिल करना था।
गुरुकुल व्यवस्था से गुरू और शिष्य के बीच बंधन मजबूत हुआ और एक शिक्षक केंद्रित व्यवस्था स्थापित हुई। इसमें शिष्य कठोर अनुशासन के अधीन होता था और अपने शिक्षक के प्रति उसकी तमाम बाध्यताएं होती थीं। दुनिया का पहला विश्वविद्यालय 700 बीसी में तक्षशिला में स्थापित किया गया था। नालंदा विश्वविद्यालय चौथी शताब्दी बीसी में स्थापित हुआ।
प्राचीन भारत की शिक्षा के क्षेत्र में अहम उपलब्धि और योगदान था। चूंकि प्राचीन और मध्ययुगीन भारत में विज्ञान और तकनीक ने मानव ज्ञान और गतिविधियों की बड़ी शाखाओं को कवर कर लिया था। चरक और सुश्रुत, आर्यभट्ट, भास्काराचार्य, चाणक्य, पतंजलि और वात्सायन और कई अन्य जैसे भारतीय विद्वानों ने गणित, खगोल विज्ञान, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान और शल्य चिकित्सा, ललित कला, यांत्रिक और उत्पादन तकनीक, सिविल इंजीनियरिंग और वास्तुकला, जहाज निर्माण और नौवहन, खेलों जैसे विविध क्षेत्रों में वैश्विक ज्ञान में मौलिक योगदान किया।
भारतीय शिक्षा प्रणाली से प्राचीन संस्कृति को संरक्षित करने और सांस्कृतिक एकता को बढ़ावा देने में मदद मिली। इससे जिम्मेदारी और सामाजिक मूल्यों की भावना पैदा हुई। प्राचीन भारतीय शिक्षा दुनिया विशेषकर एशिया और यूरोप की सभी शिक्षा प्रणालियों के प्रेरणा का स्रोत बनी।
हालांकि सिर्फ रिपोर्ट पढ़ने से ही स्पष्ट हो गया कि अपने गुणों के बावजूद इस प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली खुद टी एस आर समिति के लिए प्रेरणा का स्रोत साबित नहीं हुई। इसकी वजह स्पष्ट हैः भारत के कई आधुनिक शैक्षणिक संस्थानों की तरह समिति खुद इस बात से सहमत है कि जो प्राचीन भारत के लिए जो अच्छा था, वह आधुनिक भारत के अनुकूल नहीं हो सकता।
इसलिए इस सरल पैराग्राफ को लिखने के बाद बाकी पूरी रिपोर्ट में इसका कोई उल्लेख ही नहीं किया गया। इसकी वजह यह थी कि श्री सुब्रमण्यम (जाहिर तौर पर लॉर्ड मैकाले के सफल आध्यात्मिक वारिस) को ऐसी ही चिंताएं जाहिर करने वाले इन सबसे जुड़े समिति के दो अन्य सदस्यों सेवाराम शर्मा और डॉ. जे एस राजपूत को कुछ रियायतें देनी थीं। ऐसा करने के बाद चिंताओं को निकाल दिया गया, जैसा थॉमस मैकाले ने किया था।
समिति ने ऐसी नीतिगत सिफारिशें कीं जिनका व्यावहारिक तौर पर कोई इस्तेमाल नहीं किया गया। ऐसा उस हकीकत के बावजूद किया गया कि चाणक्य और सुश्रुत, आर्यभट्ट, भास्कराचार्य, चाणक्य, पतंजलि और पाणिनि जैसे अन्य विद्वानों के कार्य आज भी उपयोगी हैं। शायद जिसे हम पहले ही भूल चुके हैं, उसके लिए दुनिया ने दूसरा विश्व योग दिवन मनाया। दुनिया में ज्यादातर लोग फुटबाल मैच देखने की तुलना में योग सत्र के लिए समय निकालते हैं।
यह मानना अहम है कि शिक्षा में मैकाले पद्धति लागू होने के बाद भारत में लागू परंपराओं और नई बौद्धिक चिंताओं (पश्चिमी विज्ञान सहित) के बीच खासा अंतर हो गया है। जैसे बुनकरों के कामकाज को ठप करने के लिए उनके अंगूठे काट दिए गए थे, उसी तरह शिक्षा प्रणाली ने 19वीं सदी की शुरुआत में औधुनिक बौद्धिक दखल के माध्यम से देश की ज्ञान व्यवस्था और कौशल को बर्बाद कर दिया। इस बात पर जोर देना अहम है कि धर्मपाल के लेखन में कुछ प्राचीन भारतीय कौशल का उल्लेख नहीं है, बल्कि 18वीं सदी में हासिल विशेषज्ञता शामिल है।
इसकी बड़ी बुराई यह है कि अंग्रेजी बुद्धिजीवियों (मैकाले से लुटियंस) की पूरी पांत भारत पर हावी है। चाहे काम करने का तरीका हो। सोच का तरीका हो, इसके प्रभाव समाज को अपंग करने वाले रहे हैं। इससे हम अभी तक नहीं उबर सके हैं। हमारे हालिया बौद्धिक जीवन पर यूरोप केंद्रित धारणाएं हावी हैं या मिश्रित हैं, और हमारे अधिकांश इतिहासकार कला क्षेत्र से आते हैं, जिन्हें इंजीनियरिंग या विज्ञान या तकनीक कौशल आदि की जानकारी नहीं होती है।
इसलिए आम धारणा है कि उनके लेखन में विसंगतियां होती है, इसलिए स्कूली कक्षाओं के माध्यम से सकारात्मक तथ्य ही बताए जाते हैं, इनमें बताया जाता है कि इस देश में जो भी अच्छा है, वह विशेष रूप से पश्चिम से आया है। यदि प्रत्यक्ष प्रमाण होने के बावजूद लोग इस पर विश्वास कर सकते हैं तो वह किसी भी बात पर भरोसा कर सकते हैं।
कथित तौर पर यह बहाना बन गया है कि मैं विज्ञान और तकनीक के पश्चिमी संस्करण पर जो भी कहता हूं, वह पूरे फ्रेमवर्क, काम करने के पश्चिमी तरीके, उन्हें सीखने, उनके रखरखाव के व्यापक रूप से ईसाई (लगभग बाइबिल संबंधी) होने के कारण है। साथ ही ऐसा उनकी सांस्कृतिक सोच और प्राकृतिक परिदृश्य की दीर्घकालिक समझ में कमी के कारण है। इसलिए शिक्षित आधुनिक लोग और भारत की आत्मा के बीच गहरा अंतर स्वाभाविक है।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली के भाषाई पाठयक्रम मे नैतिक मूल्य मानवीय मूल्य ,व्यक्तित्व विकास ,चरित्र निर्माण के आवश्यक तत्वो पर आधारित कविता कहानी नाटक प्रहसन के रुप मे शामिल हो ।
शिक्षा के कार्य मे लगे शिक्षक प्राध्यापक के लिए व्यक्तित्व विकास एवँ चरित्र निर्माण के आवश्यक तत्वो पर आधारित पाठयक्रम से उन्मुखीकरण किया जाना आवश्यक है ।
साथ ही शिक्षक के लिए व्यवसायिक योग्यता मे भी इस कोर्स के रुप मे शामिल करना आवश्यक है ।
देश के स्कूलो कालेजो मे विभिन्न खेलो का समूह बनाकर रोस्टर के आधार पर खेल की प्रति तियोगिता सँकूल स्तर पर अनिवार्य रुप से आयोजित हो ।
प्रत्येक स्कूल कालेजो मे नैतिक मूल्य मांनवीय मूल्य पर आधारिक निबंध ,कहानी कविता की प्रतियोगिता का आयोजन के साथ स्कूल/कालेज /जनपद/जिला स्तर पर पत्रिका निकाला जाय ।
प्रत्येक गाँव-मुहल्ला वार्ड मे पुस्तकालय की स्थापना किया जाय ।