वो गांधी कोई और था, ये गांधी कोई और है

कांग्रेस नेता राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा पर निकले हैं। यात्रा 7 सितंबर को कन्याकुमारी से शुरू हुई। कुल 12 राज्यों से होते हुए जम्मू-कश्मीर में समाप्त होगी। कुल 150 दिनों की यात्रा है। करीब 3,500 किलोमीटर की दूरी तय करेगी यह यात्रा। इस यात्रा के जरिए आखिर कांग्रेस क्या संदेश देना चाहती है। कांग्रेस पार्टी के हिसाब से बेरोज़गारी, महंगाई, नफ़रत, विभाजन की राजनीति के खिलाफ यह यात्रा है। साथ में यह भी कहा गया कि भारत जोड़ो यात्रा राजनीतिक व्यवस्था के केंद्रीकरण के ख़िलाफ जन-जागरण का काम कर रही है। अब ये और बात है कि कांग्रेस पार्टी में कितना विकेन्द्रीकरण है।

एक और बात जो ध्यान में आ रही हैं, वह यह है कि आखिर किस रणनीति के तहत यह यात्रा निकाली गई। क्योंकि भारतीय राजनीति में यात्राओं का एक इतिहास है। यात्राओं से अभियान को गति मिलती रही है, यह भी सही है। लेकिन वह दौर दूसरा था, यह दौर दूसरा है। सवाल यह कि क्या कांग्रेस नेताओं ने अपने अतीत की यात्राओं से कुछ सीखा। उस दौर इस दौर के अंतर का भी क्या कोई अध्ययन किया।

कुछ नहीं तो गांधीजी की यात्राओं से कुछ सीखा होता। लेकिन कांग्रेस नेहरू से आगे पीछे कुछ सोच नहीं पाती। गांधीजी साल 1915 में भारत आए। साल 1915 आते-आते भारत के सार्वजनिक जीवन में सन्नाटा छा गया था। जो चरम राष्ट्रवाद के प्रवर्तक थे वह सब भारत से बाहर जा चुके थे। ज्यादातर क्रांतिकारी अंडमान जेल में बंद कर दिए गए थे। उससे पहले क्रांतिकारी आंदोलन को तीन बड़े नेताओं का आर्शीवाद प्राप्त था। उनमें से एक महर्षि अरविंद थे। जिन्हें हम क्रांतिकारी आंदोलन का जन्मदाता भी कह सकते हैं। लेकिन 1915 तक पहुंचकर उनके सामने यह प्रश्न खड़ा हो गया कि क्रांतिकारी प्रखर देशभक्त हैं, फिर भी क्या इस मार्ग से संगठित ब्रिटिश सरकार को उखाड़ना संभव है? इससे वे क्रांतिकारी मार्ग से उदासीन हो गए।

दूसरे बड़े नेता थे लाला लाजपत राय। वो भी क्रांतिकारी आंदोलन को प्रोत्साहित करते थे। वे विदेश गए। अमेरिका में लाला हरदयाल के आंदोलन को देखा। उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि क्रांतिकारी मार्ग से स्वतंत्रता नहीं मिल सकती। इस रास्ते की कुछ दुर्बलताओं की भी पहचान की। एक दुर्बलता यह थी कि उनका अखिल भारतीय संगठन खड़ा नहीं हो सकता। राष्ट्रव्यापी योजना नहीं बना सकते। तीसरे नेता थे तिलक। यानि लोकमान्य गंगाधार तिलक। उनके कारण ही सावरकर इंग्लैंड जा सके। उनका अभिनव भारत नामक क्रांतिकारी समूह तिलक से प्रेरणा लेता था। वे पहले व्यक्ति थे, जो साल 1897 में जेल गए। उस समय तिलक के प्रभाव का इससे अंदाज लगा सकते हैं कि उनकी रिहाई के लिए पूरे देश में कोष इकठ्ठा किए गया। दुनिया भर के इंडोलोजिस्टों ने उनकी रिहाई के लिए एक ज्ञापन ब्रिटिश सरकार को भेजा। उस पर मैक्समूलर सहित तमाम विद्वानों के हस्ताक्षर थे। उनका कहना था कि तिलक की गिरफ्तारी से विद्वता का अपमान हुआ है।

यह सब उस समय की परिस्थिति थी। उस दौर में गांधी जी भारत आते हैं। उनके भारत आगमन को इस पृष्टिभूमि में समझा जा सकता है। उनके आने से पहले भारत में उनकी ख्याति फैल चुकी थी। साल 1909 के लाहौर अधिवेशन में गोपाल कृष्ण गोखले ने उनकी महानता का बहुत वर्णन किया। प्राणजीवन मेहता ने ऋषि मुनियों की परंपरा का जीवित उदाहरण बताया। गांधी जी जब दक्षिण अफ्रीका से भारत चलने वाले थे, वहां के गुजराती समाज ने विदाई के कई कार्यक्रम रखे। एक कार्यक्रम में गांधी जी ने कहा मै भोग भूमि से मोक्ष भूमि की ओर जा रहा हूं।

गांधी जी जब भारत आए तो कम से कम दस दैनिक समाचार पत्रों ने संपादकीय लिखकर उनके आगमन को एक अवतार के रूप में प्रस्तुत किया। सुभाष चंद्र बोस भारत से बाहर जाने के बाद कहा कि गांधी जी के ऐतिहासिक योगदान को हम भुला नहीं सकते। जिस समय गांधी जी भारत आए तो देश मुर्छित पड़ा था। उन्होंने आकर हमें नया रास्ता दिखाया। नई चेतना प्रदान की। स्वतंत्रता संघर्ष के लिए नया आत्मविश्वास पैदा किया।

अब देखना है कि गांधी जी ने भारत आकर शुरू में क्या किया। किन किन से नाता जोड़ा। वे पहले शांति निकेतन गए। फोनिक्स आश्रम के बच्चे उनके साथ आए थे। उन्हें वहां रखा। वे हरिद्वार के कुंभ में गए। फिर गुरूकुल कांगड़ी गए। वहां उन्होंने भारतीय संस्कृति के बारे में अपने विचार व्यक्त किए। इससे यह आसानी से समझा जा सकता है कि भारत आकर गांधी जी ने उस वर्ग से नाता जोड़ा, जो भारतीय संस्कृति के प्रति श्रद्धावान था। गांधी जी का सबसे बड़ा महत्व इस बात में है कि उन्होंने भारत की रचना के बारे में एक समग्र चित्र प्रस्तुत करने का प्रयास किए। खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूषा, दिनचर्या, ग्रामीण जीवन आदि के बारे में एक समग्र चित्र प्रस्तुत किया।

यही भी देखना होगा कि जब गांधी जी 1915 में भारत आए तो 1948 में अपनी मृत्यु तक वह भारत में ही रहे। इन 33 सालों में केवल 1931 में दूसरे गोलमेज सम्मेलन के लिए कुछ समय के लिए भारत से बाहर गए। यही नहीं साल 1919 में कांग्रेस के अमृतसर अधिवेशन तक कांग्रेस राजनीति में हस्तक्षेप नहीं किया। पूरे भारत की यात्रा की। इस यात्रा के जरिए भारतीय समाज को समझते रहे। गांधी जी सूट-बूट में विदेश गए थे, पर वे लौटे काठियावाड़ी कोट, धोती और पगड़ी में, सूट-बूट बाहर ही छोड आए।

अब सवाल उठता है कि जिनके सरनेम को लगाए राहुल जी भारत जोड़ो यात्रा पर निकले हैं, उनसे कुछ सीखा। अगर सीखा होता तो तो लुटियन के टीले पर पत्रकारों के बीच फटे कुर्ते पहनने वाले कांग्रेस नेता राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में भी वही भेष भूषा होती। पैंट टीशर्ट में यात्रा नहीं करते। क्या राहुल गांधी का भारत के बारे में कोई चित्र है, या फिर कोई वैकल्पिक रास्ता है। क्या कोई तैयारी है कि यात्रा के अंत में वो देश को अपने राजनैतिक दर्शन से अवगत कराएंगे। अभी तो लगता नहीं है। 

दूसरा राहुल गांधी अपनी यात्रा में भारत के उन श्रृद्धा केन्द्रों रखते जो भारतीय संस्कृति के भी केन्द्र हैं। जैसे गांधी जी कुंभ में गए। गुरूकुल कांगड़ी गए। राहुल गांधी को समझना चाहिए कि ये सांस्कृतिक केन्द्र ही इतनी विविधता के बाद भारत को जोड़े हुए हैं। क्योंकि एक तरफ पंथ, जाति हमें अलग करती है तो भाषा हमें जोड़ती है। हिन्दू, जैन, मुस्लिम आदि धर्म के आधार पर अलग हैं, लेकिन भाषा एक होने कारण वो जुड़ते हैं। दूसरी तरफ दक्षिण और उत्तर के लोग भाषा के आधार पर अलग हैं, लेकिन अपने पुरखों की अस्थियां लेकर काशी आते हैं। बद्रीनाथ, केदारनाथ दर्शन को जाते हैं। ये भारतीय संस्कृति ही है जो हमें जोड़े रखती है।

एक और बात जो कांग्रेस नेतृत्व के भ्रम को दर्शाता है। एक बात समझने में नहीं आ रही की जैसे इतने दिन कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव नहीं हुआ वैसे यात्रा तक रुक जाते। राजस्थान में जैसे इतने दिन गहलोत को झेला महीने-दो महीने और झेल लेते। इतनी भी क्या जल्दी थी कि इस यात्रा के दौरान ही ये सब जरूरी था। दरअसल यह सब कांग्रेस नेतृत्व के भ्रम को दर्शाता है। या फिर कांग्रेस में ही राहुल और प्रियंका के अलग अलग गुट है। वैचारिक भ्रम तो है ही। जब मार्क्स और माओं के विचार में दीक्षित संदीप सिंह प्रियंका के सलाहकार होंगे और कन्हैया कुमार राहुल गांधी के सलाहकार तो यह भ्रम स्वाभाविक ही है। राहुल गांधी स्वतंत्रता संघर्ष के तिलक, अरविंदो और गांधी जी के अतीत से सीखिए कन्हैया कुमार या संदीप सिंह से नही। क्योंकि यह मोक्ष भूमि है, भोग भूमि नहीं। यहां जितना आपके अंदर सत्ता के लिए अकुलाहट होगी, सत्ता उतनी आपसे दूर जाएगी। जिस दिन आप समाज के लिए जीने लगेंगे, उस दिन समाज अपने आप आपकी झोली में सत्ता डाल देगी। अंत में सिर्फ इतना अनुमान लगाया जा सकता है कि यात्रा जिस कश्मीर में समाप्त होगी, वहां धारा 370 मुद्दा है। कांग्रेस की भी एक राय रही है 370 जब हटाई गई। 370 सिर्फ कश्मीर के लिए नहीं पूरे देश के लिए मुद्दा है। इस बारे में क्या कहेंगे राहुल गांधी जब यात्रा के अंतिम पड़ाव कश्मीर पहुंचेगे। क्या 370 हटाने का समर्थन कर एक देश में दो निशान, दो संविधान और दो प्रधान नही चाहिए का नारा देंगे, या फिर 370 की वापसी का राग अलाप कर भारत जोड़ेगें जहां देश का कानून लागू नही होगा।

 

 

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