देश के प्रतिष्ठित पत्रकार एवं आपातकाल सेनानी श्री रामबहादुर राय की ख्याति एक राजनीतिक विश्लेषक एवं खोजी पत्रकार की रही है किंतु अब उनका व्यक्तित्व एक संविधानविद् में परिवर्तित हो रहा है. उनके संविधान विषयक भाषणों को सुनकर तो यही प्रतीत होता है. ‘संविधान एक अनकही कहानी’ ने राय साहब को एक संविधान विशेषज्ञ के रूप में प्रसिद्धि दिला दी है. लेकिन उस किताब में जो नहीं है वो आपको संविधान आधारित उन कार्यक्रमों में मिल जाएगा जिनमें राय साहब आमंत्रित वक्ता होते हैं. अगर वे पत्रकार ना होते तो निश्चय ही संविधान एवं कानून के विशेषज्ञ, किसी विश्वविद्यालय के प्राध्यापक या कोई ख्यातिलब्ध अधिवक्ता होते. वैसे भी पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए राय साहब एक पूरी पाठशाला हैं ही.
जैसा कि राय साहब कहते हैं, उन्हें संविधान को समझने की प्रेरणा जेपी की पुस्तक ‘भारतीय राज्य-व्यवस्था की पुनर्रचना: एक सुझाव से मिली, जिसे उन्होंने आपातकालीन कारावास के समय पढ़ा था. उक्त पुस्तक में जेपी लिखते हैं, ‘इस देश में हो या और कहीं आदर्श आदर्श ही है. वह पूर्णरूप से प्राप्त कभी नहीं हो सकता. मनुष्य यही कर सकता है कि वह निर्धारित लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़ने का प्रयास करे और यथासंभव उस तक पहुँचने का प्रयत्न करे.’ संभवतः राय साहब ने इसी अवधारणा को आधार बनाया है तथा इसी अनुरूप वर्तमान में संवैधानिक निष्ठा की लड़ाई में अपना महाज चुन लिया है.
यह सर्वोच्च न्यायालय और केंद्र सरकार के बीच असहमति का ऐसा दौर है जो टकराव का रूप लेता दिख रहा है. यह टकराव जुबानी से लेकर विधेयक और अधिकारिता की सीमा तक विस्तृत हो चला है. इस विवाद के कुरुक्षेत्र में संघर्ष का एक प्रभावी मोर्चा तब खुला, ज़ब दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में राय साहब का संविधान पर संभाषण हुआ. जिज्ञासा (13 मई) एवं राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन (15 मई) के कार्यक्रमों में राय साहब ने दो विभिन्न मुद्दों समलैंगिकता एवं कॉलेजियम सिस्टम को विशेष रूप से रेखांकित किया.
शुरुआत ‘जिज्ञासा’ के कार्यक्रम में राय साहब द्वारा न्यायपालिका और संविधान की प्रशंसनीय विवेचना से हुई, लेकिन उस व्याख्यान में विशेष उल्लेखनीय था नाज फाउंडेशन, धारा 377 का विवाद और उस वर्तमान मुख्य न्यायधीश चंद्रचूड़ साहब का रुख.
अपने संबोधन में राय साहब ने कहा, “आज सुप्रीम कोर्ट अपनी मर्यादा तोड़ रहा है. जो बहस आज हो रही है, उसमें सीधे-सीधे दो पक्ष हैं. एक पक्ष यह मानता है कि सुप्रीम कोर्ट भारतीय लोकतंत्र के रक्षक की भूमिका में है. उसके कुछ फैसले ऐसे हैं. इसमें दो राय नहीं है. और इसलिए सुप्रीम कोर्ट के बारे में यह राय बनती है कि वह लोकतंत्र का रक्षक है तो उसके सही फैसले से ये राय बनती है. लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट का चीफ जस्टिस दूसरी दिशा लेता है तो चिंता भी पैदा होती है.” उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि, ”सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस आज जो हैं वो निरंकुश सत्ता के प्रतीक हो गये हैं.” उनका कहना था कि, “यह बात तो सही है कि संविधान निर्माताओं ने संविधान की व्याख्या का अधिकार सुप्रीम कोर्ट को दिया है लेकिन संविधान की अनर्थ व्याख्या का अधिकार नहीं दिया है. संविधान की व्याख्या जनहित में हो. संविधान की व्याख्या भारत की परंपरा, संस्कृति और इतिहास को नष्ट करने के लिए नहीं की जानी चाहिए. इसकी शुरुआत नाज फाउंडेशन मामले से हुई है.” राय साहेब ने अपने मनोभाव कुछ यूँ व्यक्त किये, ‘हे प्रभु, इस विध्वँस से भारत को बचाइये.’
जिज्ञासा के कार्यक्रम में राय साहब का संबोधन अद्भुत था. क़ानून एवं संविधानविद् ही नहीं बल्कि राजनीति एवं समाज के मर्मग्यों को भी उस दिन का राय साहब का भाषण सुनना चाहिए. यह देश में लोकतंत्र एवं संविधानवाद के विमर्श में निर्णायक दिशा निर्देशन कर सकता है.दूसरा, कार्यक्रम ‘स्वाभिमान आंदोलन’ का था जो सर्वसुलभ एवं सस्ते न्याय की सर्वत्रता के आंदोलनकारी थे.
उक्त कार्यक्रम में आमंत्रित वक्ताओं, जिनमें पूर्व न्यायधीश, अधिवक्ता से लेकर पत्रकार तक शामिल थे, ने माइक पकड़ते ही विषय के अनुरूप गर्जन-तर्जन शुरू कर दिया. उन्होंने आरोप लगाना शुरू किया कि वर्तमान सरकार की नियत ठीक नहीं है. वह न्यायपालिका की विरोधी है. सस्ता, सुलभ न्याय चाहिए. इतनी संख्या में जजों की नियुक्ति करो आदि जाने क्या-क्या. एक वक्ता तो इतने उत्तेजित थे कि 30 जनवरी यानि गाँधी ज़ी की पुण्यतिथि पर सरकार को आमरण अनशन की धमकी तक दे डाली. इनमें अन्ना आंदोलन वाले वकील साहब भी थे जो खुद को खानदानी ईमानदार समझते हैं और बाकी पूरी दुनिया को चोर. वैसे खुद को बड़ा देशभक्त और नैतिक बताते हैं परंतु कश्मीरी अलगाववादियों के समर्थन और याक़ूब मेनन जैसे आतंकी की फांसी रुकवाने के लिए आधी रात को जजों कों बिस्तर से खींच लाने में उनकी आत्मा आहत नहीं होती. ख़ैर ओछे विषय को छोड़कर मुद्दे पर लौटते हैं. यहाँ का विवरण रोचक है ज़ब राय साहब ने अचानक ही वक्त, हालात और जज़्बात सब बदल दिये.
सार्वजनिक कार्यक्रमों ये राय साहब की दो खासियत है कि ज़ब वे वक्ता के तौर पर आमंत्रित होते हैं तो एक तो वे निर्धारित विषय पर पूरी तैयारी से आते हैं और दूसरी महफिल का सारा आकर्षण साथ ले जाते हैं. हालांकि कॉन्स्टिट्यूशन क्लब के कार्यक्रम के लिए दूसरी बात तो सही है परन्तु पहली नहीं. राय साहेब वहां वक्ता के तौर पर आमंत्रित नहीं थे. वे अचानक आये और पिछली पंक्ति में बैठ गये, जैसा कि उनका अपने सम्बोधन में कहना था, वे श्रोता के तौर पर वहां सभा को सुनने आये थे. परंतु अब भारत के बौद्धिक जगत का दैपत्तीमान सूर्य उपस्थित हो तो सभा का आकर्षण स्वाभाविक है. वैसा ही हुआ. आयोजक मंडल तुरंत वहां पहुंचा और राय साहेब को जबरदस्ती मंच पर लिवा ले गया. बस यही आयोजकों से गलती हो गई. कैसे, समझिये.
तमाम वाग्वीरों के बाद राय साहब बोलने को उठे. उन्होंने कहा, ‘इस देश में न्यायिक सुधार को सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने मिलकर बंधक बना रखा है. साथ ही याद दिलाया कि इसी कॉलोजियम सिस्टम के विरुद्ध संसदीय विधेयकों के समक्ष न्यायपालिका ने कैसे दीवार खड़ी कर रखी है.’ उन्होंने कार्यक्रम के आयोजक मंडल के क्रांतिकारियों एवं वक्ताओं की ओर मुख़ातिब होते हुए कहा कि अगर आपसब इस देश में न्याय प्रणाली में सुधार चाहतें हो तो आंदोलन की शुरुआत न्यायपालिका के दरवाजे से करिये. साथ ही सरकार पर गरज रहे इन क्रांतिवीरों को न्यायपालिका की विद्रूपता पर ध्यान धरने की सीख दी.
राय साहब के भाषण पर श्रोताओं द्वारा जितनी तालियां बजी, जितना हर्ष प्रकट किया गया, उतना किसी भी अन्य वक्ता के भाषण पर नहीं दिखा. उसी समय स्वाभिमान आंदोलनकारियों की सारी सभा, सारा आंदोलन, उसका मंतव्य और सारा विरोध तहस-नहस हो गया. इसके बाद गोविंदाचार्य जो कि इस कार्यक्रम के भीष्म पितामह लग रहे थे, अध्यक्षीय संबोधन के लिए उठे. पता नहीं कितनी हसरतें, कितने अरमान, कितनी उत्तेजना राय साहब के भाषण के साथ ही हवा हो गई. स्थिति ऐसी थी कि अध्यक्ष गोविंदाचार्य ने भाषण देने के बजाय धन्यवाद ज्ञापित करके ही अपने आपको मुक्त कर लिया और सभा विसर्जित हो गई. क्योंकि राय साहब के तूफान की भांति गुजरने के पश्चात् जश्न-ए-शहर के पास कोई नया शिगुफा बचा ही नहीं था. आयोजक मंडल के लोग कार्यक्रम के पश्चात् मुस्कुराते हुए मिले पर यकीन मानिये अंतर्मन की पीड़ा छुपाये नहीं छुप रही थी. राय साहब उस उफनती नदी की तरह आये जो अपने साथ सबकुछ बहाकर ले गई हो. हालात यों थे मानो हमले के लिए सन्नद्ध सेना एक अकेले योद्धा से पीट-पिटाकर खिसियाई सी खड़ी हो.
हालांकि जिन्हें राय साहेब के व्यक्तित्व और जीवनवृत्त का जरा सा भी ज्ञान हो उनके लिए ये कोई आश्चर्यजनक घटना नहीं थी. राय साहेब विद्यार्थी जीवन से ही विद्रोही तेवर के रहे हैं. चाहे बिहार आंदोलन के दौरान इंदिरा गाँधी को काला झंडा दिखाना हो, आपातकालीन तानाशाही पर विनोबा भावे (जिन्हें ओशो सरकारी संत कहते थे) के मौन के खिलाफ अनशन करना हो, लोकसभा के टिकट या राज्यसभा की सीट कई दफ़े ठुकराना हो या छात्र आंदोलन के दौरान बीएचयू के कुलपति के अहंकार के समक्ष नतमस्तक होने से इंकार करते हुए अपनी पीएचडी की डिग्री को त्यागना हो, राय साहब के जीवन से जुड़े ऐसे घटनाओं की भरमार है जिनपर अभी शोध-प्रबंध लिखा जाना बाकी है. लेकिन मूल प्रश्न यह है कि ऐसे जन्मजात ‘विद्रोही पथिक’ के संघर्ष की दिशा यदि न्यायपालिका की ओर उन्मत हुई है तो उसकी वज़ह जरूर ठोस होगी.
इस देश में हर मुद्दे पर अनावश्यक एवं गैर-जिम्मेदारी से सरकार को कोसने वालों के लिए राय साहेब का संबोधन अच्छी सीख है. हर सार्वजनिक मंच से सस्ती बौद्धिक जुगाली करने वाले वर्ग को राय साहब के ये भाषण जरूर सुनने चाहिए. ताकि पता चल सके कि न्याय की इस गंगोत्री को कौन दूषित करने पर आमादा है? किसकी मंशा संविधान और समाज को दिग्भ्रमित करने की है? कौन है जो वर्तमान की कुंठित आधुनिकता के लिए राष्ट्र को एक अनजाने भविष्य की ओर धकेल देना चाहता है?
ध्यान दें तो संविधान की मूल भावना पर देश की दो विशिष्ट शख्सियतें विपरीत ध्रुवों पर खड़ी हैं. तो समस्या कहाँ है? राय साहेब अति तार्किक व्यक्ति हैं. तथ्यों पर पूरी पकड़ रखते हैं तथा लेखन और वाचन में पूरी तरह प्रमाणिक रहते हैं. उधर डीवाई चंद्रचूड़ भी राय साहब की तरह सक्रिय व्यक्ति है. वह भी इस देश में न्याय और समता की स्थापना चाहते हैं लेकिन बड़े चयनित तरीके से. दो मुद्दे, समलैंगिकता एवं कॉलेजियम सिस्टम, जिनपर सर्वोच्च न्यायालय के विद्वान मुख्य न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के विरोधाभासी विचारों से इस टकराव को समझा जा सकता है. समलैंगिकता के मामले में प्रधान न्यायधीश की त्वरा गजब की है. वे आमूलचूल परिवर्तन को अधीर हैं. एलजीबीटीक्यू समुदाय को न्याय मिले इसके लिए तत्पर हैं. जबकि कॉलेजियम मामले में उनकी प्रतिक्रिया उतनी ही मासूम है. देश की डेढ़ सौ करोड़ जनता को न्याय मिले और कॉलेजियम सिस्टम खत्म हो, इसपर वे सस्ते तर्कों के पीछे छुपने लगते हैं.
हालांकि राय साहब और न्यायमूर्ति डी.वाई.चंद्रचूण के बीच एक खास सम्बन्ध है. सर्वविदित है कि रामबहादुर राय आपातकाल के दौरान पहले मीसा बंदी थे. तब उनके मुक़दमे पर सुनवाई इन्हीं डी.वाई.चंद्रचूड़ के पिता न्यायमूर्ति वाई.वी.चंद्रचूड़ और पी.एन.भगवती की बेंच ने सात महीने बाद 12 नवंबर, 1974 को की थी. जिसके बाद वे रिहा हुए थे. राय साहब अपनी किताब ‘भारतीय संविधान अनकही कहानी’ की भूमिका में लिखते हैं, “मेरी ओर से डॉ. घटाटे ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. वहाँ सुनवाई हुईं. सुप्रीम कोर्ट ने मेरी गिरफ्तारी को असंवैधानिक ठहराया. ‘किसी शांतिपूर्ण प्रतिरोधकर्ता को बंदी बनाना असंवैधानिक है.’ मेरे लिए संवैधानिकता का वह पहला पाठ बना.” आपातकाल की पृष्ठभूमि से ग्रहित इन्हीं संवैधानिक मनोभावों को आत्मसात किये हुए उन्होंने क़ानूनी मीमांसा की अपनी अवधारणा बनाई है.
न्यायपालिका ने स्वतंत्र भारत के 70 दशकों से अधिक के कालखंड में अत्यधिक सम्मान अर्जित कर रखा है. विधायिका और न्यायपालिका के बीच किसी भी टकराव में आम भारतीयों का झुकाव न्यायपालिका की ओर ही रहा है. इसका ताज़ा उदाहरण किरण रिजीजू हैं. बेचारे नैतिकता की लड़ाई में ऐसा फंसे कि अपने सही तर्कों के बावजूद क़ानून मंत्री पद गवाँ बैठे. लेकिन न्यायपालिका कों समझने की जरुरत है कि पुण्यकर्मों एवं अर्जित सम्मान के क्षय की भी सीमा है जिसे अपनी अनावश्यक सक्रियता और सर्वाधिकार के वेग में वह गवाँ रही है.
लियों टाल्सटॉय लिखते हैं, ‘हर कोई दुनिया को बदलना चाहता है, लेकिन कोई खुद को बदलने की नहीं सोचता है.’ यही स्थिति भारतीय न्यायपालिका की है. न्याय प्रणाली की सुरक्षा के नाम पर कॉलोजियम सिस्टम के सहारे उसने देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर अपनी निजी सत्ता लाद रखी है. पिछले दिनों इसी कॉलेजियम प्रणाली का बचाव करते हुए सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा कि हर प्रणाली सही नहीं होती, लेकिन यह सबसे अच्छी प्रणाली है. उन्होंने न्यायपालिका को बाहरी प्रभावों से बचाना भी एक कारक बचाया. कैसा निर्लज्ज तर्क है क़ानून के इस उद्भट विद्वान का. क्या न्यायपालिका सदैव कुछ विशिष्ट परिवारों की निजी जागीर बनी रहेगी?
यदि कॉलोजियम सिस्टम को बनाये रखने की जिद नहीं छोड़ी गई तो एक दिन न्यायपालिका को भी भारत का ‘तमानी हॉल’ (अमेरिका के डेमोक्रेटिक पार्टी का न्यूयार्क स्थित केंद्रीय संगठन, जिसे कभी व्यवहार प्रतीक रूप में प्रायः राजनीतिक भ्रष्टाचार के अर्थ में लिया जाता था) के रूप में संबोधित किया जाने लगेगा क्योंकि वंशवाद-परिवारवाद का आरोपण भी कदाचार का ही प्रतीक है.
राय साहब ने इन्ही मुद्दों पर मोर्चा खोल दिया है. अब यहाँ विमर्श दो पाटों में विभाजित है. पहला, या तो राय साहब का के विचारों की दिशा गलत है या भारत के माननीय न्यायधीशों ने न्यायपालिका के गरिमा के अनुरूप आचरण नहीं दिखाया है. वैसे मै राय साहब का अधिकृत प्रवक्ता नहीं हूँ. लेकिन देश के एक जिम्मेदार मतदाता और जिम्मेदार नागरिक की हैसियत से देश के विद्वान प्रधान न्यायधीश चंद्रचूड़ ज़ी को आमंत्रित करता हूँ कि वे राय साहेब के साथ एक सार्वजनिक बहस में भाग लें और सिद्ध कर दें कि हम जैसे आम भारतीय ही नहीं बल्कि देश का बड़ा प्रबुद्ध वर्ग राय साहेब की आतार्किक बातों में आकर अनावश्यक ही न्यायपालिका का आलोचक हो रहा है बल्कि वे राय साहब को अवमानना का दोषी माने. यदि नहीं, उनके पास राय साहेब के तर्कों का समुचित उत्तर नहीं हैं तो वे अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करें और कृपया देश में न्यायिक प्रणाली के सुधार का मार्ग अवरुद्ध ना करें. और ना ही अपने थोथे यूरोपीय आधुनिकता और अनर्गल समता एवं अधिकारवाद के सिद्धांत की आड़ में भारतीय समाज को भ्रमित करने का प्रयास करें. हे ‘मी लार्ड, क्या आप राय साहब को सुन रहें हैं!