जंगल महल और मिदनापुर की संथाल, भूमिज और कुर्मी आदिवासी जातियों ने सन् 1760 में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया। अंग्रेजों ने उन्हें उनकी जमीनों से बेदखल कर दिया था। ईस्ट इंडिया कंपनी ने उनके मुखिया रायपुर के जमींदार राजा और गंगा नारायण की जमीनें हड़प ली थीं। अंग्रेज सरकार ने स्थायी बंदोबस्त आरंभ किया और जमींदारों का एक खास वर्ग खड़ा कर दिया।
19वीं सदी के अंत तक बाहरी लोगों ने आदिवासियों के अधिकतर इलाकों पर कब्जा कर लिया। अन्य इलाकों के आदिवासियों की भांति यहां के आदिवासियों का भी बाहरी लोग, जमींदार, साहूकार, व्यापारी और अधिकारी आदि दमन और शोषण कर रहे थे। इससे आदिवासी इन लोगों के प्रति गहरी घृणा से भर गए थे।
सन् 1921 और 1923 के दौरान जंगल महल, बांकुरा तथा सिंहभूमि के आस-पास के किसान जमींदारी के खिलाफ भड़क उठे। यूरोपीय जमींदारों की एक कंपनी ‘मिनापुर जमींदारी कंपनी’ के खिलाफ उनका गुस्सा फूटा। यह कंपनी लकड़ी की ढुलाई की आदिवासियों को बहुत कम मजदूरी देती थी। कंपनी ने बल प्रयोग करके आदिवासियों की हड़ताल तोड़ने की कोशिश की। इसमें हुई लाठीचार्ज में एक आदिवासी की मौत हो गई। इससे आगबबूला हुए आदिवासियों ने जंगल में लूट आरंभ कर दी। मिदनापुर जमीदारी कंपनी ने कोर्ट में जाने का फैसला किया। इसी बीच यह आंदोलन एक आम विद्रोह में बदल गया।
जुलाई 1921 में शैलजानंद सेन ने 200 संथाल महिलाओं के साथ एक प्रदर्शन किया और स्थनीय जमींदारों की धान से भरी बैलगाड़ियों का मार्ग रोक लिया। आदिवासियों को कांग्रेस का साथ मिलने से यह आंदोलन संगठित हो गया था। जनवरी 1922 में प्रदर्शनकारियों ने विदेशी कपड़ों का बहिष्कार कर दिया। अगस्त 1922 में आदिवासियों ने जंगल के इस्तेमाल और जलाशयों में मछलियां पकड़ने के अपने पारंपरिक अधिकारों की मांग के लिए प्रदर्शन किए और ये प्रदर्शन आगे चलकर आजादी के आंदोलन में बदल गए।