अपनी चीन यात्रा पर जाने से पहले बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक महत्वपूर्ण भाषण दिया था। उन्होंने कहा कि इक्कीसवीं सदी में एशिया विश्व का नेतृत्व करेगा और इसका श्रेय भगवान बुद्ध को जाएगा। बाद में अपनी चीन यात्रा के दौरान शिंगुआ विश्वविद्यालय में बोलते हुए उन्होंने भारत और चीन के आपसी संबंधों की कड़ी के रूप में बौद्ध धर्म का उल्लेख किया और चीनी यात्री श्वेन जांग का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया कि वे उनके अपने शहर वड़नगर भी आए थे। चीनी विश्वविद्यालय में उन्होंने अपना भाषण अंग्रेजी में दिया और चीनी नामों का उच्चारण उतनी शुद्धता से नहीं किया जितनी उनसे अपेक्षा थी। इसका बड़ा कारण तो अंग्रेजी है, अच्छा हो हमारा विदेश मंत्रालय अंग्रेजी से इतर भाषाएं बोलने वाले देशों के व्यक्तियों, स्थानों आदि के नाम का देवनागरी में कोई मानक कोष तैयार करवा ले। क्योंकि बोलने के अनुरूप लिखने में देवनागरी एक श्रेष्ठ लिपि है।
लेकिन मुख्य समस्या उन सभी देशों के परस्पर संबंधों को समझने की है जिनके बीच बौद्ध धर्म एक कड़ी के रूप में काम करता है। हम लंबे समय से इस दिशा में प्रयत्नशील हैं कि बौद्ध धर्म में श्रद्धा रखने वाले सभी देश एकजुट हों। लेकिन बौद्ध धर्म का हम जिस तरह उल्लेख करते हैं वह हमारे इस उद्देश्य की प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा है। हम जाने- अनजाने भगवान बुद्ध को ईसा-मसीह या मोहम्मद साहब की कड़ी में रख देते हैं। और निरंतर यह दोहराते रहते हैं कि भगवान बुद्ध भारत में पैदा हुए थे और उनका संदेश लेकर भारत से बौद्ध संन्यासी दुनियाभर में फैले थे। इस उल्लेख में यह दिखाने की आकांक्षा छिपी रहती है कि भारत अतीत में ज्ञान का प्रसारक रहा है और इस नाते वह सहज रूप से विश्व गुरु माने जाने योग्य है।
इस आकांक्षा के पीछे हमारी श्रेष्ठता नहीं हमारी आत्म-श्लाघा ही प्रकट होती है, विशेष रूप में इसलिए भी कि बौद्ध धर्म में आज जो निष्ठा जापान, थाई देश, श्रीलंका या तिब्बतियों में दिखाई देती है वह हमारेयहां नहीं है। यहां तक कि चीन के लोग अपने साम्यवादी शासन के बावजूद बौद्ध आस्था, बौद्ध मंदिरों और बौद्ध शिक्षा के हमसे बड़े केंद्र हैं। हम तो भगवान बुद्ध की ज्ञान प्राप्ति के स्थान बोधगया की विभूति और उसके गौरव की ही ठीक से रक्षा नहीं कर पा रहे, जबकि चीन अपने भगवान बुद्ध के वचनों के मंत्रोच्चार से गूंजते रहने वाले चारों पवित्र पर्वतों के गौरव की अधिक कुशलता से रक्षा कर रहा है।
हमारी पहली समस्या तो यह है कि हमारा उद्देश्य तो बौद्ध धर्म में आस्था रखने वाले सभी देशों को एकजुट करना है। पर जब भी हम बौद्ध धर्म की विशेषता का उल्लेख करते हैं तो हमारे सामने बौद्ध आस्थाओं वाले देश नहीं होते, पश्चिमी देश होते हैं। तिब्बत की स्वतंत्रता के लिए समर्थन जुटाते समय तिब्बती नेता पश्चिमी देशों में जाकर अगर यह कहें कि उनकी समस्याओं का समाधान बौद्ध धर्म है तो उचित ही है। लेकिन हमें बौद्ध धर्म की उपादेयता पश्चिमी संदर्भ में क्यों सिद्ध करनी चाहिए? भारत के पश्चिम में बसी जातियों का यह स्वभाव है कि वे मनुष्य को, समुदायों को, जातियों को संघर्ष की ओर बढ़ाते हैं। उन्हें अपनी समस्या का कोई समाधान बौद्ध धर्म में दिखाई देगा तो वे स्वयं उस ओर आगे बढ़ेंगे। हमारा प्राथमिक उद्देश्य तो पश्चिम के राजनैतिक, व्यापारिक और मजहबी प्रसार को रोकना है जो सारे संसार में हिंसा और दैन्य तो पैदा कर ही रहा है, मनुष्य के स्वभाव के स्वाभाविक शील को भी क्षति पहुंचा रहा है। यह काम भारत और उसके पूर्व में बसे बौद्ध आस्था वाले सभी देशों को एकजुट करके ही किया जा सकता है।
इस दृष्टि से हमें पश्चिम और पूर्व के बंटवारे को समझना चाहिए। यह एशिया और पश्चिम का भेद नहीं है, क्योंकि भारत के पश्चिम में बसे एशियाई समूह भी पिछले डेढ़ हजार वर्ष के इतिहास में यूरोपीय जाति जैसी ही आक्रामकता के साथ अपने राजनैतिक, व्यापारिक और मजहबी प्रसार में लगे रहे हैं। वास्तव में यह विभाजन सेमेटिक विश्व और धार्मिक विश्व के बीच है। भगवान बुद्ध मंे आस्था रखने वाले सभी देशों में बौद्ध धर्म के अतिरिक्त और भी धर्म संप्रदाय हैं। चीन में जैसी आस्था बौद्ध धर्म में है, वैसी ही आस्था ताओ धर्म में भी है तथा ऋषितुल्य कांग फूजी के नैतिक सिद्धांतों में भी, जिनके आधार पर चीन एक उन्नत राजधर्म विकसित करने में सफल हुआ है। चीन के साम्यवादी नेता भी इस राजधर्म का उल्लेख गर्व से ही करते हैं। इसी तरह जापान में शिंटो संप्रदाय की बौद्ध धर्म जैसी ही प्रतिष्ठा है। जापानी लोगों के दैनिक जीवन के अधिकांश व्यवहार शिंटो आनुष्ठानिक प्रक्रिया से ही संचालित होते हैं। जैसे अपने इस युग को बुद्धावतार कहते हुए भारतीयों ने हिंदू, बौद्ध और जैन सभी पंथों में एक सी आस्था बनाये रखी है, वैसे ही चीन या जापान दिव्य जगत से हमारा संबंध जोड़े रखने वाली और समाज को धर्मशीलता की ओर ले जाने वाली इन विभिन्न धाराओं से एक साथ जुड़े रहे हैं।
यह एक भ्रामक धारणा बन गई है कि हिंदू, बौद्ध, जैन, ताओ, शिंटो आदि पंथों में श्रद्धा रखने वाले लोगों की गिनती भी उसी तरह की जा सकती है, जैसे ईसाई या इस्लाम पंथ को मानने वाले लोगों की की जाती है। इन दोनों श्रेणियों का सबसे बड़ा अंतर यह है कि पहली श्रेणी के पंथों में श्रद्धा रखने वाले लोग एक-दूसरे से अलग पहचान बनाए रखने के आग्रही नहीं होते। कोई ईसाई रहते हुए मुसलमान नहीं हो सकता और न कोई मुसलमान इस्लाम को मानते हुए ईसाई हो सकता है। लेकिन कोई हिंदू भगवान बुद्ध में श्रद्धा रखते हुए कोई दुविधा अनुभव नहीं करता। इसी तरह तिब्बतियों के सबसे प्रतिष्ठित दलाई लामा अपने आप को हिंदू गतिविधियों से जोड़ते हुए भी कोई परायापन अनुभव नहीं करते। अगर आप शिंटो पंथ से संबंधित कोई वृत्त चित्र देखें तो उसे हिंदू धर्म का ही एक प्रतिरूप मानने से अपने आप को रोक नहीं पाएंगे। लाओ शू की ताओ ते चिंग पढ़ते हुए आपको भारतीय वांगमय की बरबस याद आ जाएगी।
भारत में सनातन धर्म तो इतना पुराना है कि वह अपने नाम को सार्थक करता है। उसी तरह शिंटो धर्म जो देव अनुकंपा पाने के एक मार्ग के रूप में पांचवी-छठी शताब्दी ईसा पूर्व से अब तक जापान की मूल आस्था बना हुआ दिखाई देता है, वह भी अनादि ही है। लेकिन भगवान बुद्ध, ताओ पंथ के प्रवर्तक लाओ शू और ऋषितुल्य कांग फूजी लगभग एक ही काल में (पांचवी शताब्दी ईसा पूर्व) उत्पन्न हुए थे। भारत से श्रीलंका में बौद्ध धर्म की ख्याति तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व ही हो गई थी और वहां से वह निकटवर्ती दक्षिण पूर्व एशिया के क्षेत्रों में फैलता रहा।
लेकिन चीन में बौद्ध भिक्षुओं और बौद्ध धर्म का पदार्पण पहली शताब्दी में ही हो पाया था। जापान में तो वह और भी बाद, छठी शताब्दी में पहुंचा और तिब्बत में सातवीं शताब्दी में। उसे स्थानीय पंथों से सहकार बैठाने में कोई समस्या नहीं हुई। भारत की समृद्ध शास्त्रीय और आनुष्ठानिक परंपरा का उत्तराधिकारी होने के कारण बौद्ध धर्म शास्त्रीय और आनुष्ठानिक दृष्टि से औरों से अधिक समर्थ था, इसलिए स्थानीय धर्म संप्रदायों ने उससे निस्संकोच बहुत सी तात्विक और आनुष्ठानिक विधियां ली। एक-दूसरे से आत्मीय व्यवहार में बंधे यह सभी पंथ एक सी धर्म दृष्टि के विभिन्न मार्ग हंै और इसलिए एक धार्मिक परिवार हैं।
भारत के पश्चिम में अवस्थित सेमेटिक विश्व की तुलना में भारत और उसके पूर्व में अवस्थित धार्मिक विश्व की शक्ति कम नहीं है। अगर सेमेटिक विश्व में मोटे तौर पर चार अरब लोग हैं तो धार्मिक विश्व में भी लगभग साढ़े तीन अरब लोग हैं। अगर इंडोनेशिया और पाकिस्तान इस्लाम के प्रभाव में न गए होते तो धार्मिक विश्व की शक्ति सेमेटिक विश्व से अधिक होती। हमें उनकी यह शक्ति दिखाई न दे इसलिए उन्हें हिंदू, बौद्ध, ताओ या शिंटो अनुयायियों के रूप में बांट कर दिखाया जाता है। लेकिन धार्मिक विश्व के इन पंथों के इस तरह के एकांतिक अनुयायी नहीं होते जैसे
ईसाई या इस्लाम धर्म के अनुयायी होते हैं। हिंदू, बौद्ध, जैन, ताओ या शिंटो पंथों में साधारण लोगों के लिए कोई निष्ठा-ज्ञाप्ति अनुष्ठान नहीं होता। केवल संन्यासियों और पुजारियों की विधिवत दीक्षा होती है क्योंकि उन्हें अपने संप्रदाय की विधि से साधना करनी है या अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना है।
जब तक हम सेमेटिक विश्व के समुदायों-पंथों ने अपने राजनैतिक, व्यापारिक और मजहबी विस्तार के लिए कितने हिंसक और पतित करने वाले साधनों का उपयोग किया है, इसे नहीं समझते, हमंे सेमेटिक विश्व और धार्मिक विश्व के मूल अंतर का पता नहीं चलेगा। धार्मिक विश्व के विभिन्न पंथों में से केवल बौद्ध धर्म ने अपने मूल समाज से बाहर जाकर अपना प्रसार किया। इस प्रसार में भिक्षुओं, राजाओं और शास्त्र सभी की भूमिका है। लेकिन बौद्ध धर्म एक सत्यान्वेषी पंथ के रूप में फैला। उसके प्रसार में संघ ने या बौद्ध धर्म में आस्था रखने वाले राजाओं ने कहीं बल का प्रयोग नहीं किया। बौद्ध धर्म ने अपने मूल क्षेत्र से बाहर फैलते हुए धर्मांतरण का प्रयास नहीं किया। बौद्धों और अन्य धाराओं में कभी ऐसे हिंसक संघर्ष की नौबत नहीं आई जैसे ईसाईयत और इस्लाम के बीच तथा उनके अपने भीतर के संप्रदायों में आती रही। उदाहरण के लिए 1618 से 1648 तक कैथलिक और प्रोटेस्टेंट संप्रदायों के बीच हुए संघर्ष में लगभग अस्सी लाख लोग मारे गए थे, जबकि उस समय पूरे यूरोप की आबादी कोई दस करोड़ ही थी। इसी तरह शिया और सुन्नी आज भी किस तरह की बर्बरता के साथ एक खूनी संघर्ष में उलझे हैं यह किसी से छिपा नहीं है।
इन दोनों सेमेटिक पंथों ने अपने विस्तार में जितनी हिंसा और अमानवीयता बरती है, उसकी कथा लोमहर्षक है। ईसाई पंथ का उदय एक नये यहूदी पंथ के रूप में हुआ था लेकिन रोमन राज्य द्वारा अंगीकार किए जाने के बाद कैथोलिक चर्च ने यूरोप के भीतर अपने विस्तार के लिए भी बर्बर तरीकों का उपयोग किया। ईसाई और इस्लाम का प्रसार इस मूल धारणा के आधार पर किया गया कि जो ईसाई अथवा मुसलमान बनने को तैयार नहीं है वह अंधेरे और पाप में डूबा हुआ है और उसे जीवित रहने को कोई अधिकार नहीं है। सेमेटिक विश्व में राजनैतिक, व्यापारिक और मजहबी उद्देश्य एक-दूसरे से जुड़े रहे हैं। ईसाई जिन दिनों निकटवर्ती एशिया और यूरोप में अपना विस्तार कर पाए थे, इस्लाम का उदय हुआ और उसने बहुत तेजी से उत्तरी अफ्रीका से लेकर ईरान तक, न केवल इस्लाम का विस्तार किया, बल्कि इस पूरे क्षेत्र को नई अरब पहचान लेने के लिए विवश कर दिया। इसके बाद ईसाइयत और इस्लाम अपने विश्वव्यापी विस्तार के लिए एक-दूसरे से होड़ लेते रहे हैं। पूरा अफ्रीका महाद्वीप उन्होंने अपने बीच बांट लिया है। इस अभियान में इस्लाम मध्य एशिया, पश्चिमी भारत और दक्षिण पूर्व एशिया के द्वीपीय क्षेत्रों पर अपना विस्तार करने में सफल हुआ। यूरोपीय जाति जो विश्व के 6.7 प्रतिशत क्षेत्र में सीमित थी, उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका (विश्व भूगोल का 28 प्रतिशत) और ऑस्ट्रेलिया (विश्व भूगोल का 5.3 प्रतिशत) तक फैल गई अर्थात विश्व का चालीस प्रतिशत क्षेत्र उसके नियंत्रण में आ गया है। अगर इसमें चर्च के प्रभाव वाला अफ्रीका का आधा क्षेत्र और जोड़ दिया जाए तो लगभग आधे विश्व तक उन्होंने अपने पैर पसार लिएहैं। सेमेटिक विश्व के इस विस्तार ने धार्मिक विश्व को सिकोड़ दिया है।
सेमेटिक विश्व का यह विस्तार केवल धार्मिक विश्व के लिए ही नहीं, पूरी मानव जाति के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है। संसार की सभी जातियों में परमसत्ता का बोध रहा है और अपने आप को परमसत्ता से जोड़ने के लिए सभी जातियों ने अपनी-अपनी विधियां विकसित की हैं। इन विधियों को अधिक उन्नत बनाने के लिए सभी समाज एक-दूसरे से सीखते समझते रहे हैं। लेकिन सेमेटिक पंथों ने अपने प्रभाव के क्षेत्रों में अपने मत का प्रतिरोपण करते हुए स्थानीय समाजों के लिए यह गुंजाइश ही नहीं छोड़ी कि वे नैसर्गिक तरीके से परमसत्ता का बोध करते हुए उससे अपना संबंध जोड़ने की विधि विकसित कर सकें। इससे धर्मशीलता कितनी क्षीण हुई हैं और किस तरह की हिंसक प्रवृत्तियां बढ़ी हैं, इसका जीता-जागता उदाहरण अफ्रीका है। सेमेटिक पंथों ने धर्मशीलता के बजाय मजहबी असहिष्णुता और प्रतिहिंसा पैदा की है। मनुष्य की नैसर्गिक धर्म बुद्धि के इस क्षय को रोकने की कोई विधि न सेमेटिक विश्व के पास है, न हो सकती है।
मूल समस्या यह है कि सेमेटिक पंथों का लक्ष्य धर्म साधना नहीं, शक्ति का विस्तार होता है। इसलिए सेमेटिक विश्व में राजनैतिक, व्यापारिक और मजहबी उद्देश्य अलग-अलग नहीं रह पाए। वे एक-दूसरे के साथ इस तरह घुले-मिले रहते हैं कि राजतंत्र, मजहबी तंत्र और व्यापारिक तंत्र एक-दूसरे की शक्ति का पूरी आक्रामकता के साथ उपयोग करते हैं। इससे न राजनैतिक शक्ति की कोई मर्यादा रहती है, न व्यापारिक तंत्र की और न मजहबी तंत्र की। सेमेटिक विश्व के राजनैतिक विस्तार ने औपनिवेशिक सत्ताएं खड़ी की। भारत और चीन दोनों को पहले तैमूरी और मंगोली, और फिर यूरोपीय औपनिवेशिक सत्ताओं का बर्बर नियंत्रण झेलना पड़ा। अपने विस्तार के दौरान पाई शक्ति से सेमेटिक सत्ताएं जिस अनुपात में समृद्ध हुई हैं, उसी अनुपात में विश्व की अन्य सभी समृद्ध सत्ताएं गरीबी और बदहाली का शिकार होती गई हैं। यूरोपीय इतिहासकार अंगस मेडिसन के आकलन के अनुसार, आज विश्व की जनसंख्या में यूरोपीय जाति का अनुपात केवल 12 प्रतिशत है लेकिन विश्व के 43 प्रतिशत उत्पादन पर उनका नियंत्रण है। तीन शताब्दी पहले तक केवल भारत और चीन का ही विश्व के सकल उत्पादन में आधा भाग था।
इस विशाल चुनौती का सामना करने के लिए धार्मिक विश्व की एकजुटता और एक लक्ष्यता आवश्यक है। यूरोप प्रेरित हाल के संघर्षों को छोड़ दें तो इस धार्मिक विश्व के देशों में सदा एक सामंजस्य रहा है, उनके बीच टकराहट की कभी नौबत नहीं आई। यह पूरा क्षेत्र गहरी धर्मशीलता, राजनैतिक शक्ति और भौतिक समृद्धि का क्षेत्र रहा है। कुछ शताब्दी पहले तक सेमेटिक विश्व इस धार्मिक विश्व की तुलना में शक्तिहीन और असंस्कृत ही दिखता था। लगभग 1700-1800 तक यह पूरा क्षेत्र, कई इलाकों में विदेशी राजनैतिक और मजहबी प्रभाव के विस्तार के बावजूद, ज्ञान-विज्ञान की दृष्टि से यूरोप और अरबों से आगे ही था। पिछली कुछ शताब्दियों में उसने अपनी पहल खो दी है। पर वह उसे फिर से प्राप्त हो सकती है।
धार्मिक विश्व की पहल और शक्ति लौटाने के लिए भारत को निश्चय ही अग्रणी भूमिका निभानी होगी। आज तो विश्व शक्तियों ने भारत और चीन को अनावश्यक प्रतिद्वंद्विता में डाल दिया है। दोनों को उससे बाहर निकलने के लिए उनके बीच के धार्मिक-ज्ञानात्मक संबंध को पुनर्जाग्रत करना आवश्यक है। बौद्ध धर्म भारत, चीन, मंगोलिया, तिब्बत, जापान, कोरिया, वियतनाम, कंपूचिया, लाओस, थाई देश, श्रीलंका, म्यांमार और नेपाल के बीच की एक जीवंत कड़ी है। इन देशों के शासन तंत्र जैसे भी हों, राजकीय धर्म जो भी हों, इन सभी देशों का समाज बौद्ध धर्म के कारण आपस में जुड़ा हुआ है। हिंदू, बौद्ध, जैन, ताओ और शिंटो एक धर्म परिवार हैं। उनमें परस्पर संपर्क और निर्भरता रही है। पिछली कुछ शताब्दियों में इसमें कुछ बाधा आई है, पर इसके राजनैतिक कारण हैं। अब इस धार्मिक विश्व को एकजुट करने के लिए उनके बीच की पारस्परिकता को फिर से बढ़ाने की आवश्यकता है। इसके लिए इन देशों के भीतर आसानी से ऐसे संस्थान खड़े किए जा सकते हैं जो इस धार्मिक परिवार के विभिन्न पहलुआंे का अध्ययन करते हुए उनके बौद्धिक और धार्मिक तंत्र में परस्परता बढ़ाने का योजक बन सकें। अगले एक दशक में विद्वानों और विभिन्न पंथों के महत्वपूर्ण धर्माचार्यों को इस दिशा में अग्रसर किया जाना चाहिए।
भारत को भगवान बुद्ध के बोधि-स्थल बोधगया का भव्य लेकिन सुरूचिपूर्ण कायाकल्प करने की ओर ध्यान देना चाहिए। यह स्थान केवल बौद्धों के लिए ही नहीं, धार्मिक विश्व के सभी श्रद्धालुओं के लिए महत्वपूर्ण तीर्थ बनना चाहिए। बोधगया में सभी बौद्ध देशों के चैत्य हों, बौद्ध धर्म के अध्ययन और साधना की सुविधा हो, इसका प्रयत्न किया जाना चाहिए। एक निश्चित अवधि में बौद्ध संगीतियों का आयोजन होना चाहिए। भारत को अपने यहां ताओ, शिंटो और कांग फूजी के राजधर्म को समझने में कई हजार युवाओं को लगाना चाहिए। हमारे युवाओं में धार्मिक विश्व के सभी देशों की भाषा और संस्कृति को समझने वालों की एक बड़ी संख्या होनी चाहिए।