हर समय का एक युगधर्म होता है। आज का युगधर्म क्या है? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत सतत अपने व्याख्यानों में यही तो देशवासियों को समझा रहे हैं। वह क्या है? सूत्र रूप में यह है कि विकसित भारत के लिए भारतीयता की भावना जरूरी है। वह आचरण में स्पष्ट दिखनी चाहिए। लेकिन अफसोस की बात है कि जो संत समझे जाते हैं, वे आलोचना पर उतर आए हैं। क्या उनकी आलोचना उचित है? इसे एक संदर्भ में रखकर समझने की जरूरत है। शासन प्रणाली संसदीय राजनीति के नियमों से चल रही है। किसे उम्मीद थी कि संसदीय राजनीति में 2019 एक असंभव संभावना का वर्ष होगा। उसी वर्ष सुप्रीम कोर्ट ने आम सहमति से अयोध्या विवाद पर अपना निर्णय सुनाया। वह ऐतिहासिक निर्णय था। न्याय की उसमें स्थापना थी।
पुराण कथाओं में ऐसे ही अवसरों पर सभी दिशाएं दुंदुभी बजाती हैं। आकाश से देवता फूल बरसाते हैं? किसने सोचा था कि ‘कलियुग’ में ऐसा संभव हो सकता है? कौन जानता था कि पांच सौ सालों का उलझा हुआ विवाद आसानी से सुलझ जाएगा! सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक सद्भाव का नया युग शुरू हो सकता है। इसे जिस व्यक्ति ने अपने चित्त की गहराई में उतारा, वे मोहन भागवत हैं। इसीलिए 2019 से ही वे हर उचित मंच पर स्मरण कराते हैं कि आज का युगधर्म है, सद्भाव, सहयोग और परस्परता। यही तो उन्होंने 19 दिसंबर, 2024 को पुणे में कहा, ‘रामकृष्ण मिशन में अभी भी 25 दिसंबर मनाया जाता है। यह हम कर सकते हैं, क्योंकि हम हिन्दू हैं। हमारा कोई किसी पंथ से टकराव नहीं है। हम अनादिकाल से सबके साथ मिलजुल कर रहे हैं। ऐसा ही जीवन पूरी दुनिया को चाहिए। इसलिए हमें अपने देश में सद्भाव और परस्परता का एक आदर्श उपस्थित करना चाहिए। राम मंदिर होना चाहिए, वह बन रहा है, वह हिन्दुओं का श्रद्धा स्थान है। लेकिन कुछ लोगों को ऐसा लगता है कि वे राम मंदिर जैसा मुद्दा उठाकर हिन्दू नेता बन सकते हैं तो यह हमें स्वीकार नहीं है।’
उनके इस कथन को बार-बार पढ़ने की जरूरत है। पढ़ना ही काफी नहीं है। इसे मनन और चिंतन कर अपनाने की भी जरूरत है। इसमें ऐसी कौन-सी अटपटी बात है जिससे संत अपनी संतई छोड़ भड़क उठे हैं। पुणे एक ऐतिहासिक नगरी है। सांस्कृतिक राजधानियों में से एक है। स्वाधीनता संग्राम में उसने एक दिशा दी। वह उस नगर की धूल और हवा में विराजमान है। उसी पुणे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक बाला साहब देवरस ने अपने प्रसिद्ध व्याख्यान में सामाजिक समरसता का मर्म बताया। मोहन भागवत भी उसी पुणे में सहजीवन व्याख्यानमाला में बोले। उनका कथन निर्दोष है, निर्विवाद है। फिर विवाद और वितंडा क्यों? जिसका हर जगह स्वागत होना चाहिए, उसकी आलोचना क्यों? ऐसा लगता है कि कुछ लोगों में विघ्नसंतोषी आत्मा घर कर गई है।
यह अगर याद रहे कि सरसंघचालक मोहन भागवत सुप्रीम कोर्ट के अयोध्या निर्णय के बाद से ही नए युगधर्म को बताते आ रहे हैं तो आलोचना करने वाले अपनी भूल स्वीकार करेंगे। इसलिए जरूरी है कि मोहन भागवत के व्याख्यानों को सही संदर्भ में पढ़ा जाए। अगर ऐसा किया जा सके तो यह तथ्य हर किसी के मन-मस्तिष्क में अंकित हो जाएगा कि वे सनातन सत्य की सामयिक परिभाषा कर रहे हैं। जैसे कि उन्होंने इन शब्दों में हिन्दू को परिभाषित किया है, ‘विविधता में एकता की संस्कृति पर विश्वास करने वाला, अपने पूर्वजों का गौरव मन में लेकर चलने वाला, इस धरती को माता मानने वाला और इस धरती की संस्कृति का उपासक ही हिन्दू है।’ इस धरती से उनका आशय भारत देश से है। वे यह भी कहते हैं कि ‘बहुत पहले अंग्रेजों ने हमारे हाथ में टूटा आईना देकर हमें भ्रम में रखा। समय आ गया है कि इस आईने को फेंके और हमारे संतों ने एकात्मकता का जो आईना हमें सौंपा है उसमें अपना असली चेहरा देखें।’
यह अंश उनके एक व्याख्यान का है, जिसे उन्होंने 2014 में दिया था। हिन्दू की परिभाषा समय-समय पर विद्वान, राष्ट्रीय नेता और विचारक करते रहे हैं। जिनके मन में यह प्रश्न उठता है, वे चाहते हैं कि ऐसी परिभाषा उन्हें मिले जो समाधान कारक हो। इसलिए समय-समय पर हिन्दू शब्द की व्याख्या आवश्यक हो जाती है। यही कारण है कि मोहन भागवत ने भी इसे नए संदर्भ में परिभाषित किया। यह संदर्भ जो याद रख सकेगा वह किसी भ्रम में नहीं पड़ेगा। भ्रम निवारण के लिए ही एक प्रयास 2018 में हुआ। जब दिल्ली के विज्ञान भवन में मोहन भागवत के दो दिन व्याख्यान हुए। तीसरे दिन प्रश्नोत्तर था। गजब की बात यह थी कि उन्हें दत्तचित्त होकर सुना गया और मीडिया में कोई विवाद नहीं हुआ। व्याख्यान का विषय था, ‘भविष्य का भारत : संघ का दृष्टिकोण।’ उस समय अयोध्या विवाद सुप्रीम कोर्ट में था। प्रश्नोत्तर के दौरान एक प्रश्न अयोध्या विवाद पर पूछा गया कि क्या उसे हल करने के लिए शासन शाहबानो प्रकरण की भांति अध्यादेश ला सकता है? इसके उत्तर में उन्होंने प्रश्नकर्ता को बताया कि अध्यादेश का मामला सरकार के अधिकार में है। लेकिन उन्होंने अपना मत बताया कि ‘मैं चाहता हूं कि राम जन्मभूमि पर भव्य मंदिर जल्द बनना चाहिए।…अगर यह हो गया तो हिन्दू और मुसलमानों के बीच झगड़े का एक बड़ा कारण समाप्त हो जाएगा।’ इसे दूसरे लोग भले ही भूल गए हों, लेकिन मोहन भागवत ने याद रखा है। इस कारण वे 2019 के बाद अपने व्याख्यानों में सद्भाव के लिए निरंतर अपील कर रहे हैं।
यह कठिन कार्य है। इसकी जटिलता गहरी है। इसके लिए इतिहास में दूर उतरने की जरूरत नहीं है। स्वाधीनता संग्राम पर ही निगाह दौड़ाएं तो अनेक ऐसे मोड़ मिल जाते हैं जब कोई न कोई महापुरुष ऐसे कठिन कार्य को संपन्न करता है। वह यह करते हुए एक खतरा मोल लेता है। ऐसे अनेक महापुरुष हुए हैं। उनकी भारत में भी लंबी श्रृंखला है। उसमें मोहन भागवत की एक अलग जगह आज समय ने बनाया है। वे इस गंभीर दायित्व से परिचित हैं। उनकी अलग जगह दो तरह से है। एक, वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक हैं। जो निरंतरता में सौ साल पूरे कर रहा है। हिन्दू समाज के इतिहास में किसी संगठन को कभी ऐसा अवसर नहीं मिला। इसी अर्थ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिन्दू समाज का प्रतिनिधि संगठन बन गया है। दूसरा, जिन महापुरुषों ने अपने जीवन को खतरे में डालकर सामाजिक-धार्मिक सद्भाव के लिए कार्य किए, वे ऐसे संगठन के प्रतिनिधि नहीं थे जिसका लंबा जीवन रहा हो।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का इतिहास जीवंत है। मोहन भागवत उसके प्रतिनिधि हैं। इस तरह वे इतिहास और संस्था के दोहरे दायित्व बोध से प्रेरित होकर भारत को उसकी अपनी राह समझाने में लगे हैं। यह हर सजग व्यक्ति जानता है कि देश सामाजिक-धार्मिक सद्भाव के नए दौर में है। लेकिन कुछ लोग समय के चक्र को विपरीत दिशा में मोड़ने की भूल लगातार कर रहे हैं। वह भूल न हो और नया दौर अपनी गति पकड़े, इसलिए मोहन भागवत के कथन को समझने और समझाने की जरूरत है।
उनका यह कार्य साहस भरा है। यही बात उनके उस व्याख्यान से निकलती है जो उन्होंने पुणे के बाद अमरावती में दिया। उसमें समाधान के सूत्र हैं। यह 22 दिसंबर, 2024 की बात है। मंच था, महानुभाव आश्रम के शतकपूर्ति महोत्सव का। वहां उन्होंने कहा कि धर्म का आचरण करने से ही धर्म की रक्षा होगी। धर्म के आचरण को समझना होगा और एक बार समझ लेने के बाद उसे अपनाना होगा। अगर शुद्ध मन से निश्चय करें तो धर्म को समझना सरल है। लेकिन कुछ लोग जो अहंकार के वशीभूत रहते हैं वे धर्म की भी गलत व्याख्या करते हैं। अतीत में धर्म के नाम पर जो अत्याचार हुए वे गलत धारणाओं के कारण हुए। लेकिन ज्ञानवर्धक पंथ और संप्रदाय हमारे देश के गौरव हैं। हर संप्रदाय एक-दूसरे से जोड़ना सिखाता है। उन्होंने वहां कहा कि संघ धर्म की रक्षा के लिए कार्य कर रहा है। धर्म का उद्देश्य मानवता की सेवा करना है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत के कथन का सार यह है कि धर्म की सही समझ होनी चाहिए। अगर धर्म का अधूरा ज्ञान हो तो अधर्म का कारण बनता है। धर्म के नाम पर दुनिया भर में जितने भी अत्याचार हुए वे अज्ञानता के कारण हुए। इसलिए धर्म का पालन करना ही धर्म की रक्षा है। इसे भारत की राज्य व्यवस्था से जोड़ दें तो उनका संदेश सीधा है। वह यह है कि जगह-जगह मस्जिदों, मजारों और दरगाहों में मंदिर खोजने के कार्य बंद होने चाहिए। इस देश ने मुस्लिम तुष्टिकरण को नकारा है। क्या इसके विपरीत मुस्लिम द्रोह को देश स्वीकार करेगा? ऐसी भूल न हो, यह जरूरी है। लेकिन वोट के लिए मूढ़ एकाग्रता से जो मुद्दे उठाए जा रहे हैं उससे समाज के एक बड़े वर्ग में व्यग्रता बढ़ रही है। सामाजिक सद्भाव के लिए यह परीक्षा की घड़ी है।
ऐसे समय में मोहन भागवत के व्याख्यान का प्रासंगिक अंश बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। उसे सही संदर्भ में अगर कोई पढ़ेगा तो पाएगा कि वे सावधान कर रहे हैं। वे बता रहे हैं कि जो-जो कार्य सनक से किए जा रहे हैं, वे हितकर नहीं हैं। इतना ही नहीं भयानक दुष्परिणाम से भरे हैं। इसलिए ऐसे कार्यों से सावधान रहने की जरूरत है। एक सजग समाज ही समर्थ समाज बन सकता है। जहां व्यग्रता होगी वहां शांति नहीं आ सकती। जहां शांति नहीं होगी, वहां सद्भाव नहीं आ सकता। इसके अभाव में समाज की शक्ति एक दिशा में कैसे लगेगी! वह तो रस्साकस्सी में फंस जाएगी। विकसित भारत के लिए एक दिशा में पूरा प्रयास पहली जरूरत है। उसे ही आज मोहन भागवत स्वर दे रहे हैं। ऐसा स्वर जो भारत को एक लय में बढ़ने की प्रेरणा दे सकता है।
संघ सरसंघचालक मोहन भागवत के कथन का सार यह है कि धर्म की सही समझ होनी चाहिए। अगर धर्म का अधूरा ज्ञान हो तो अधर्म का कारण बनता है। धर्म के नाम पर दुनिया भर में जितने भी अत्याचार हुए, वे अज्ञानता के कारण हुए। इसलिए धर्म का पालन करना ही धर्म की रक्षा है।