भारत को विभिन्नता में एकता के प्रतिमान राष्ट्र के रूप में प्रस्तुत किया जाता हैं. यह विभिन्नता भाषायी, नृजातीय, धार्मिक, क्षेत्रीय विकास आदि नाना प्रकार के हैं. साहित्यिक दृष्टि से इसके लाक्षणिक अर्थ होंगे किंतु राजनीतिक दृष्टि से यह विभिन्नता हमेशा राष्ट्र के लिए चुनौती बनी रही है. पिछले दिनों पुनः ऐसी चुनौती पेश करने का प्रयास हुआ ज़ब पूर्वी नगालैंड के छह जिलों को मिलाकर अलग राज्य ‘फ्रंटियर नागालैंड’ की मांग की गई तथा कर्नाटक के कलबुर्गी में कुछ लोग अलग राज्य की मांग को लेकर सड़कों पर उतर आए. पहले भी देश भर में अलग राज्यों की मांगें निरंतर उठती रही हैं, जैसे मणिपुर में कुकीलैंड, तमिलनाडु में कोंगुनाडु, उत्तरी बंगाल में कामतापुर, महाराष्ट्र में विदर्भ या कर्नाटक में तुलुनाडु.
भारत में पृथक राज्यों के आंदोलन सदैव दिशाभ्रम का शिकार रहे हैं. ये मुख्यतः तीन बिंदुओं पर आधारित रहे हैं, भाषायी, धार्मिक एवं नृजातीय. आजादी के पश्चात् पहले दो दशकों में राज्यों में सबसे प्रमुख विभाजनकारी मुद्दा भाषावाद था. कोई भी समाज अपनी भाषा से भावनात्मक लगाव रखता है तथा उसके रक्षार्थ एवं उसके सम्मान स्थापना हेतु की गई अपील पर वह त्वरित रूप से एकजुट हो जाता हैं. दक्षिण में ऐसा ही हुआ ज़ब तेलुगू भाषियों के दुर्घष आंदोलन के पश्चात् पृथक आंध्रा की स्थापना हुई.
भारत का नेतृत्व वर्ग अदूरदर्शी नहीं था. वह भविष्य की इन कठिनाईयों को भाँप गया था इसीलिए ऐसे विभाजनकारी मुद्दों के आधार पर राज्यों के गठन को तरजीह नहीं दी गई. राज्यों के पुनर्गठन हेतु सुझाव के लिए गठित ‘धर आयोग’ (1948) तथा ‘एस.आर.सी. आयोग’ (1953) ने प्रशासनिक एवं आर्थिक पहलुओं को समुचित महत्त्व देने की सलाह दी थीं. लेकिन बाद में उग्र आंदोलनों को ध्यान में रखकर तथा विघटनकारी प्रवृतियों को हतोत्साहित करने के लिए दिसंबर,1948 में गठित ज़े.वी.पी. समिति ने तात्कालिक रूप से भाषायी आधार पर राज्य पुनर्गठन की सलाह दी. एक नवगठित हो रहे राष्ट्र के तत्कालिक हित के नाम पर ऐसे मुद्दों पर नरम रुख अपनाया गया जिसका प्रतिफल यह हुआ कि क्षेत्रीय विघटनवादी स्वार्थी तत्वों को भविष्य में अपनी अनर्गल मांगो की प्रेरणा मिली और प्रतिफलस्वरूप कश्मीर, नागालैंड, मिजोरम तथा खालिस्तान के विघटनकारी विद्रोह उभरकर सामने आये.
धार्मिक एवं नृजातीय अपील भाषा से कहीं अधिक संकुचित एवं विघटनकारी होती है. इसके केंद्र में स्थित सांप्रदायिकता का पुट, इसकी गति एवं संबंधित समाज के संकेन्द्रण भावना को और तीव्र करता है. इन्हीं भावनाओं की तुष्टि हेतु 1966 में पंजाब, 1963 में नागालैंड, 1987 में मिजोरम का गठन हुआ. भाषायी आंदोलन को छोड़कर धार्मिक एवं नृजातीय आंदोलन देश के लिए विखंडनवादी रहे हैं. मुस्लिम लीग ने धार्मिक भावना के उभार कर देश का विभाजन कराया और इसी आधार पर खालिस्तान आंदोलन की नींव पड़ी. पूर्वोत्तर में अलग राज्य के निर्माण आंदोलन जो पूर्व में अलगाववादी रहे हैं जैसे नागा (1953) एवं मिजो विद्रोह (1963), नृजातीय आधार पर ही समर्थित थे और इसी आधार पर पृथक राष्ट्रीयता का दावा कर रहे थे.
भाषा क्षेत्रीयता एकता या राज्य गठन का आधार बन सकती है, यह बात पिछले पांच दशकों में गलत सिद्ध हो चुकी है. जिस तेलगु भाषी एकता के नाम पर आंध्रप्रदेश का गठन(1953) हुआ. उसके एक दशक बीतते-बीतते 1969 में पृथक तेलंगाना की माँग प्रारंभ हो गयी. जिसकी हिंसक और विभाजनकारी पूर्णाहुति 2014 में हुई. कहने का तात्पर्य है कि पृथकतावाद की यही समस्या है कि एक बार पैदा होने के पश्चात् यह किसी ना किसी रूप में जीवित रहती है तथा राजनीतिक स्वार्थपरता से इसे ऊर्जा मिलती रहती है. अन्यत्र भोजपुरी भाषी बिहार से अलग हुए झारखंड में तो बकायाद ‘बिहारी भगाओ’ की हिंसक मुहिम शुरू हो गई. महाराष्ट्र में विदर्भ की माँग भी मराठी तथा गुजरात से पृथक सौराष्ट्र की माँग गुजराती ही कर रहे हैं. उत्तर प्रदेश में पृथक उत्तराखंड हेतु आंदोलन का ख़ूनी इतिहास सर्वविदित हैं. वही पूर्वांचल की माँग भी हिंदी पट्टी का समाज ही कर रहा है. बल्कि दूसरी तरफ राष्ट्रीय भाषा के सम्बन्ध में दक्षिण में उपजा हिंदी विरोध आज लुप्त हो चुका है तथा पिछले दो दशकों में हिंदी की स्वीकार्यता वहां बढ़ी है.
हालांकि कई दफ़े ऐसे आंदोलनों को अनावश्यक तरजीह भी मिल जाती है. कुछ अति उत्साही वर्ग द्वारा की गई उत्तेजक माँगे अकसर असावधानी एवं राजनीतिक लाभ हेतु संपूर्ण राज्य या संपूर्ण समुदाय विशेष की आवाज़ मान ली जाती है. नागा विद्रोह का ही उदाहरण लें तो अपने उत्कर्ष के दिनों में भी पांच लाख की कुल नागा आबादी में से अधिकतम 10 हजार लोग ही अलगाववाद के समर्थन में थे. बल्कि बीतते समय के साथ यह संख्या और न्यून होती गई. इसका अर्थ हैं कि कुछ मुट्ठीभर भारत विरोधियों को क्षेत्र विशेष का जनप्रतिनिधि मानकर उनकी दुष्टतापूर्ण तर्कों के अनुरूप राष्ट्र का विखंडन स्वीकार किया जाना अनुचित होता. यही नहीं प्रमाणित हैं कि एक समय के बाद इन विघटनवादियों का अपने क्षेत्र एवं वर्ग में भी काफी विरोध हुआ है जो कई दफ़े प्रतिहिंसा का रूप ले लेता हैं. जैसे कश्मीरी अलगाववादियों के विरुद्ध स्थानीय मुसलमानों का संगठन ‘इख़्वान’ तथा वनवासी समुदाय का ‘सलवा जुडूम’ के रूप में नक्सलवादियों का हिंसक प्रतिकार करना.
इसके अतिरिक्त वर्तमान में प्रचलित ‘छोटे राज्यों का विकास की दृष्टि से अनुकूलता’ का तर्क स्वीकारना भी कठिन हैं. अगर ऐसा होता तो अब तक हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड एवं छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों को स्विट्जरलैंड बन चाहिए था किंतु यथार्थ ये है कि ये राज्य मानव विकास सूचकांक में शिक्षा, बाल मृत्यु दर, चिकित्सा जैसे कई पैमानों पर दयनीय स्थिति में हैं. नये राज्यों के गठन के साथ जनता के पैसे पर नई राजधानी का निर्माण, चुनाव, राज्यपाल की नियुक्ति, उनका वेतन व अन्य सुविधाएं जैसी कई राजनीतिक-आर्थिक दिक़्क़तें भी होंगी जिनका वहन अंततः जनता को करना होगा.
किंतु वास्तविकता यह है कि इनके मूल में राजनैतिक स्वार्थ है. छोटे राज्य राजनीतिक दलों के उठापटक और सत्ता परिवर्तन के प्रहसन के प्रदर्शन का माध्यम बन चुके है. उत्तराखंड में पिछले 20 साल में 8 मुख्यमंत्री बदले गये तथा झारखंड में 20 साल में 11 बार मुख्यमंत्री पद की शपथ हुई. वही हिमाचल प्रदेश में कई दशकों से दो परिवारों का राजनीतिक वर्चस्व चला आ रहा है.
1990 के बाद से अब तक ज्यादातर पृथक राज्य आंदोलनों का मूल आधार प्रशासनिक भेदभाव, विकास की असमानता एवं आर्थिक पिछड़ापन आदि है. 2000 में उत्तराखंड, झारखंड एवं छत्तीसगढ़ के गठन ने इन मुद्दों पर आधारित आंदोलनों को अपरोक्ष वैधता प्रदान की. इसी आधार पर बसपा सरकार (2007-12) द्वारा उत्तर प्रदेश को चार भागों में विभाजित करने की सिफारिश की गई. अगर इन मुद्दों का अवलोकन करें तो ‘धर आयोग एवं फजल अली आयोग की ‘प्रशासनिक सुलभता’ का सुझाव उचित ही था. यदि पूर्व में इसी सलाह को अपनाया गया होता तो परिस्थितियां अधिक अनुकूल होती.
फिर इस पिछड़ेपन के लिए स्थानीय जनता भी प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार सिद्ध होतीं हैं.उदाहरणस्वरूप 1949 में बंबई जिसमें आज के महाराष्ट्र और गुजरात जैसे उन्नत राज्य शामिल हैं कि प्रति व्यक्ति आय 272₹ थीं वही बिहार की 200₹ थीं. बाद के दशकों में इन राज्यों ने उन्नति की ओर कदम बढ़ाये और बिहार ने अवनति की ओर. सामाजिक क्रांति के नाम पर 80-90 के दशकों में बिहारी जनता ने ऐसे लोगों को सत्ता सौंपी जिन्होंने संभावनाओं से भरे एक राज्य को जंगल में बदल दिया. प्रतिनिधि चयन के समय विकासवाद से परे जाति, धर्म, क्षेत्रीयता आदि के क्षुद्र मनोभावों पर आधारित मतदान करने वालीं जनता को अपनी दुरावस्था के लिए देश की सरकार, अन्य राज्यों या शेष भारतीयों पर दोषारोपण करने का नैतिक अधिकार नहीं हैं.
अब उत्तर-पूर्वी राज्यों का उदाहरण ले तो भारतीय संविधान सभा आरंभ से ही वनवासी समुदाय के कल्याण हेतु तत्पर थी. उसने तक़रीबन 400 समुदायों, जिनकी आबादी कुल जनसंख्या का 7 फीसदी थीं, को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया तथा विधायिका (अनु.330 एवं 332) व सरकारी नौकरियों (अनु.335) में आरक्षण प्रदान किया. संविधान का भाग पांच केंद्रीय क्षेत्र और भाग छह पूर्वोत्तर के आदिवासी समाज से सम्बंधित है. इसके अतिरिक्त पूर्वोत्तर राज्यों को विशेष श्रेणी का दर्जा प्रदान करने के अतिरिक्त योजना एवं नीति आयोग ने केंद्रीय राजस्व से अतिरिक्त धन एवं अन्य सुविधाएं भी मुहैया कराई. माना वहां परिस्थितियां कठिन हैं किंतु पिछले सत्तर वर्षों से अधिक की अवधि में सीमित जनसंख्या की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति ना हों पाना तथा जनअसंतोष के पीछे सर्वप्रमुख कारण राजनीतिक अकर्मण्यता एवं भ्रष्टाचार ही है. इसकी कुछ जिम्मेदारी स्थानीय जनता की भी है जिसने प्रतिनिधि चयन में निरंतर गलतियां की हैं.
सबसे मुख्य प्रश्न आत्मनिर्णयन के अधिकार की विकृत व्याख्या का है. ऐसे मूर्खतापूर्ण विश्लेषण अंततः पृथकतावाद को ही प्रश्रय देते हैं. देश के किसी एक भूभाग में रहने वाले लोग उसके अधिष्ठाता अथवा स्वयंभु स्वामी नहीं होते जो ज़ब चाहें उसके पृथकता की माँग शुरू कर दें. राष्ट्र भूमि के टुकड़ों से नहीं बल्कि साझा सांस्कृतिक विरासत, समान इतिहास जैसे भावनात्मक बंधनों से बनता है. देश का हर हिस्सा शेष राष्ट्र से सहजीविता और साहचार्य की भावना से भी जुड़ा है. आत्मनिर्णयन की असंतुलित माँगे राष्ट्र की एकता के लिए घातक होतीं हैं. पृथक राज्यों की माँग कभी भी पृथक राष्ट्र की माँग में परिवर्तित हो सकती है. पंजाब इसका ज्वलंत उदाहरण है. सिख पंथ के सम्मान के नाम पर गठित पंजाब आज खालिस्तान आंदोलन का अखाड़ा बन गया है.
स्वतंत्रता से वर्तमान तक कि सर्वस्थिति अवलोकन से प्रतीत होता है कि अब तक नये राज्यों का गठन नीतिगत नहीं बल्कि भावनात्मक आधार पर ही हुआ है और इन भावनात्मक आंदोलनों के कारण देश ने बहुत कठिन समय का अनुभव किया हैं. असल में भाषा, धर्म अथवा नृजातीयता के आधार पर नये राज्यों की मांगों से जनित प्रदर्शनों को हिंसक और विघटनकारी स्वरुप प्रदान कर नेतृत्व वर्ग अपने लिए जनाधार बटोरने का लाभ तो ले लेते है परंतु इससे उत्पन्न नकारात्मकता को लंबे समय तक देश को भुगतना पड़ता है. अब समय है कि नित नये राज्यों की माँग से संबंधित आंदोलनो की परंपरा को हतोत्साहित किया जाये क्योंकि राजनीति से प्रेरित एवं उसके द्वारा प्रश्रय दिये गये संकुचित क्षेत्रीय स्वार्थी तत्व राष्ट्र के लिए विघटनकारी परिस्थितियां पैदा करेंगे. फिर भी यदि राज्यों का पुनर्गठन आवश्यक हो ही तो इसकी कसौटी प्रशासनिक अनुकूलता एवं विकास प्रतिमानों के साथ ही सांस्कृतिक-सामाजिक समन्वय होना चाहिए.