बड़ी मुद्दत के बाद भारत सरकार ने देश के किसानों को राहत देते हुए, उन्हें उनकी उपज के लागत पर 50 प्रतिशत जोड़कर न्यूनतम समर्थन मूल्य देने का फैसला लिया है। इस फैसले का स्वाभाविक रूप से कृषि क्षेत्र से जुड़े हुए लोगों ने स्वागत किया है, क्योंकि कृषि उत्पादन ही ऐसा क्षेत्र है, जहां किसान को कई बार उसकी लागत भी वसूल नहीं हो पाती। आंकड़े बताते हैं कि कृषि का योगदान जीडीपी में जो 1970-71 में 45 प्रतिशत था, अब घटकर मात्र 15 प्रतिशत रह गया है। किसानों की हालत बद से बदतर होती जा रही है। गांवों और शहरों में असमानताएं इतनी बढ़ गई हैं कि गांव और शहर में प्रतिव्यक्ति आय का अनुपात 1ः9 पहुंच चुका है।
क्यों जरूरी है न्यूनतम समर्थन मूल्य
न्यूनतम समर्थन मूल्य इसलिए तो जरूरी है ही कि किसानों की आमदनी बेहतर करनी है और यह इसलिए भी जरूरी है कि देश में कृषि उत्पादन को प्रोत्साहित करना है। आज किसान अपनी कम आमदनी के चलते अपनी जरूरतों को भी पूरा नहीं कर पा रहा है। ऐसे में किसान खेती छोड़ रहा है, उसकी पीढ़ी खेती नहीं करना चाहती। जाहिर है ऐसे में कृषि वस्तुओं की उपलब्धता कम हो सकती है। पिछले काफी समय से देश में गैर कृषि क्षेत्र में आमदनी बढ़ने के कारण खाद्य पदार्थों एवं अन्य कृषि उत्पादों की मांग काफी बढ़ गई है। ऐसे में उनकी कीमत भी बढ़ती जाती है, क्योंकि उनका उत्पादन मांग के अनुरूप नहीं हो पाता है। ऐसी स्थिति को खाद्य मुद्रास्फीति के नाम से जाना जाता है।
खाद्य मुद्रास्फीति देश में मजदूरी दर के बढ़ने का कारण बनती है। यही नहीं आम नागरिकों के लिए खाद्य पदार्थ उनकी पहुंच से बाहर हो जाते हैं। दूसरी तरफ अपनी उपज का सही मूल्य न मिलने के कारण किसान न केवल गरीब हो जाते हैं, बल्कि उन पर कर्ज का बोझ भी बढ़ता है। कर्ज से ग्रस्त होने पर पिछले डेढ़ दशक में अभी तक देश में 3 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। हाल ही के वर्षों में पहले वर्ष 2008 में पिछली यूपीए सरकार द्वारा लगभग 70 हजार करोड़ रुपए से भी अधिक की ऋण माफी योजना लाई गई। उसके बाद हालांकि केंद्र सरकार द्वारा ऐसी कोई योजना नहीं आई, लेकिन उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र आदि राज्य सरकारों ने कई ऋण माफी योजनाएं लागू की हैं। 5 जुलाई, 2018 को ही कर्नाटक राज्य की नई सरकार ने 34 हजार करोड़ रुपए की कृषि ऋण माफी योजना की घोषणा की है। ऋण माफी के कारण सरकारी खजाने पर भारी बोझ भी पड़ता है। किसानों को ऋण ग्रस्तता से राहत देना जरूरी भी होता है। अन्यथा वे इसके कारण भारी दबाव में आ जाते हैं, जो उनकी आत्महत्याओं का कारण बनता है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या किया जाए कि किसान ऋण ग्रस्त ही न हों। इसके लिए जरूरी है कि उनको उनके उत्पादन का उचित मूल्य मिले। यदि उन्हें लागत के अतिरिक्त 10 प्रतिशत मिलता है और उससे उनकी आमदनी 1000 रुपए होती है, लेकिन इसके बदले यदि उन्हें लागत के अतिरिक्त 50 प्रतिशत मिले, तो उनकी निवल आमदनी 5000 रुपए हो जाएगी। यानी 5 गुणा वृद्धि। जाहिर है उत्पाद का उचित मूल्य नहीं मिलने के कारण किसान बीज, खाद, कीटनाशक आदि के लिए कर्ज लेने को मजबूर हो जाता है। यानी यदि संजीदगी से सोचें, तो किसान को उसकी उपज का सही मूल्य, उसको कर्ज में डूबने से भी बचाता है।
कितना बढ़ा न्यूनतम समर्थन मूल्य?
भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के लोकसभा चुनावों में अपने चुनाव घोषणा-पत्र में यह वादा किया था कि उनके शासनकाल में किसानों को उनकी लागत से 50 प्रतिशत ज्यादा न्यूनतम समर्थन मूल्य उपलब्ध करवाया जाएगा। सरकार के पहले चार साल में यह लक्ष्य पूरा नहीं किया जा सका, लेकिन अंतिम वर्ष में अपने वादे को पूरा करते हुए सरकार ने खरीफ मौसम के विभिन्न कृषि उत्पादों का न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाया है। सामान्य धान में यह वृद्धि 13 प्रतिशत, ज्वार में 43 प्रतिशत, बाजरा में 36.8 प्रतिशत और मूंग में यह वृद्धि 25 प्रतिशत की गई है। हालांकि सभी उत्पादों में बी-2 लागत और पारिवारिक श्रम लागत को मान्य करते हुए, उस पर 50 प्रतिशत अधिक मूल्य देने का निर्णय सरकार ने किया है। यानी कुल मिलाकर पहले से कहीं ज्यादा न्यूनतम समर्थन मूल्य किसान को इस खरीफ मौसम से मिलने वाला है। इस वृद्धि से हालांकि विपक्षी राजनीतिक नेताओं ने कोई विशेष खुशी जाहिर नहीं की है, लेकिन किसानों में थोड़ा खुशनुमा माहौल जरूर बना है।
क्या समर्थन मूल्य बढ़ाने से बढ़ती है महंगाई?
सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने से किसानों की हालत बेहतर होगी, इसमें कोई संदेह नहीं है, लेकिन इस बात को लेकर कुछ अर्थशास्त्री यह चिंता व्यक्त कर रहे हैं कि इस निर्णय से महंगाई, खासतौर पर खाने-पीने की चीजों में महंगाई बढ़ेगी। यह अर्थशास्त्री शायद भारत की कृषि मूल्यन और उसके साथ महंगाई के रिश्तों के बारे में भली-भांति परिचित नहीं हैं और केवल सरकार द्वारा ज्यादा कीमत दिए जाने और उसके कारण कृषि वस्तुओं की कीमतें बढ़ने की गणित को ही विश्लेषित कर रहे हैं। वास्तविकता यह है कि कटाई के एकदम बाद कृषि वस्तुओं की आपूर्ति बाजार में अचानक बढ़ जाती है।
ऐसे में मंडियों में कृषि वस्तुओं की कीमतें यथोचित मांग के अभाव में एकदम कम हो जाती हैं। पिछले लगभग 6 दशकों से इस परिस्थिति से किसान को बचाने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाता रहा है, ताकि कटाई के एकदम बाद किसान को कम कीमत मिलने की त्रासदी से बचाया जा सके। ऐसा अभी तक का अनुभव है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलने के आश्वासन से किसान ज्यादा मेहनत से काम करता है और ज्यादा उत्पादन करता है। ऐसे में बाजार में कृषि वस्तुओं की आपूर्ति बढ़ती है और ज्यादा उपलब्धता होने के कारण भविष्य में कृषि वस्तुओं की कीमतें बढ़ नहीं पाती और आमजन को कृषि वस्तुएं उचित मूल्यों पर उपलब्ध होती रहती हैं। इसलिए न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने से कीमतों में वृद्धि होने का तर्क गलत है। कई अर्थशास्त्रियों एवं एजेंसियों ने शोध किए हैं और यह सिद्ध किया है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने से महंगाई नहीं बढ़ती। इन अर्थशास्त्रियों में प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. केयू गोपाकुमार एवं प्रो. वीएन पंडित तथा एजेंसियों में आईएमएफ, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया आदि शामिल हैं। कुछ अर्थशास्त्रियों का तो यह भी कहना है कि इससे वास्तव में महंगाई कम हो जाती है।
क्या सरकार पर पड़ता है अतिरिक्त भार?
कुछ अर्थशास्त्री न्यूनतम समर्थन मूल्यों के कारण सरकार के खर्च बढ़ने को लेकर यह तर्क देते हैं कि इससे सरकार पर अतिरिक्त बोझ पड़ेगा। अगर गंभीरता से सोचा जाए, तो यह बात भी सही नहीं है। पिछले काफी समय से किसानों की लगातार बदतर होती हालत के कारण सरकारें किसानों के गुस्से को शांत करने के लिए कर्ज माफी की स्कीम बार-बार लेकर आती रही हैं। किसान ऋणग्रस्त इसलिए होते हैं, क्योंकि उनकी आमदनी कम होती है। ऐसे में जब किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य मिलेगा, तो उनमें ऋणग्रस्तता की समस्या भी कम हो जाएगी। ऐसे में इन ऋण माफी योजनाओं की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। किसी भी प्रकार से किसान को उसकी उपज का लाभकारी मूल्य देना, ऋण माफी से कहीं बेहतर विकल्प है। इसलिए किसान को उसकी उपज का लाभकारी मूल्य देने से सरकार पर खर्च का बोझ बढ़ता नहीं, बल्कि कम हो जाता है।
साभार : स्वदेशी पत्रिका