साल 1946 में सरदार बल्लभ भाई पटेल की अपील पर खेड़ा के दुग्ध उत्पादक 15 दिन की हड़ताल पर चले गए। यह आंदोलन निजी पोलसन कंपनी को दूध खरीदने के अधिकार के विरोध में था। इस आंदोलन की वजह से यह आदेश वापस लेना पड़ा। यहां से सहकारिता के क्षेत्र में एक इतिहास बनने जा रहा था। यहां के दो गांव के दो दुग्ध उत्पादक समितियों का पंजीकरण हुआ। साल था 1946 । कुछ समय बाद 14 दिसंबर 1946 को खेड़ा जिला सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ का अमूल के नाम से पंजीकरण हुआ।
प्राथमिक समितियों को ज्यादा सहायता के लिए प्रांतीय बैंको का पुनर्गठन की सिफारिश की गई। यह सिफारिश साल 1947 के रजिस्ट्रारों के सम्मेलन में की गई। इसका उद्देश्य था केन्द्रीय बैंकों के जरिए प्राथमिक समितियों की सहायता। पहली बार प्रभावी ढंग से ऋण को विपणन के साथ जोड़ा गया। बड़ी संख्या में गोदामों और प्रसंस्करण संयंत्रों को स्थापित करने के लिए सहायता देने पर विचार किया गया।
पहली पंचवर्षीय योजना में भी सहकारिता आंदोलन पर बल दिया गया। इसमें पंचायतें और सहकारी समितियां इसके आधार थे। शहरी सरकारी बैंकों, मजदूरों की औद्योगिक सहकारी समितियां, उपभोक्ता सहकारी समिति, आवास सहकारी समिति। इसके साथ ही सहकारी प्रशिक्षण और शिक्षा के जरिए ज्ञान के प्रसार की प्रसार की व्यवस्था की। साथ ही यह सिफारिश भी की गई की प्रत्येक विभाग सहकारी समितियों के निर्माण की नीति का अनुसरण करे।
साल 1951 में सरकार ने गोरवाला समिति की नियुक्ति की। इसे अखिल भारतीय ग्रामीण ऋण सर्वेक्षण समिति के नाम से जानते हैं। 1954 समिति ने अपनी रिपोर्ट दी। रिपोर्ट के मुताबिक देश के बड़े हिस्से में सहकारी समितियों का प्रसार नहीं है। साथ ही समिति को और भी कई कमियां ध्यान में आईं। समिति ने इसके बाद ग्रामीण ऋण की समेकित व्यवस्था करने की सिफारिश की। साथ ही उनके मंडलों में सहकारी नामांकित सदस्यों की नियुक्ति की भी सिफारिश की। समिति ने पाया कि प्रशिक्षण की जरूरत है। भारतीय स्टेट बैंक की स्थापना भी एक प्रमुख सिफारिश थी।
परिणाम यह रहा कि सरकार ने गोरवाला समिति की सिफारिश को स्वीकार किया। केन्द्र सरकार ने इंपीरिल बैंक में बडा हिस्सा प्राप्त किया। यही नहीं सहकारी ऋण समितियों के निर्माण में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए रिजर्व बैंक आफ इंडिया अधिनियम में संशोधन किया गया।पटना में अखिल भारतीय सहकारी सम्मेलन हुआ। साल था 1956। इस सम्मेलन में राज्य की प्रतिभागिता और निदेशक मंडल में सरकारी प्रतिनिधित्व के सिद्धांत को स्वीकार किया गया।
दूसरी पंचवर्षीय योजना में भी सहकारिता क्षेत्र पर बल दिया गया। अखिल भारतीय ग्रामीण ऋण सर्वेक्षण समिति की सिफारिशों के आधार पर योजना ने सरकारी विकास कार्यक्रमों की रूपरेखा तैयार की। यह कल्पना की गई कि गांव का प्रत्येक परिवार कम से कम एक सहकारी समिति का सदस्य होगा। किसानों को बेहतर सेवाएं उपलब्ध कराने के उद्देश्य से ऋण तथा ऋणेत्तर समितियों को जोड़ने का लक्ष्य रखा गया। सहकारी समितियों में राज्य की विभिन्न स्तरों पर भागीदारी का मुख्य उद्देश्य, हस्तक्षेप या नियंत्रण करने की अपेक्षा, उनकी सहायता करना था। सहकारी समितियों ने राज्य की भागीदारी लागू करने के लिए योजना में दीर्घकालीन राष्ट्रीय कृषि ऋण प्रचालन निधि की स्थापना की सिफारिश की। इस अवधि में केन्द्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय सहकारिता विकास निधि की स्थापना की गई। इससे देश में ऋणेतर सहकारी समितियों की शेयर-पूंजी में हिस्सेदारी के लिए राज्य ऋण ले सकें।
सन् 1956 के औद्योगिक नीति प्रस्ताव ने औद्योगिक और कृषि उद्देश्यों के लिए और विकासशील सहकारी क्षेत्र के निर्माण के लिए सहकारी आधार पर आयोजित उद्यमों को राजकीय सहायता की आवश्यकता पर बल दिया।
सन् 1936 में श्री एस.टी. राजा की अध्यक्षता वाली सहकारी निधि पर बनाई गई समिति ने राज्य सरकारों के विचारार्थ माॅडल बिल की सिफारिश की। सहकारी क्षेत्र को प्रभावित करने वाला इस समय का महत्वपूर्ण विकास था राष्ट्रीय विकास परिषद का प्रस्ताव (1958)। सहकारिता नीति के प्रस्ताव ने इस बात पर बल दिया कि सहकारी समितियां ग्रामीण समुदाय के आधार पर प्राथमिक ईकाई के रूप में संगठित की जाएं और ग्राम सहकारी समिति तथा पंचायत के बीच गहरा समन्वय होना चाहिए। इस प्रस्ताव ने यह सिफारिशों के परिणामस्वरूप कई राज्य सरकारों ने अपने अधिनियमों में संशोधन किए।