संविधान को जानें। मैं आपसे एक सवाल पूछूं, हम संविधान को क्यों जानें? सवाल कई तरह के होते हैं। कई बार सवाल इसलिए भी पूछे जाते हैं कि जो पूर्व स्थापना होती है, उसे खारिज करना है। सवाल इसलिए भी पूछे जाते हैं कि उससे जिज्ञासा पैदा होती है। सवाल इसलिए भी होते हैं कि कुछ बातों को हमें नकारना है। यहां जो सवाल मैंने आपके सामने रखा है कि संविधान को क्यों जानें, तो मैं कहना चाहूंगा कि संविधान को इसलिए जानना जरूरी है क्योंकि हम जहां भी हैं, अपने मोहल्ले में, अपने घर में या स्कूल, कालेज में या विश्वविद्यालय में या जहां भी हैं- उसका संबंध संविधान से है। जिस शासन प्रणाली में हम जी रहे हैं उसका जो मूल ग्रंथ है वह संविधान है। मेरा परिचय कराते हुए भी संविधान का उल्लेख आया। आपको बताया गया कि संविधान बाइबिल, वेद, गीता और कुरान सरीखा है। मूलतः इससे मैं अपनी असहमति जता दूं कि भारत का संविधान शास्त्र, बाइबिल, कुरान की श्रेणी में नहीं आता। संविधान को जानने का यह भी एक बिंदु है।
पहला सवाल यह है कि संविधान होता क्या है? इसकी अनेक परिभाषाएं की गई हैं। सम्यक विधान को अनेक राजनीति शास्त्री संविधान कहते हैं। जिसका संबंध शासन प्रणाली से होता है। हमारा संविधान भी कुछ आदर्शों से प्रेरित शासन प्रणाली चलाने के लिए बनाया गया, यह दावा किया जाता है। दूसरा सवाल यही है कि क्या यह वास्तविकता है? इन सवालों से परे यह जान लें कि आज संविधान हमारे जीवन को नियंत्रित करता है। जो आज की राजनीतिक व्यवस्था है उसके मूल में संविधान है। संविधान हमारे जीवन में मायने रखता है। क्यों मायने रखता है? क्योंकि भारतीय जन-जीवन के नियम उससे निकलते हैं। उससे संस्थाएं निकलती हैं। चाहे संसद हो, चाहे न्यायपालिका हो या जो नरेंद्र मोदी की सरकार है और उसी तरह से जो राज्यों में सरकारें हैं, वे इस संविधान से निकलती हैं।
जब संविधान का दायरा इतना बड़ा हो और आजकल परिवार भी संविधान से तय हो रहे हों तब संविधान का महत्व बढ़ जाता है। वह सर्वव्यापी हो जाता है। आप कैसे रहें, यह संविधान से तय हो रहा है। जब संविधान का इतना व्यापक फलक हो, तब मैं कहूंगा कि उस संविधान को जानना जरूरी है। यह जो संविधान है वह 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ। कुछ लोगों को यह लगता है कि 26 जनवरी 1950 को जो संविधान लागू हुआ, वह संविधान सभा का बनाया हुआ है। यह धारणा बनी हुई है कि उसे बनाने में करीब तीन साल लगे। इस धारणा की पुष्टि के लिए हमें तारीखें गिनाई जाती हैं। जैसे यह कि संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर, 1946 को हुई। उसकी आखिरी बैठक की तारीख 26 नवंबर, 1949 है। इसी आधार पर कहा जाता है कि संविधान बनाने में बड़ा वक्त लगा।
ये तारीखें सही हैं। इन तारीखों के अलावा कुछ बातें और मैं जोड़ देता हूं। संविधान के प्रारूप में 25 सौ संशोधन आए। संविधान में 395 धाराएं बनी। 12 अनुसूची बनी। इस तरह यह दावा बड़े गर्व से किया जाता है कि हमने एक विशाल संविधान बनाया जो दुनिया में सबसे बड़ा है। ऐसी बातें बताकर संविधान पर एक मिथक खड़ा किया जाता है। संविधान का एक यथार्थ है। संविधान का एक मिथक है। तीसरा है-संविधान का महिमामंडन। हमें संविधान का सच जानना है। जो मिथक और महिमामंडन के परे है। संविधान का सच अगर जान लें तो उसका यथार्थ समझने में आसानी हो जाएगी। इसे जानने के लिए यह सवाल उठाया जाना चाहिए कि क्या संविधान सभा ने मौलिक संविधान बनाया?
यह सच है कि स्वतंत्रता संग्राम की जो लड़ाई थी वह एक राष्ट्रीय आंदोलन था। स्वाधीनता का आंदोलन था। उसके दो लक्ष्य थे- अंग्रेजों से आजादी और स्वराज की स्थापना। क्या मैं आपसे यह सवाल पूछूं कि राष्ट्रीय आंदोलन का जो लक्ष्य था वह इस संविधान में परिलक्षित होता है? क्या वह लक्ष्य इस संविधान में प्रकट होता है? क्या वह लक्ष्य इस संविधान में कहीं न कहीं निहित है? राष्ट्रीय आंदोलन के लक्ष्य को पाने के लिए संविधान बनाया जाना चाहिए था। राष्ट्रीय आंदोलन का जो सबसे बड़ा व्यक्ति हुआ है उसे हम महात्मा गांधी के नाम से जानते हैं जिसे हम प्रेम से बापू कहते हैं। बापू ने 1920-21 के बाद से और 1947 तक राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व किया। उनके नेतृत्व का मूल मंत्र था- हम आजादी पाएंगे स्वराज के लिए। जो पहला सवाल इस संविधान को जानने-परखने का है कि क्या वह स्वराज इस संविधान में कहीं है? क्या यह संविधान स्वयं में कहीं स्वराज को स्थान देता है।
अगर अहिंसा-हिंसा और सत्याग्रह की कसौटियां छोड़ दें तो, मेरी नजर में राष्ट्रीय आंदोलन की दो धाराएं हैं। 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ उसमें वे दोनों धाराएं मिलती नहीं हैं। एक धारा विलुप्त होती है और दूसरी का उदय होता है। वे दो धाराएं कौन सी हैं? मेरा कहना है कि एक धारा नेहरू की है, तो दूसरी धारा गांधी की थी। वह धारा जो जनसागर में मिल गई वह नेहरू की थी। जो विलुप्त हो गई वह गांधी की धारा थी। नेहरू की धारा ने ही इस देश के संविधान को बनाया। संविधान के अध्येताओं ने इसे विस्तार से बताया है। गांधी के जो सपने थे वे संविधान में जगह नहीं पा सके। नेहरू ने जो सोचा वह संविधान में प्रकट हुआ।
यह जो संविधान बना इसकी तारीख वगैरह के बारे में आपको बाद में बताऊंगा। यह जानना ज्यादा जरूरी है कि यह संविधान अंग्रेजों के चलाए हुए संविधानवाद की फसल है। यह अंग्रेजों का चलाया हुआ संविधानवाद क्या है? किस तरह से हमारे ही नेताओं ने अंग्रेजों के चलाए संविधानवाद के जाल में स्वयं को फंसाया? इसकी एक लंबी कहानी है।
जब अंग्रेजों ने यह देखा कि देश में राष्ट्रीयता का उभार हो रहा है तो उन्हें अपने लिए खतरा महसूस हुआ। उससे बचने के लिए अंग्रेज शासकों ने संविधानवाद का जाल फेंका। जिसमें हमारे नेता फंसते चले गए। हमारे नेताओं को लगता था कि स्वराज की कुंजी संविधान में है। इसलिए वे संविधान की मांग अपने हर मंच से करने लगे। उसी मांग का परिणाम था कि अंग्रेजों ने संवैधानिक सुधार के कदम उठाने और राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं को यह आभास दिलाने के प्रयास किए कि वे उनकी मांगें मान रहे हैं।
सच तो यह है कि अंग्रेजों ने अपने साम्राज्यवादी हितों के लिए संविधानवाद की अवधारणा पैदा की। इससे वे तीन प्रकार के अपने हितों को साधना चाहते थे। पहला यह था कि संविधानवाद अगर बढ़ता है तो उनके उपनिवेश स्वशासन के अंग्रेजी जाल में फंसते जाएंगे। इस तरह वे देश अपनी जड़ों से दूर होकर साम्राज्यवाद के अंग किसी न किसी प्रकार से बने रहेंगे। आजादी की लड़ाई का वह अपने की तरफ मोड़ने का अंग्रेजी प्रयास था। दूसरा लक्ष्य उनका यह था कि अगर उनके उपनिवेश स्वतंत्र हो भी जाए तो भी उनके प्रभाव के दायरे में ही बने रहें। अंग्रेजों ने जो संविधानवाद चलाया उसका खाका इसी लक्ष्य से प्रेरित था। भारत में वे अपने लक्ष्य में सफल भी रहे।
तीसरा मकसद उनका विचारधारात्मक था, जो औद्योगिक क्रांति की वैचारिक देन थी। इसमें ही उदारवाद, उपयोगितावाद, संसदीय लोकतंत्र, मुक्तबाजार, व्यक्ति स्वातंत्र्य के विचार को साम्राज्यवाद के खांचे में बैठाने का प्रयास करते रहे। अंग्रेजों के लिए तो यह बहुत स्वाभाविक था। उनका हित इसी बात में था। लेकिन उसका प्रभाव भारत के नेताओं पर भी पड़ा। स्वाधीनता आंदोलन के जो नेता लंदन से पढ़कर आए उनमें से ज्यादातर इन विचारों की छाया में चलने लगे। कुछ अपवाद भी थे। जो इन विचारों की छाया में चले उनके ही नेतृत्व में संविधान बनाने की लड़ाई लड़ी गई। असल में वह ब्रिटेन के साम्राज्यवादी संविधानवाद का मायाजाल था। उन नेताओं के मन में यह गहरे पैठा हुआ था कि ब्रिटेन के नेतृत्व की यूरोपीय व्यवस्था श्रेष्ठ है, आधुनिक है और ऊंची है। संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप का कथन है कि उस माया जाल में फंसकर ‘हमने ब्रिटेन का औपनिवेशिक माडल अपनाया। यह बहुत बड़ा भ्रम है कि हमने ब्रिटिश शासन प्रणाली अपनाई।’ इसका कारण वे यह बताते हैं कि ‘शुरू से कांग्रेस के प्रस्ताव इस भावना से होते थे कि हमें वैसे ही अधिकार और संस्थाएं चाहिए जो ब्रिटेन में हैं।’ पर भारत को वे संस्थाएं नहीं मिली। जो मिला वह औपनिवेशिक ढांचा है।…………………….अगली कड़ी में हम पढ़ेगें …. परिणाम यह हुआ कि यूरोप में उभरी अनेक विचारधाओं की छाया स्वाधीनता आंदोलन पर वैचारिक रूप में पड़ी। साम्यवाद, नानारूप में समाजवाद और पूंजीवाद उसी वैचारिक प्रवाह से निकली धाराएं हैं। वे आज भी देखी जा सकती हैं ……………