यूं तो सिंदूर लगाना अब केवल मान्य संस्कारिक रिवायत है। क्रमशः हिंदुओं में यह प्रतीकात्मक भी हो गई। मगर इंदौर के परिवार कोर्ट के न्यायाधीश ने कुछ गंभीर निर्णय दिया कि इसे मांग में लगाना विवाहिता की आस्था से जुड़ा कर्तव्य है।
इस प्रकरण से चंद प्रसंग और प्रश्न उठते हैं ! फिर शादीशुदा पुरुष की पहचान क्या है ? या उसे जरूरत ही नहीं है ? नतीजन वह प्यार की आड़ में नारी को भ्रमित कर सकता है। एक खास मसला यह भी है कि कई प्रदेशों में मंगलसूत्र का रिवाज ही नहीं है। जैसे बंगाल और पंजाब में।
आखिर नारी श्रृंगार के इस रंगीन चूर्ण का असली महत्व है क्या ? कब उठा ? अमूमन यह सब एक लाल या नारंगी रंग का सौन्दर्य प्रसाधन होता है। इसे भारतीय उपमहाद्वीप में महिलाएँ प्रयोग करती हैं। हिन्दू, बौद्ध, जैन और कुछ अन्य समुदायों में विवाहित स्त्रियाँ इसे अपनी माँग में पहनती हैं। इसका प्रयोग बिन्दियों में भी होता है।
सिंदूर की खोज भारतीय इतिहास में 600 ईस्वी में माता सीता ने लगाया था। माँ पार्वती भगवान शिव के लिए सिंदूर लगाती थीं। इसकी खोज 1994 में मैक्सिकन पुरातत्वविद् अर्नोल्डो गोंजालेस क्रूज़ ने की थी। यह एक चमकीला सा चूर्ण होता है इसे विवाहित स्त्रियाँ अपनी माँग में भरती हैं। यह प्रथा 5000 वर्ष पूर्व से ही प्रचलित है। यह सुहागन का सबसे बड़ा एवं आकर्षक श्रृंगार माना जाता है। सिंदूर सबसे पहले शादी वाले दिन ही लगाया जाता है और उसके बाद यह श्रृंगार का हिस्सा बन जाता है। ऐसी मान्यता है कि सिंदूर लगाने से न केवल विवाहित महिला के पति की रक्षा होती है बल्कि उसे बुराइयों से भी बचाया जा सकता है। सिंदूर लाल, गुलाबी, केसरिया रंग का होता है।
इसका एक वैज्ञानिक पहलू भी। पुरुषों के मुकाबले महिलाओं का ब्रह्मरंध्र यानी मस्तिष्क का उपरी भाग बहुत ही संवेदनशील और कोमल होता है। यह वही स्थान हैं जहां महिलाएं सिंदूर लगाती हैं। सिंदूर में मौजूद तत्व इस स्थान से शरीर में मौजूद विद्युत ऊर्जा को नियंत्रित करती है। इससे बाहरी दुष्प्रभाव से भी बचाव होता है। सिंदूर में पारा धातु की अधिकता होती है जिससे चेहरे पर झुर्रियां नहीं पड़ती हैं। इससे महिलाओं की बढ़ती उम्र के संकेत नजर नहीं आते हैं।
सिन्दूर की उत्पत्ति का पता प्राचीन काल में हुआ था। जब इसे हल्दी और केसर से बनाया जाता था। समय बीतने के साथ, सिन्दूर की संरचना बदल गई है और अब यह आमतौर पर सिन्दूर पाउडर से बनाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि सिन्दूर का लाल रंग प्रेम, उत्साह और दृढ़ता का प्रतीक है, जो इसे हिंदू विवाह के लिए एक उपयुक्त प्रतीक बनाता है। यूं भी दुल्हन के माथे पर सिन्दूर लगाने का कार्य भी एक आशीर्वाद माना जाता है। यह जोड़े को सौभाग्य और समृद्धि प्रदान करता है और दुष्ट आत्माओं को दूर रखता है, जोड़े को नुकसान से बचाता है। इसलिए, सिन्दूर न केवल प्रेम और भक्ति का प्रतीक है, बल्कि नवविवाहित जोड़े के लिए सुरक्षा और आशीर्वाद का स्रोत भी है।
सिंदूर लगाने की प्रथा हिन्दू धर्म में बहुत समय से चली आ रही है और इसका उल्लेख रामायण काल में मिलता है। कहा जाता है माता सीता रोज श्रृंगार में मांग में सिंदूर भरती थीं।
एक बार हनुमानजी ने माता सीता से पूछा आप सिंदूर क्यों लगाती हैं तो माता ने बताया इससे भगवान राम को प्रसन्नता मिलती है। प्रसन्न होने से शरीर स्वस्थ रहता है और स्वस्थ होने से व्यक्ति की आयु भी बढ़ती है। मान्यताओं के अनुसार, यदि पत्नी के बीच मांग सिंदूर लगा हुआ है तो उसके पति की अकाल मृत्यु नहीं हो सकती है। सिंदूर उसके पति को संकट से बचाता है।
मुख्य रूप से सिंदूर दो तरह के होते हैं। प्राकृतिक और दूसरा कृत्रिम सिंदूर। प्राकृतिक सिंदूर को पौधों से प्राप्त किया जाता है। जबकि कृत्रिम सिंदूर को कई तरह के केमिकल से मिलाकर तैयार किया जाता है। प्राकृतिक सिंदूर का मुख्य स्त्रोत कमीला का पौधा होता होता है। इनके फल के सूख जाने के बाद उसके अंदर मौजूद बीजों को निकाल लिया जाता है। उन्हें अच्छी तरह से सुखा लिया जाता है। फिर उनको पीसकर पाउडर बना दिया जाता है। कमीला के बीजों से बना यह पाउडर ही असली और प्राकृतिक सिंदूर होता है। कमीला के फूलों का रंग हल्का बैंगनी होता है और इसके फल गुच्छों में लगते हैं। कमीला के पौधों से केवल सिंदूर ही नहीं बल्कि प्राकृतिक लिपस्टिक भी बनाई जाती है। इससे बनने वाले सिंदूर और लिपस्टिक के कोई साइड इफेक्ट नहीं होते हैं।
मगर कल (22 मार्च) इंदौर के न्यायाधीश ने नयी बहस चालू कर दी। सिंदूर नहीं लगाने और पति से पांच साल से अलग रहने के मामले में पति के पक्ष में फैसला सुनाते हुए जज ने कहा “सिंदूर लगाना सुहाग की निशानी है और ऐसा नहीं करना पति के साथ क्रूरता की श्रेणी में आता है। वहीं पत्नी के तमाम आरोपों को खारिज करते हुए पति के पास लौटने का आदेश दिया है।”सिंदूर की भांति आदिवासी इलाका मेघालय तथा अत्याधुनिक अमेरिका में एक नए रिवाज के प्रचलन ने हलचल मचा दी है। स्वागतयोग्य है। अब संतान को मां के कुलनाम से जाना जाएगा। अमेरिका में तो पति भी पत्नी का कुलनाम अपने नाम में जोड़ रहे हैं। समरसता को बोध हो रहा है। मेघालय से खासी की जनजाति परिषद ने निर्णय किया है कि मां के नाम से ही शिशु जाना जाएगा। तभी मान्य प्रमाण पत्र जारी किया जाएगा। अब दो अन्य जनजातियों गारों तथा जैंतिया भी इसी का अनुमोदन करेंगी। इसे अपनाएंगी।