संविधानवाद के उतार-चढ़ाव में वर्ष 1935 मील का पत्थर है। उससे जो हमारी संवैधानिक यात्रा शुरू हुई, वह इतिहास के अगर-मगर से भरी पड़ी है। स्वतंत्र भारत के निर्माताओं से कहां चूक हो गई? क्या नेहरू ने परिस्थिति को समझने में भयंकर भूलें की? अगर वे मुस्लिम लीग की बात मान लेते तो जिन्ना बदल जाते? फिर जिन्ना पाकिस्तान की मांग नहीं करते? भारत विभाजन नहीं होता? क्या भारत विभाजन के लिए संविधानवाद उतना ही बड़ा कारक है, जितना नेहरू का अयथार्थ और अपरिपक्व राजनीतिक अड़ियलपन? ऐसे और भी अनेक महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर की प्रतीक्षा में हैं। इन प्रश्नों को आज जबकि कई दशक बीत गए हैं, पंडित जवाहरलाल नेहरू की जीवनियों से समझने का एक प्रयास इस छोटे से आलेख में है। भारत सरकार के प्रकाशन विभाग के आग्रह पर नेहरू के मित्र और पत्रकार एम. चेलापति राव ने आधुनिक भारत के निर्माता शृंखला में ‘जवाहरलाल नेहरू’ लिखा। यह नेहरू की जीवनी है। इसमें उन्होंने उस समय के दूसरे प्रश्नों पर ज्यादा ध्यान दिया है। लेकिन माइकल ब्रेशर और बी.आर. नंदा ने उस समय के इतिहास को अत्यंत महत्वपूर्ण माना है।
1935 से राजनीति ने जो-जो करवटें ली, उसके केंद्र में चूंकि जवाहरलाल नेहरू ही थे, इसलिए इन जीवनी लेखकों ने तथ्य खोजे। उन्हें प्रस्तुत किया। उसकी कारण मीमांसा की। इन्हें पढ़ते हुए उस दौर में लौटकर पहुंचना संभव है। उस समय की पेचीदगियों को ब्रेशर की पुस्तक ‘नेहरू-ए पोलिटिकल बायोग्राफी’ और बी. आर. नंदा की पुस्तक ‘जवाहरलाल नेहरू-विद्रोही व राजनेता’ को पढ़कर जाना जा सकता है। उस उथल-पुथल में नेहरू कहां खड़े हैं। वे क्या सोचते थे। जो-जो निर्णय उन्होंने किए और कांग्रेस से करवाए, उसके तर्क क्या थे? क्या वे सही थे? इन दो लेखकों की भाषा और शब्द रचना में अंतर है। लेकिन निष्कर्ष समान है। वह यह कि ‘बाद के इतिहास की रोशनी में लगता है कि नेहरू का आशावाद अपरिपक्व था।’ हाउस आॅफ कॉमंस में जब 1935 के विधान के लिए विधेयक आया तब जाड़े के दिन थे। विधेयक अपनी प्रक्रिया पूरी कर विधान बना। वही भारत शासन अधिनियम, 1935 कहलाया। साइमन कमीशन, तीन चक्रों के राउंड टेबल, स्वेत पत्र और ब्रिटिश ससंद की संयुक्त प्रवर समिति से गुजर कर जो विधेयक बना था, वही भारत अधिनियम 1935 कहलाया। उसकी मोटी-मोटी बातों को समझने से पहले यह जानना जरूरी है कि तब नेहरू कहां थे? जवाहरलाल नेहरू जेल में थे। अपनी आत्मकथा लिख रहे थे।
हिन्दी में वह ‘मेरी कहानी’ के नाम से मशहूर है। इस बारे में वह आत्मकथा बहुत मदद नहीं करती। कुछ संकेत जरूर उसे पढ़ते हुए मिल जाते हैं। 1934 से 1935 के बीच नेहरू जेल में थे। वहीं उन्होंने इसे लिखा। उस समय भारत अधिनियम, 1935 आ गया था। नेहरू ने समझ लिया था कि उसके आधार पर एसेंबली के चुनाव होंगे। अपनी आत्मकथा में वे कुछ प्रश्न खुद से पूछ रहे हैं। जैसे- क्या ब्रिटिश साम्राज्यवादी नीति और हमारे राष्ट्रीय हित में कोई महत्वपूर्ण विरोध नहीं है? स्वतंत्रता क्या हम केवल साम्राज्यवादी नीति को कायम रखने के लिए ही चाहते हैं? इन दो प्रश्नों को वे स्पर्श कर चुप हो जाते हैं। जेल में रहने के कारण उनकी कुछ सीमाएं भी थीं। वे हलचलों से दूर थे। जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने इन प्रश्नों पर काफी कुछ कहा और वे बातें इतिहास में दर्ज भी हैं। नेहरू यह तो समझ रहे थे कि ब्रिटिश साम्राज्य से भारत की स्वतंत्रता प्राप्त करना तभी संभव है जब ‘बल प्रयोग का कारगर दबाव’ बनाया जा सके। इतना बड़ा दबाव कि जिससे अंग्रेज झुक जाएं। वे सही थे। इस विचार पर अमल क्या संवैधानिक प्रक्रियाओं से संभव था? यही वह प्रश्न है जहां नेहरू का नेतृत्व उत्तर दे नहीं पाता।
क्या भारत विभाजन के लिए संविधानवाद उतना ही बड़ा कारक है, जितना नेहरू का अयथार्थ और अपरिपक्व राजनीतिक अड़ियलपन? ऐसे और भी अनेक महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर की प्रतीक्षा में हैं। इन प्रश्नों को आज जबकि कई दशक बीत गए हैं, पंडित जवाहरलाल नेहरू की जीवनियों से समझने का एक प्रयास इस छोटे से आलेख में है।
भारत अधिनियम, 1935 में अंतिम निर्णय का अधिकार ब्रिटिश सरकार को था। उसमें नब्बे धाराएं थीं जो वायसराय के विशेषाधिकार में आती थीं। रक्षा, विदेश मंत्रालय और अन्य कई मामलों में अधिनियम में सुरक्षित अधिकार का प्रावधान था। इसे ही देख -समझकर जवाहरलाल नेहरू ने 1935 के अधिनियम को ‘गुलामी का घोषणा पत्र’ कहा था। मार्च 1936 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण करते हुए उन्होंने कहा कि ‘नया संविधान भारत को बिना कोई शक्ति दिए मात्र दायित्व सौंपता है। इस कारण उसे उसकी समग्रता में रद्द कर देना चाहिए।’ भारत के संवैधानिक इतिहास के विशेषज्ञ ए.बी. कीथ ने भी लिखा है कि भारत अधिनियम स्वाधीनता आंदोलन के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी। इसीलिए नेहरू उसके विरोध में बोल रहे थे। कांग्रेस उस चुनौती का सामना क्या नेहरू के नेतृत्व में कर सकी? 1936 में कांग्रेस के दो अधिवेशन हुए। लखनऊ और फैजपुर। इन दोनों की अध्यक्षता जवाहरलाल नेहरू ने की। लखनऊ में जो बोले, उसका एक अंश उपर के पैरे में है। दूसरा अधिवेशन फैजपुर में हुआ। वह कांग्रेस का 50वां अधिवेशन था। माह दिसंबर का था। उस अधिवेशन से पहले वे लंदन गए। वहां उन्होंने पत्रकारों से जो बात की, वह ‘जवाहरलाल नेहरू वांग्मय’ में छपी हुई है। उसके प्रासंगिक अंश को पढ़ना ही काफी है।
एक पत्रकार ने वहां पूछा था कि ‘नए भारत शासन अधिनियम के बारे में आपका क्या खयाल है?’ जवाहरलाल नेहरू ने जबाव दिया कि ‘मेरे खयाल से गवर्नमेंट आॅफ इंडिया अधिनियम वाहियात है, क्योंकि हिन्दुस्तान के एक भी मसले से उसका कोई ताल्लुक नहीं है। हिन्दुस्तान के सबसे बड़े मसलों में से एक है, मौजूदा अधिनियम में, मेरा मतलब नए वाले से है, हर निहित-स्वार्थ की सुरक्षा की गई है, किसी लोकतंत्री कौंसिल या असेंबली के जरिए उसे छुआ भी नहीं जा सकता। इस संविधान में लंदन शहर, बरतानवी सरकार और हिन्दुस्तानी जमींदारों तथा रजवाड़ों के हितों, यहां तक कि हिन्दुस्तान में स्कॉटिश प्रेस्टिबटेरियन चर्च के हितों की भी सुरक्षा की गई है।’ ‘यह गवर्नमेंट आॅफ इंडिया अधिनियम ऐसा अधिनियम है, जो हिन्दुस्तान की शकल बदलता है और उसे पूरी तरह से निहितस् वार्थों के हाथों बंधक रख देता है-इन स्वार्थों में प्रमुख हैं लंदन शहर और बरतानवी सरकार।’
उसी यात्रा में जवाहरलाल नेहरू ने ब्रिटिश सांसदों के समक्ष हाउस आफ कामंस में 5 फरवरी, 1936 को एक भाषण दिया। उन्होंने कहा कि ‘कांग्रेस का मकसद मुकम्मल आजादी है, क्योंकि हिन्दुस्तान बरतानवी साम्राज्यवाद के दायरे से अलग होना चाहता है।’ उनसे सवाल था कि ‘अगर हिन्दुस्तान के लोग यह दिखा दें कि वे मौजूदा संविधान को चला सकते हैं तो क्या वह मुकम्मल आजादी का सबसे जल्दी का रास्ता नहीं होगा?’ जवाहरलाल नेहरू का जबाव था कि ‘इसमें यह सवाल भी शामिल है कि हम संविधान के तहत क्या कर सकते हैं। मुझे लगता है कि हम किसी भी खास मसले पर गौर नहीं कर सकते।’ भारत शासन अधिनियम के बारे में नेहरू का मत 1934 में प्रकाशित ब्रिटिश श्वेत पत्र के समय से ही बहुत स्पष्ट था। वे उसे अपने हर बयान में खारिज करते रहे। यह अंश 4 अप्रैल, 1936 के हिन्दू में छपे उनके बयान का है, जिससे भारत शासन अधिनियम के बारे में उनके विचार की पुन: पुष्टि होती है और संविधान सभा की मांग का तर्क सामने आता है। ‘संविधान सभा आजाद हिन्दुस्तान के लिए संविधान तैयार करेगी।
हिन्दुस्तान के लोगों की ख्वाहिशें पूरी करने का यही एक तरीका है, यही लोकतांत्रिक तरीका है। इस तरीके से सांप्रदायिक मसला हल करने में भी बड़ी मदद मिलेगी। ब्रिटिश पार्लियामेंट या बाहर की किसी दूसरी सत्ता के लिए तैयार किया गया हल अगर हिन्दुस्तान पर थोपा गया तो उस पर न तो रजामंदी हो सकेगी, न उससे अमन कायम होगा। अगर हिन्दुस्तान के लोगों को लोकतांत्रिक ढंग से कोई फैसला करना है तो उसे वे किसी तरह की संविधान सभा के जरिए ही कर सकते हैं, लेकिन ऐसी संविधान सभा सभी मायने में संविधान सभा होनी चाहिए, जो पूरी तरह से अवाम की नुमाईदंगी करे और जिसे फैसले करने और उन फैसलों को अमल में लाने का अख्तियार हो। कोई तथाकथित सर्वदलीय परिषद, या सीमित मताधिकार से चुनी गई सभा बेकार होगी। इसमें सांप्रदायिक और उंचे तबके के दीगर बंटवारों की झलक होगी और यह अवाम से ताल्लुक रखने वाले मसलों को सामने आने से रोकेगी। इस तरह संविधान सभा की कांग्रेस की मांग बहुत जरूरी है और उसे हासिल करने के लिए हमें काम करना चाहिए।’
भारत शासन अधिनियम में नेहरू ये सब सीमाएं देख रहे थे। इसीलिए वे विरोध कर रहे थे। नेहरू के विरोध में अंग्रेजों के प्रति एक अविश्वास का भाव तो था ही, यह भी था कि ब्रिटिश सरकार के हाथों कांग्रेस को जो कुछ झेलना पड़ रहा था, उसकी एक प्रतिक्रिया भी थी। लार्ड विलिंगडन के काल में भारत सरकार ने कांग्रेस के खिलाफ खुली लड़ाई छेड़ रखी थी। कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता हजारों की संख्या में बंदी बनाए गए थे। कांग्रेस कार्यालयों पर अंग्रेजों ने ताले लगा दिए थे। कांग्रेस का खाता जो बैंकों में था, उसे जब्त कर लिया गया था। कांग्रेस को हर संभव कुचलने के लिए अंग्रेज सरकार कमर कसे हुए थी। इतिहासकार डेविड ए लो का मत है कि ऐसे समय में भारत शासन अधिनियम, 1935 को घोषित करने और अमल में लाने में भी अंग्रेज सरकार का एक खास मकसद था। अंग्रेज लंबे समय तक राज करना चाहते थे। लुटियन की दिल्ली को इसी इरादे से राजधानी के रूप में बसाया गया था। उसमें 21 साल से ज्यादा समय लगा। बड़ी पूंजी लगी। इसलिए कांग्रेस के जनाधार को चौपट करने और समाज के महत्वपूर्ण वर्गों को साम्राज्य के साथ जोड़े रखने के लिए वह अधिनियम लाया गया था। यहां दो प्रश्न उठते हैं। क्या अंग्रेज अपने लक्ष्य पा सके? क्या नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस अपने विरोध पर कायम रह सकी?