आज (4 मई 2023) दो विश्व-प्रसिद्ध दैनिक समाचारपत्रों की शताब्दी है। भारत (केरल) का राष्ट्रवादी मलयालम दैनिक “मातृभूमि” और लंदन का घोर भारत-शत्रु “दि डेली मेल।” दोनों अपने देशों में इतिहास रचा चुकें हैं। आज भी बुलंदी पर हैं। दोनों के मुख्यालय (कोची और लंदन) को मैं देख चुका हूं। पांच दशक बीते (4 मई 1973) जब इंदिरा गांधी ने “मातृभूमि” के स्वर्ण जयंती समारोह का कोचिन में उद्घाटन किया था। क्या विडंबना है कि उसके ठीक पच्चीस माह बाद आपातकाल थोप कर प्रधानमंत्री ने उसी के संपादक एमपी वीरेंद्र कुमार को जेल में डाल दिया था। वे केरल में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (अध्यक्ष : जॉर्ज फर्नांडिस) के पुरोधा थे। संसद के दोनों सदनों तथा केरल विधानसभा के सदस्य रहें। एचडी देवगौड़ा और इंदर गुजराल की काबीना में वित्त तथा श्रम मंत्री थे। उनकी पत्नी उषा, एक पुत्र और दो पुत्रियां (आशा व निशा) रहीं। वे स्वयं छः बहनों और एक भाई के अग्रज थे। उनका जन्म 15 अगस्त 1937 के दिन वायनाड जिला (राहुल गांधी का पूर्व लोकसभाई चुनाव क्षेत्र) के कालपेट्टा ग्राम में हुआ था। कोझिकोड, चेन्नई तथा ओहायो (अमेरिका) में शिक्षित होकर वीरेंद्र कुमार आजीवन लोहियावादी रहे। पीटीआई बोर्ड के चेयरमैन (2012) तथा इंडियन न्यूजपेपर्स सोसाइटी (INS) के अध्यक्ष रहे। पहले दैनिक “मातृभूमि” के दो ही संस्करण थे। इन सौ वर्षों में 15 हो गए। समाचारपत्र के अलावा फिल्म, श्रम, महिला, साहित्य, खेल, कार्टून, स्वास्थ्य, टीवी, एफएम रेडियो जनसंचार क्षेत्रों में भी विस्तार हो गया। यादगार घटना रही 13 जनवरी 1934 जब महात्मा गांधी “मातृभूमि” कार्यालय में आए थे। अपने कार्मिकों, खासकर श्रमजीवी पत्रकारों के लिए इस सोशलिस्ट मालिक ने चिकित्सा सुविधा, कल्याण राशि, मुफ्त भोजन व्यवस्था, आवास योजना, पेंशन स्कीम, जीवन बीमा आदि चालू किए हैं। हमारे संगठन IFWJ के प्रति वे सदैव संवेदनशील रहे।
उसी दौर का वाकया है। भारत के शीर्षतम मारवाड़ी प्रकाशन संस्थान बैनेट कोलेमन एंड कंपनी (“टाइम्स आफ इंडिया”) ने “मातृभूमि” को औने पौने दामों में खरीद लेने की कोशिश की थी। इस साजिश में वह करीब सफल भी हो गई थी। पर हम श्रमजीवी पत्रकारों और यूनियनों के अभियान से अपने मंसूबों में “टाइम्स” विफल हो गया। “मातृभूमि” स्वतंत्र रही। तभी (2007) एक विशेषांक निकला था IFWJ की मुख्य पत्रिका “दि वर्किंग जर्नलिस्ट” का। शीर्षक था “Invasion of Mathrubhumi” (मातृभूमि पर हमला)। मीडिया वर्तुलों में काफी असर पड़ा। मीडिया एकाधिकार का प्रयास नाकामयाब रहा।
अब देखें भारत के घोरतम शत्रु अंग्रेजी दैनिक “दि डेली मेल” को जिसका मूलभूत दर्शन था कि : “हिंदुस्तानी अपना शासन करने में अक्षम हैं।” इस प्रकाशन संस्थान के अध्यक्ष लॉर्ड हेरल्ड रोथरमियर की तो निश्चित मान्यता थी कि “यदि भारत स्वतंत्र हो गया तो विश्वभर के ब्रिटिश उपनिवेश (अफ्रीका और एशिया में विशेषकर) आजादी चाहेंगे। आंदोलन को रोकना कठिन हो जाएगा।” “दि डेली मेल” ने 1930 में लिखा भी था कि कंजर्वेटिव प्रधानमंत्री स्टेनली बाल्डविन (1935-37) भारत को आजादी देने के उत्सुक हैं। यह खतरनाक नीति है। लेबर (सोशलिस्ट) पार्टी के प्रधानमंत्री रेम्से मैकडोनल्ड द्वारा भारतीय नेताओं के साथ गोलमेज सम्मेलन के आयोजन का इस पत्र ने जमकर विरोध किया था। “दि डेली मेल” ने तब संपादकीय लिखा था कि “भारत को भारतीयों से बचाना होगा।” स्वतंत्र शासन के लिए भारतीय अयोग्य हैं। लॉर्ड एल्फ्रेड नॉर्थक्लिफ जो “दि डेली मेल” के प्रथम मालिक थे ने कहा भी था कि “पत्रकारिता मिशन नहीं, वाणिज्य।” इसीलिए वे उपनिवेशवाद के समर्थक रहे।
“दि डेली मेल” की दो विशेषताओं के लिए तारीफ करनी होगी। इस दैनिक ने सर्वप्रथम महिला पाठिकाओं का समाचार उद्योग में महत्व पहचाना। उस युग में इस दैनिक की पाठिकायें सर्वाधिक होती थीं। अफ्रीका में द्वितीय बोअर युद्ध की रिपोर्टिंग के लिए “दि डेली मेल” ने विश्व की प्रथम महिला युद्ध संवाददाता तैनात की थी। नाम था साराह विल्सन। तभी चीन के खतरे को भांप कर “दि डेली मेल” ने “यलो पेरिल” (पीला खतरा) के शब्द का सृजन किया था। उसका आग्रह किया था कि आनेवाली सदी में चीन साम्राज्य एक खौफनाक राष्ट्र बनेगा। यह सच साबित भी हो रहा है। इस दैनिक ने जुलाई 1900 में एक अतिशयोंक्तिभरी खबर साया की थी कि चीन के सैनिकों ने बीजिंग में यूरोपियन समाज के सारे लोगों को तलवार से काट डाला है। तब चीन में बाक्सर विद्रोह हुआ था। उसमें चीन के किसानों ने श्वेत लोगों पर सशस्त्र हमला किया था। “दि डेली मेल” की खबरों का विश्लेषण करके ब्रिटिश इतिहासकार पियर्स ब्रैंडन ने टिप्पणी की थी कि : “साधारण स्थिति को नाटकीय बना देना, जटिल को फूहड़ बनाना, गंभीर खबरों का मनोरंजन कर डालना, समाचार और विचार में घालमेल करना “दि डेली मेल” की कारीगरी हो गई है। यूं तो इसके संपादक गुदगुदाने का प्रयास करते हैं। पर वस्तुतः प्रदूषण फैलाते हैं।” दि डेली मेल संपादकीय रूप से एडोल्फ हिटलर और बेनिटो मुसोलिनी का पैरोकार था। सोवियत कम्युनिस्ट शासन को सशस्त्र रोकने की मुहिम चलाई थी। इसके संवाददाता जार्ज वार्ड प्राइस तो हिटलर तथा मुसोलिनी के मनपसंद पत्रकार थे। तभी प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल को हिटलर द्वारा दिये गए परामर्श का समाचार छपा था कि : “भारत में उपद्रव करने वाले एमके गांधी को पुलिसवाले गोली मार दें।”
आज भारत सरकार ने “दि डेली मेल” को संदिग्ध सूची में डाल दिया है। कई पाठक इसकी खबरों पर विश्वास नहीं करते। हालांकि “मेल टुडे” के शीर्षक से इसका भारतीय संस्करण उपलब्ध है। इसका ऑनलाइन संस्करण प्रतिमाह तीन करोड़ पाठकों के द्वारा देखा जाता है। तो यह दास्तां है इन दो दैनिकों की जिनकी भूमिका बिल्कुल भिन्न, बल्कि विपरीत है, भारत राष्ट्र के परिवेश में। आज दोनों सेंचुरी लगा रहे हैं।
[लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]