कर्पूरी ठाकुर की जन्म शताब्दी अभी-अभी पूरी हुई है। लोग भूल से गए थे कि कोई कर्पूरी ठाकुर जैसा बड़ा नेता बिहार में अपनी विषम परिस्थितियों से लड़कर राष्ट्रीय मंच पर विराजमान था। समाजवादी आंदोलन के वे कार्यकर्ता, नेता और नेताओं के नेता रहे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उन्हें भारत रत्न से सम्मानित कर उन्हें जानने का एक अवसर दिया है।
कर्पूरी ठाकुर निराले राजनीतिक नेता थे। उन्हें सचमुच निराले ढंग से ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया है। अगर किसी के मन में यह प्रश्न हो कि क्या कर्पूरी ठाकुर भारत रत्न सम्मान के योग्य थे? विचारक बनवारी का उत्तर है, हां। एक बातचीत में उन्होंने कहा कि इस सम्मान के लिए कर्पूरी ठाकुर का नाम हर तरह से उचित है। ऐसे कर्पूरी ठाकुर को पुन: याद करना जरूरी है। भारत रत्न के सम्मान से उन्हें जानने का एक अवसर उपलब्ध हुआ है। 24 जनवरी को इस साल कर्पूरी जी का 100 साल पूरा हुआ है। वे अगर जीवित होते तो अपनी उम्र के 101वें वर्ष में प्रवेश करते। उनकी जन्म शताब्दी अभी-अभी पूरी हुई है। लोग भूल से गए थे कि कोई कर्पूरी ठाकुर जैसा बड़ा नेता बिहार में अपनी विषम परिस्थितियों से लड़कर राष्ट्रीय मंच पर विराजमान था। समाजवादी आंदोलन के वे कार्यकर्ता, नेता और नेताओं के नेता रहे। लेकिन उनका नाम लेने वाले उनसे कैसे विमुख होते गए, यह एक अलग कहानी है।
इस समय तो उनके गुणों की चर्चा ही उचित है। इसका भी एक प्रसंग है। बिहार में उनकी जन्म शताब्दी मनाई जा रही थी। इसकी खबरें बिहार की सीमा में ही कैद थी। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर इसकी कोई चर्चा नहीं थी। इसका कारण एक यह भी हो सकता है कि समाजवादी आंदोलन अब भारतीय राजनीति में खाद बन गया है। जिसे पहचानना आज संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में एक समाजवादी नेता की जन्म शताब्दी पर आम लोगों का ध्यान अगर नहीं गया तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। लेकिन अचानक 23 जनवरी को खबर आई कि कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न से सम्मानित किया गया है। इससे उन लोगों को बहुत संतोष हुआ जो ऐसा चाहते थे। जिन्होंने कर्पूरी जी को देखा है, सुना है और उनकी संगति में रहने का जिन्हें अवसर प्राप्त हुआ है। वे इस घोषणा से परम प्रसन्न हुए। अगले दिन दो बातें हुई। पहली, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक लेख ज्यादातर अखबारों में छपा। हिन्दी और अंग्रेजी के अखबारों ने उसे छापा। अनुमान है कि वह लेख देश की हर भाषा में अवश्य छपा होगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने लेख में लिखा, ‘आज कर्पूरी बाबू की 100वीं जन्म जयंती है। मुझे उनसे कभी मिलने का अवसर तो नहीं मिला, लेकिन उनके साथ बेहद करीब से काम करने वाले कैलाशपति मिश्र से मैंने उनके बारे में बहुत कुछ सुना है। सामाजिक न्याय के लिए कर्पूरी बाबू ने जो प्रयास किए, उससे करोड़ों लोगों के जीवन में बड़ा बदलाव आया।’…‘मेरे जैसे अनेक लोगों के जीवन में कर्पूरी बाबू का प्रत्यक्ष और परोक्ष योगदान रहा है। इसके लिए मैं उनका सदैव आभारी रहूंगा। दुर्भाग्यवश, हमने उन्हें तब खोया, जब देश को उनकी सबसे अधिक जरूरत थी। आज भले वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन जन-कल्याण के अपने कार्यों की वजह से करोड़ों देशवासियों के दिल और दिमाग में वे जीवित हैं।’
दूसरी बात यह हुई कि भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने कर्पूरी ठाकुर की जन्म शताब्दी पर विज्ञान भवन में एक भव्य समारोह कराया। वह पहले से ही निर्धारित था। उसमें मुख्य अतिथि गृहमंत्री अमित शाह थे। संस्कृति मंत्रालय ने कर्पूरी जी से जुड़े ज्यादातर लोगों को निमंत्रित भी किया। विज्ञान भवन में लोग झूम कर आए। वह पूरा भरा हुआ था। जो बैठने की जगह नहीं पा सके, वे अंत तक खड़े रहे। लेकिन उस समारोह के आयोजकों को शायद ही इसका अनुमान रहा होगा कि कर्पूरी जी को भारत रत्न का सम्मान देने की घोषणा भी हो सकती है। इस घोषणा से विज्ञान भवन का समारोह मात्र एक आयोजन भर नहीं रहा वह वास्तव में राष्ट्रीय महत्व का ऐसा समारोह हो गया जिसे लोग जीवनभर याद रखेंगे। जो वहां थे उनके लिए वह अविस्मरणीय रहेगा। अमित शाह जी ने अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रति इस घोषणा के लिए विशेष आभार जताया।
समाजवादी आंदोलन के आज जो शिखर पुरुष हैं, वे रघु ठाकुर हैं। उन्होंने मुझे 23 जनवरी की रात 12 बजे अपनी भावना लिखकर भेजी। जिसमें उन्होंने बताया कि हम लोग कर्पूरी जी को भारत रत्न देने की मांग कर रहे थे। उनके संदेश में यह बात धीमे स्वर में उपस्थित थी कि हम मांग तो कर रहे थे, लेकिन ऐसा हो जाएगा इसकी उम्मीद थी नहीं। इसलिए उन्होंने तुरंत यह जरूरी समझा कि वे अपना आभार भारत सरकार तक पहुंचा दें। ऐसा ही उन्होंने लिखा भी कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मु के हम आभारी हैं। जहां गृहमंत्री अमित शाह समारोह के मुख्य अतिथि हों, वही मंच इसके उल्लेख के लिए उपयुक्त है, यह सोचकर उस समारोह में मैंने उनकी भावना का सार बताया। विज्ञान भवन में उपस्थित हर व्यक्ति के चेहरे पर एक चमक थी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में पहली बार पंडित मदन मोहन मालवीय, अटल बिहारी वाजपेयी, दूसरी बार प्रणब मुखर्जी, नानाजी देशमुख और भुपेन हजारिका और इस बार कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न का सम्मान मिला है। स्वाधीनता संग्राम में पंडित मदन मोहन मालवीय का योगदान वैसे ही निराला था, जैसे महात्मा गांधी का था। उनका पहले की सरकारों ने विस्मरण कर दिया था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पंडित मदन मोहन मालवीय का महत्व समझा और देश को समझाया। उसी तरह राजनीति में कर्पूरी ठाकुर का जो योगदान था उसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने समझा और देशवासियों को समझाने के लिए भारत रत्न को निमित्त बनाया।
प्रश्न है, वह योगदान क्या है? इसका उत्तर सरल और सीधा है। कर्पूरी ठाकुर ने गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति को सैद्धांतिक और व्यावहारिक मार्यादाओं में साकार किया। यह कोई नदी-नाव संयोग नहीं है कि भारत रत्न की घोषणा मात्र से बिहार की राजनीति में गैर-कांग्रेसवाद की वापसी हो गई। इसे समझने के लिए कर्पूरी ठाकुर को नए नजरिए से देखना होगा। रमाशंकर सिंह ने जननायक कर्पूरी ठाकुर जन्मशती स्मरण-ग्रंथ संपादित किया है। इसे पढ़ें, तो कर्पूरी जी को समझने में कठिनाई नहीं होगी। इस पुस्तक में 35 संस्मरणात्मक लेख हैं। हर लेखक का अपना नाम है, छोटा या बड़ा। इन लेखों से कर्पूरी जी के व्यक्तित्व का एक शब्दचित्र बनता है। लेकिन इस पुस्तक को पढ़ने पर मैंने पाया कि इसके तीन लेख ऐसे हैं, जो मेरी समझ से कर्पूरी जी को सही ढंग से समझा पाते हैं। पहला लेख है, रघु ठाकुर का। वे अपने लंबे लेख में बताते हैं कि कर्पूरी ठाकुर में गांधी, अंबेडकर और लोहिया के खास-खास गुण थे। दूसरे शब्दों में कर्पूरी ठाकुर गरीबों के गरीब नेता थे। यह अमीर राजनेताओं के लिए एक सीख है।
दूसरा लेख पत्रकार सुरेंद्र किशोर का है। जिसका शीर्षक है, कर्पूरी ठाकुर जैसा कोई नहीं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जहां कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न का सम्मान दिया है, वहीं उन्होंने उस सुरेंद्र किशोर को भी खोजा और उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया है, जो करीब डेढ़ साल कर्पूरी जी के निजी सचिव थे। इस तरह एक अनोखा और सम्मान का सराहनीय उदाहरण सामने आया है। अपने अनुभव के आधार पर सुरेंद्र किशोर ने लिखा है, ‘कर्पूरी जी जैसा महान नेता मैंने नहीं देखा है। कुछ लोग यह कहते रहे कि कर्पूरी जी पिछड़ावादी थे। यदि ऐसा होता तो वे मेरे जैसे एक गैर पिछड़ा यानी तथाकथित सवर्ण को निजी सचिव क्यों बनाते?’ यह कर्पूरी जी के राजनीतिक व्यक्तित्व की सटीक परिभाषा है।
डॉ. रामचंद्र प्रधान का लेख तीसरा है। उन्होंने कर्पूरी जी को ‘एक सच्चा गांधीवादी-समाजवादी नेता’ पाया। इसका विवरण और विश्लेषण अपने अनुभवों से उन्होंने लिखा है। वह अगर कोई पढ़े तो पाएगा कि सुरेंद्र किशोर के मंतव्य को उन्होंने अपने अनुभव से सही ठहराया है। डॉ. रामचंद्र प्रधान गंभीर अध्येता हैं। अपनी बढ़ी हुई उम्र के बावजूद हर प्रकार से सक्रिय हैं। समाजवादी नेताओं से उनकी संगति गहरी रही है। उन्होंने लिखा है कि कर्पूरी ठाकुर की राजनीतिक सक्रियता को ‘निर्धारित युगधर्म’ के संदर्भ में देखना चाहिए। यह ऐसा आधार है जिससे कर्पूरी जी के पूरे जीवन को समझा जा सकता है। लेकिन इसके लिए ‘निर्धारित युगधर्म’ की परिभाषा जाननी चाहिए। उन्होंने बताया है कि कर्पूरी जी के व्यक्तित्व के गठन में मैथिल संस्कृति की अहम भूमिका थी। ‘उनके भाषा सौष्ठव, शब्द चयन, वाक्य विन्यास में इस क्षेत्र की ज्ञान परंपरा की झलक स्पष्ट दिखती थी।’
डॉ. रामचंद्र प्रधान मानते हैं कि कर्पूरी ठाकुर को पांच बातों के लिए याद किया जाता रहेगा। उनकी नजर में कर्पूरी ठाकुर की पहली विशेषता उनका पुरुषार्थ है। यह निष्कर्ष इस आधार पर है, क्योंकि जिस ऊंचाई पर कर्पूरी ठाकुर पहुंचे, उसके लिए उनके पास आवश्यक एक भी साधन नहीं थे। ‘उनके पास न तो जातितंत्र था, न धनतंत्र था, न लाठीतंत्र था।’ इसलिए कर्पूरी ठाकुर ‘वंचितों को संघर्ष का संदेश देते रहेंगे, उन्हें उत्साहित और प्रेरित करते रहेंगे कि कोई व्यक्ति साधनविहीन होते हुए भी अपनी साधना, परिश्रम और सत्यनिष्ठा के आधार पर’ शिखर चूम सकता है। आज ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं। लेकिन कर्पूरी ठाकुर उनसे इस अर्थ में बिल्कुल निराले हैं कि वे फिसलन से बचे रहे। बेदाग रहे। शिखर पर पहुंचे और खाई में गिरने से बचे रहे। उनकी दूसरी विशेषता महात्मा बुद्ध की शिक्षा को अपने जीवन में उतार लेने में है। उन्होंने मध्यमार्ग अपनाया। इसे एक घटना से जानना संभव है। डॉ. लोहिया ने जब प्रसोपा से निकलकर सोपा बनाया तो कर्पूरी ठाकुर उसमें शामिल नहीं हुए। वे बिहार में प्रसोपा नेताओं सूर्यनारायण सिंह, बसावन सिंह और योगेंद्र शुक्ल के साथ रहे। ये नेता अगड़े थे, जबकि डॉ. लोहिया पिछड़े की राजनीति कर रहे थे। कर्पूरी ठाकुर लोहिया की राह पर तब चले जब संसोपा बनी। उन्होंने जो आरक्षण नीति बनाई उसमें भी उन्होंने मध्यमार्ग अपनाया। वे अगड़े और पिछड़े की जातिगत राजनीति को सामाजिक परिर्वतन की धारा बनाने में सफल रहे। जातियों का बांध न टूटे, इसका हमेशा ध्यान रखा।
कर्पूरी जी अध्ययनशील नेता थे। यह उनकी तीसरी विशेषता थी। वे थे तो हर समय हर व्यक्ति के लिए उपलब्ध फिर भी पढ़ने के लिए समय निकालते थे। उन लोगों की संगति करते थे जो उन्हें देश-दुनिया की घटनाओं, राजनीति और प्रवृतियों से परिचित करा सके। यह बात अनेक लोगों के संस्मरणों में आई है। पहले आम चुनाव से ही कर्पूरी ठाकुर निर्वाचित होते रहे। कभी पराजित नहीं हुए। एक बार लोकसभा के सदस्य थे। यह उस समय की बात है जब लोकतंत्र की पुन:स्थापना के लिए चुनाव हुआ। लेकिन वे विधानसभा में आजीवन रहे। वहां उनके भाषण समय-समय पर हुए और उनका संकलन छपा है। उसे पढ़ने पर कोई भी मानेगा कि कर्पूरी ठाकुर की बौद्धिक गहराई सागर जैसी थी। जिसका ओर-छोर नहीं मिलता। उनमें वाकपटुता भी थी। कोई नया विधायक उसे पढ़कर बहुत कुछ सीख सकता है। राजनीति में मोटे तौर पर दो तरह के लोग आते हैं। उनका वर्गीकरण करें तो पहले को राजनीतिक नेता कहेंगे और दूसरे को राजनीतिज्ञ। कर्पूरी ठाकुर दूसरे श्रेणी में रखे जाएंगे। इसका एक बड़ा कारण है। वे चुनाव लड़ते थे फिर भी समाज को कलहपूर्ण होने से रोकने के लिए रात-दिन सचेत रहते थे। वे चुनावी राजनीति के माहिर। लेकिन बिहार में पिछड़े समाज और जातियों को चुनाव के लिए साधने के साथ-साथ उनकी ‘लक्ष्मण रेखा’ भी स्पष्टतया निर्धारित कर पाते थे। यह उनकी पांचवीं विशेषता थी। इन बातों को डॉ. रामचंद्र प्रधान ने अपने संस्मरण में विस्तार से लिखा है। भारत रत्न कर्पूरी ठाकुर का निरालापन समाज में बढ़ता रहना चाहिए।
कर्पूरी ठाकुर ने गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति को सैद्धांतिक और व्यवहारिक मार्यादाओं में साकार किया। यह कोई नदी-नाव संयोग नहीं है कि भारत रत्न की घोषणा मात्र से बिहार की राजनीति में गैर-कांग्रेसवाद की वापसी हो गई।