श्रीयुत मा.गोलवलकर (गुरूजी) ने सांप्रदायिकता के विविध स्वरुपों की विवेचना की है. इसमें हिंदू समाज की जीवनधारा के विरुद्ध व्यूह-रचना में लिप्त अहिंदू-समाज एवं क्षेत्रीयता की संकुचित भावना और अन्य प्रांतीय लोगों के प्रति अस्वस्थ दृष्टिकोण अपनाना भी शामिल है. 1963 में असम को विभाजित कर नागालैंड का गठन हुआ और कई दशकों के हिंसक संघर्ष के बाद शांति स्थापित हुई. पिछले दिनों पुनः पूर्वी नगालैंड के छह जिलों को मिलाकर अलग राज्य ‘फ्रंटियर नागालैंड’ की मांग की गई. वर्तमान कई परिपेक्ष्यों में भूतकाल का विस्तार होता है. भारत में ऐसी माँगों के पार्श्व में कुछ मूल अंतर्निहित कारण रहे हैं जिनके विद्रूप अतीत को समझने की आवश्यकता है.
19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में ज़ब भारत का शिक्षित और प्रगतिशील वर्ग पश्चिमी की नकल और उनकी खुशामद में संलग्न था और ब्रिटिश लुटेरों की सिविल सेवा में सौ-दो सौ की नौकरियों के लिए आंदोलनरत था तब तथाकथित आदिवासी समाज साम्राज्यवाद के विरुद्ध तनकर खड़ा था और यथाशक्ति उसका प्रतिरोध कर रहा था. उदाहरणस्वरुप अहोम विद्रोह (1828), नेफा में डफ़लाओं का विद्रोह (1835), सांबुदान के नेतृत्व में नगा विद्रोह (1882), मिजो विद्रोह (1890), गैर-ईसाई नगा विद्रोह (असम-1932), खासी विद्रोह (मेघालय-1828-1833), कूकी विद्रोह (मणिपुर, त्रिपुरा-1826,1844,1849) आदि उन जनजातीय बंधुओं के संघर्ष थे जिन्हें राष्ट्र एवं प्रगति जैसे आधुनिक वादों का ज्ञान भले ही नहीं था किंतु मातृभूमि के प्रति उत्कट प्रेम अवश्य था. अंग्रेजों को इस बंधन को ध्वस्त करना था, जिसके लिए ईसाई मिशनरियों का उपयोग किया गया.
मिशनरियों के राष्ट्रविरोधी षड़यंत्र को समझने के लिए प्रसंगवश नागा विद्रोह का उदाहरण समीचीन होगा. हिमालय के पूर्वी इलाके में अंग्रेजों के प्रवेश के दौरान नागाओं से उनकी झड़प होतीं रहीं थीं. बाद में अंग्रेजों ने उनके कानूनों और मान्यताओं में हस्तक्षेप करने से परहेज किया. 1873 में इन इलाकों में इनर लाइन रेगुलेशन एक्ट लागू किया गया, जिसके अनुसार इधर-उधर जाने के लिए प्रशासन की पूर्वानुमति की आवश्यकता पड़ती थी. 1880 में इसे निषिद्ध क्षेत्र घोषित कर दिया गया. इससे ब्रिटिश सत्ता ने उनके और शेष भारत के बीच अवरोधक काम किया परंतु मिशनरी इसके अपवाद थे.
हालांकि अंग्रेजों ने केंद्रीय भारत के आदिवासी समाज को भी मुख्यधारा से काटने के लिए ऐसी कोशिशें की, ज़ब संथाल और मुंडा विद्रोह के पश्चात् इन क्षेत्रों को निषिद्ध घोषित किया. किंतु वहां ये सफल नहीं हो पाए क्योंकि यहाँ का जनजातीय समाज देश की मुख्यधारा से आर्थिक-सामाजिक रूप से सशक्त रूप से जुड़ा हुआ था तथा अपनी प्राचीन संस्कृति के प्रति जागरूक था. जब ईसाई प्रचारकों ने इन जनजातियों की संस्कृति पर प्रहार करना शुरू किया, तब इनके धार्मिक नेताओं ने, जिन्हें ‘भगत’ कहा जाता था, अपने अनुयायियों को सनातन धर्म के आदर्शों का पालन करने के लिए प्रेरित किया. मिशनरियों की धूर्तता का दृढ़ प्रतिरोध बाबा बिरसा मुंडा ने किया, जिनके निर्देशन में मुंडा एवं उरांव जनजातियों ने इनके विरुद्ध ‘उल्गुलान’ (विद्रोह-1895) किया.
सन् 1836 से 1840 के बीच ईसाई मिशनरियो को नागा इलाकों में प्रवेश की अनुमति मिलने लगी एवं इसी के साथ धर्मांतरण प्रारंभ हुआ. किंतु यह प्रक्रिया व्यापक तौर पर 1893 में रेवरेंड क्लार्क समेत अमेरिकी बैपटिस्ट पदारियों के आगमन के साथ शुरू हुई. इस कुकृत्य में मिशनरी स्कूल सर्वाधिक सहायक सिद्ध हुए. जैसा कि राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं, “शिक्षा-प्रचार के पीछे ईसाई धर्म-प्रचारकों का जो इतना बड़ा समर्थन रहा, उसका कारण यह था कि वे भारतीयों के बीच अपने ढंग की शिक्षा-पद्धति चलाकर इस देश-भर क़ो क्रिस्तान बनाना चाहते थे. आदिम जातियों के बीच उनका प्रवेश शिक्षा के सहारे हुआ था और शिक्षा के सहारे ही उन्होंने इन जातियों के लोगों क़ो अपने धर्म में भी दीक्षित किया था.” 1900 में धर्मांतरित नागाओं की संख्या जहां 300 थी वह 1950 में 16,680 हो गई और बाद में यह संख्या तेजी से बढ़ती रही. यह पृथकतावाद का बीजारोपण था.
नागा अलगाववाद का प्रथम प्रत्यक्ष पदार्पण जनवरी 1946 को हुआ ज़ब ईसाई नागाओं के एक समूह ने संपूर्ण नागाओं के प्रतिनिधित्व का दावा करते हुए नागा नेशनल कांउसिल (एनएनसी) की स्थापना एवं आत्मनिर्णय के अधिकार की घोषणा की, जिसका अर्थ पूर्ण स्वतंत्र राज्य की स्थापना था. हालांकि नागाओं में भी सभी इसके पक्ष में नहीं थे. अनगामी नागा ही भारत से अलगाव के समर्थक थे जबकि अपेक्षाकृत उदार आओ समुदाय अपने रीति-रिवाजों और संस्कृति की सुरक्षा की गारंटी के एवज में भारत में ही रहना चाहता था.
इस आंदोलन को हिंसक रास्ते पर ले जाने वाला व्यक्ति अनगामी जापू फिजो था जिसकी शिक्षा-दीक्षा मिशनरियों के सानिध्य में हुई थी. 1950 में अध्यक्ष बनने के बाद फिजो ने एनएनसी आंदोलन, उसकी माँग, उसके नारों को ईसाईयत के अनुरूप परिवर्तित किया. सेना का दबाव बढ़ने पर फीजो लंदन भाग गया जहाँ उसे ईसाई मिशनरियों ने ब्रिटिश सरकार का संरक्षण दिलवाया. इसमें मुख्य भूमिका माइकल स्कॉट नामक एक एंग्लिकन पादरी ने निभाई, जो दक्षिण अफ्रीका में अश्वेतों के धर्मांतरण के लिए कुख्यात था. स्कॉट की मदद से फीजो ने यूरोप में कई जगह प्रेस कॉन्फ्रेंस कर भारतीय सेना पर ईसाई धर्म प्रचारको और चर्च के नेताओं को गोली मारने, महिला-पुरुषों को जलाने और चर्चों में आग लगाने का आरोप लगाकर भारत सरकार को बदनाम किया. उसने आंदोलन के अलगाववादी रुख का प्रचार किया. फिजो ने स्पष्टतया कहा कि, ‘एक आजाद नागालैंड ईसाई देशों की दुनिया और राष्ट्रमंडल का हिस्सा बनना पसंद करेगा. एक छोटा सा नागालैंड ईसा मसीह का अनुयायी बनकर प्रसन्नता का अनुभव कर रहा है, जिन्हें हम अपने तारणहार के रूप में मानते आए हैं.’ पश्चिम की भारत विरोधी मीडिया ने उसे खूब तरजीह दी.
तक़रीबन एक दशक के हिंसक संघर्ष के पश्चात् नागालैंड के बैपटिस्ट चर्च ने एक पीस मिशन की स्थापना की. हास्यास्पद है कि आग लगाने वाले इसके शमन का अभिनय कर रहे थे. इनमें असम के मुख्यमंत्री बी.पी. चलिहा, लोकनायक जयप्रकाश नारायण के साथ ही आश्चर्यजनक रूप से भारत विरोधी पादरी स्कॉट भी शामिल था. इसी ने नागा समस्या का वीभत्स तरीके से अंतर्राष्ट्रीयकरण किया. वह सरकार को सलाह देने लगा कि नागालैंड की सिक्किम और भूटान की तरह स्वायत्त स्थिति स्वीकार की जाए. उस समय प्रसिद्ध ब्रिटिश पत्रकार ‘ग्वाई विंट’ ने टिप्पणी की थी, ‘नागा इलाके में शांति की राह में सबसे बड़ी बाधा माइकल स्कॉट और डेविड ऑस्टर जैसे धर्मांध लोग हैं.’
उल्लेखनीय है कि नागा विद्रोहियों द्वारा प्रयोग किये जाने अमेरिकी हथियार पाकिस्तान के माध्यम से असम के ईसाई धर्म-प्रचारकों के हाथों में पहुँचते थे जो उसे विद्रोहियों को स्थानांतरित करते थे. अपने कोहिमा प्रवास के दौरान पं. नेहरू ने स्वीकार किया था कि नागालैंड में चल रहा खुला विद्रोह ईसाई मिशनरियों द्वारा संचालित है और ‘विदेशी ईसाई मिशनरी भारत में दूषित राष्ट्र विरोधी षड्यंत्र रच रहे हैं.’ नागालैंड, मिजोरम और मेघालय ही नहीं पृथक झारखंड आंदोलन के पीछे भी मिशनरियों की संदिग्ध भूमिका रहीं है.
संयोगवश ‘पृथक झारखंड आंदोलन’ के नेतृत्वकर्ता तथा संविधान सभा के सदस्य रहे जयपाल सिंह भी मिशनरीज परंपरा में ही दीक्षित हुए थे तथा मिशनरियों द्वारा ही ऑक्सफोर्ड पढ़ने भेज़े गये थे.इतिहासकार रामचंद्र गुहा लिखते हैं, ‘गांधी और नेहरू से मिलने आने वाले नागा प्रतिनिधिमंडल ने दिल्ली में जयपाल सिंह से भी मुलाकात की. जयपाल सिंह ने ही फिजो को यह सलाह दी थी कि वे आजादी की मांग छोड़कर झारखंड की ही भांति एक अलग राज्य की मांग करें. जयपाल सिंह ने निरंतर ‘नागा उद्देश्यों’ के प्रति अपना समर्थन व्यक्त किया.’ हालांकि वे नागा अलगाववाद के विरोधी थे.
पूर्वोत्तर की जनजातियों के संबंध में पं.नेहरू का कहना था कि, “बाहरी लोगों के साथ उनका ज्यादातर अनुभव अंग्रेज अधिकारियों और ईसाई मिशनरियों तक सीमित था जो आमतौर पर उन्हें भारत विरोधी बनाने की कोशिश में लगे रहते थे.” इतिहासकार प्रो.बिपिन चंद्र का भी मानना है कि, ‘मिशनरियों ने औपनिवेशिक शासन के साथ सहयोग किया और जनजाति क्षेत्र से राष्ट्रवादी प्रभाव को दूर रखने का काम किया. इन्होंने जनजातीय लोगों को आसाम और शेष भारतीय आबादी से दूरी बनाए रखने के लिए प्रोत्साहित किया. आजादी मिलने के बाद कुछ मिशनरी और विदेशियों ने पूर्वोत्तर भारत में अलगाववादी भावनाओं को भड़काने का भी काम किया.’
मिशनरी षड़यंत्र पर महात्मा गाँधी एवं गुरूजी की साझी चिंताएं—-
महात्मा गांधी की दृष्टि इस विषय में बिलकुल स्पष्ट थीं. उनका मानना था कि, भारत में ईसाईयत अराष्ट्रीयता एवं यूरोपीयकरण का पर्याय बन चुकी है. ईसाई मिशनरियों का मूल लक्ष्य उद्देश्य भारत की संस्कृति को समाप्त कर भारत का यूरोपीयकरण करना है. वे लिखते हैं, “धर्मान्तरण विश्व में शांति की स्थापना में सबसे बड़ा अवरोध है। एक ईसाई क्यों किसी हिंदू को ईसाई धर्म में परिवर्तित करना चाहता है? वह उस हिंदू से क्यों संतुष्ट नहीं है जो एक अच्छा इंसान यह हिंदू धर्मी है?”
धर्मांतरण की गतिविधियों से कुपित होकर 1935 में गाँधी जी ने कहा था, ‘अगर सत्ता मेरे हाथ में हो और मैं कानून बना सकूं, तो मैं धर्मांतरण का यह सारा धंधा ही बंद करा दूँ.’ मिशनरियों के धर्मान्तरण के दुराग्रह क़ो लक्षित करते हुए गाँधी जी ने कहा था, ” तुम हमे नया धर्म सिखाने क़ो इतने आतुर क्यों हों? हमें अच्छा हिंदू बनाओ, अच्छे नर-नारी बनाओ, यही यथेष्ट है. नाम के परिवर्तन से ह्रदय तो परिवर्तित नहीं होगा.” मिशनरिय़ों द्वारा धर्मातंरण हेतु बाँटे जाने वाले पैसे को उन्होंने ‘धन पिशाच का फैलाव’ कहा था.
ईसाई पदारियों द्वारा महात्मा गाँधी को प्रभावित करने के निरंतर प्रयास हुए. अमेरिका के धार्मिक नेता मिल्टन न्यूबैरी फ्रांज द्वारा ईसाईयत के बारे में पढ़ने के आग्रह पर महात्मा गांधी ने उन्हें 1926 में लिखा था, ‘मेरे लिए ये संभव नहीं है कि आपके की ओर से भेजे गए पंथ का मैं सदस्य बन जाऊं. सदस्य को ये मानना पड़ता है कि अदृश्य वास्तविकता का सर्वोच्च स्वरूप ईसा मसीह हैं. अपने तमाम प्रयासों के बावजूद मैं इस कथन की सच्चाई को महसूस नहीं कर पाया.’
अंग्रेजों ने ही जनजातीय बंधुओं को ‘ट्राइबल’ कहना प्रारंभ किया और सर्वप्रथम 1931 की जनगणना में इन्हें ‘आदिवासी’ नाम दिया. जिसे बाद में स्वतंत्र भारत सरकार ने भी अपना लिया. जबकि ने जनजातीय शब्द से पहली बार ‘ठक्कर बापा’ ने संबोधित किया. महात्मा गाँधी ने जनजातियों को जनगणना में हिंदुओं से पृथक दिखाने के षड़यंत्र का विरोध किया.
ऐसे ही श्री गोलवरकर जनजातियों के अलगाववाद में सरकारों की भूमिका को प्रश्ननांकित करते हुए लिखते हैं, “अपने देश के पूर्वांचल में एक विचित्र बात दिखाई देती है. हमारी सरकार ईसाइयों के अस्तित्व को तो मान्यता देती है किंतु हिंदुओं को नहीं. सरकार ने सभी गैर-ईसाइयों को हिंदुओं से पृथक जनजाति के रूप में श्रेणीबद्ध किया है. 1881 की जनगणना में से प्रारंभ करने के बाद हमारी सरकार ने उसी क्रम को चलाए रखा. अलगाव के समर्थक ये नेता तर्क देते हैं कि ये जनजातीय लोग पेड़-पत्थर तथा साँपों की पूजा करते हैं, अतः प्रकृति-पूजक हैं. इस कारण होने हिंदू नहीं कहा जा सकता.”
मिशनरी कुटिलता, जिसे गुरूजी ‘पादरिस्तान’ बनाने की साजिश कहते हुए इससे सम्बंधित कुछ सुनियोजित षड़यंत्रों का उदाहरण भी देते हैं. जैसे कुछ गोपनीय दस्तावेजों से पता चलता है कि सन् 1942-44 में ईसाई मिशनरीज और मुस्लिम लीग में भारत का आपस बंटवारा करने के लिए मिलकर काम करने समझौता हुआ था. इसके अनुसार पंजाब और मणिपुर के बीच गंगा का संपूर्ण मैदान मुसलमानों का तथा दक्षिणी प्रायद्वीप और हिमालय ईसाइयों का होगा. इसी प्रकार कुछ दशकों पूर्व यूरोप के ईसाई पादरियों के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में प्रकाशित एक लघु पुस्तिका में भारत में ईसाई वर्चस्व स्थापित करने की योजना का विवरण था. जिसके अनुसार प्रथम चरण में दक्षिणी प्रायद्वीप को और दूसरे चरण में हिमालय की संपूर्ण मेखला पर प्रभाव स्थापित करना था.
इनकी दुरभिसंधियों की पुष्टि सरकारी दस्तावेजों समेत अन्य घटनाओं से भी होती है. मध्य प्रदेश सरकार द्वारा इनकी गतिविधियों की जाँच के लिए गठित ‘नियोगी समिति’ के प्रतिवेदन (सन् 1956-57) के अनुसार, “इन गतिविधियों के मूल में उनकी यह महत्त्वकांक्षा है कि उनकी संख्या की शक्ति के आधार पर अपने लिए एक अलग ईसाई राज्य बना लिया जाए, वे इसी एक उद्देश्य से करोड़ों रूपये व्यय कर रहे हैं.”
1957 में केरल की नंबूदरीपाद सरकार द्वारा निजी शिक्षण संस्थानों की विसंगतियों को दूर करने के उद्देश्य से लाये गये शिक्षा विधेयक के विरोध में चर्च ने केरल कांग्रेस इकाई और मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन कर पूरे राज्य को जला दिया. इस दौरान ईसाई नेताओं का कहना था कि, ‘यह केरल में ईसाई मिशनरियों के लिए जीवन मरण का संघर्ष है. केरल में या तो कैथोलिकों का राज होगा या कम्युनिस्टों का. हम वहां शासन करना चाहते हैं.’ असल में इस विधेयक का उद्देश्य मिशनरीज द्वारा संचालित शिक्षण संस्थानों के अंदर की दुर्व्यवस्था और उनके मनमानेपन को नियंत्रित करना था. दिलचस्प है कि इस विधेयक की रुपरेखा निर्धारण में शिक्षा मंत्री ‘जोसेफ मुंडासेरी’ का बड़ा योगदान था जो स्वयं मिशनरी स्कूलों में पढ़े थे और त्रिचुर के कैथोलिक कॉलेज में कई दशकों तक अध्यापन कर चुके थे. वह मिशनरीज तंत्र के भ्रष्टाचार को बहुत निकट से जानते थे. मिशनरीज महत्वाकांक्षाओं के यथार्थ को समझने करने के लिए यह एक उल्लेखनीय उदाहरण है.
दुर्भाग्य से मिशनरियों की सांप्रदायिक गतिविधियां निरंतर देश के लिए संकट बनी है. 2018 में नगालैंड विधानसभा चुनाव में नगालैंड बाप्टिस्ट चर्च काउंसिल ने भाजपा को वोट न करने की अपील की थी. आश्चर्यजनक है कि पंथनिरपेक्षता के अलम्बदार पत्रकारों, समाजसेवियों एवं नेताओं को इस सांप्रदायिक अपील से देश के संविधान पर कोई खतरा नहीं दिखा. सांप्रदायिकता का विकट रूप इस्लामिक कट्टरता बहुत हद तक राष्ट्र के समक्ष प्रकट रूप में रही है जिससे उसके प्रति कुछ सचेतता बनी रहीं. किंतु ईसाई पंथिक दुर्भावना ‘धीमा जहर’ है जो मौन रूप से देश की जड़ों को विषैला कर रहा है. महात्मा गांधी ने क्रिश्चियन एसोसिएशन ऑफ मद्रास की सभा को संबोधित करते हुए देश को चेतावनी दी थी, “धर्मांतरण राष्ट्रांतरण है.” भारत को इसे रोकना ही होगा.