मेरे लिए हर्ष का विषय है कि आजादी के अमृत महोत्सव के वर्ष में बाबा विश्वनाथ की नगरी में पहली बार राजभाषा का सम्मेलन राजधानी के बाहर लाने में हमें सफलता मिली हैं। मैं इस अखिल भारतीय राजभाषा सम्मेलन में कहने आया हूं कि हम सब हिंदी प्रेमियों के लिए भी ये संकल्प का वर्ष होना चाहिए।
जब 100 साल आजादी के हों तब इस देश में राजभाषा और हमारी सभी स्थानीय भाषाएं इतनी बुलंद हों कि किसी भी विदेशी भाषा का सहयोग लेने की जरूरत ना पड़े। ये काम आजादी के तुरंत बाद होना चाहिए था क्योंकि हमारी आजादी के तीन स्तंभ थे। गांधी जी ने जिसको लोक आन्दोलन में परिवर्तित किया उसके तीन टर्म थे स्वराज, स्वदेशी और स्वभाषा। हमें स्वराज तो मिल गया लेकिन स्वदेश भी पीछे छूट गया और स्वभाषा भी पीछे छूट गयी।
2014 के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पहली बार मेक इन इंडिया की बात की और अब पहली बार स्वदेश की बात करके स्वदेशी को फिर से हमारा लक्ष्य बनाने के लिए आगे आए हैं। एक और लक्ष्य छूट गया था स्वभाषा का, उसका हम फिर से स्मरण करें और अपने जीवन का हिस्सा बनाएं। देशभर के हिंदी प्रेमी यहां आए हैं, बहुत प्रयास हो रहा है स्थानीय और हिंदी भाषा के बीच, जिसे मैं बहुत मन से मानता हूं। मेरी भी मातृभाषा हिंदी नहीं है। मैं खुद गुजरात से आता हूं। मेरी मातृभाषा गुजराती है। मुझे गुजराती बोलने में कोई परहेज नहीं है, मगर गुजराती से जितना ही प्यार है उससे थोड़ा अधिक प्यार हिंदी को करता हूं।
हिंदी और हमारी स्थानीय भाषाओं के बीच कोई अंतर्विरोध नहीं है। हिंदी सभी स्थानीय भाषाओं की सहेली है, सखी है और सखियों के बीच में कभी अंतर नहीं होता है। राजभाषा का विकास तभी हो सकता है जब स्थानीय भाषाओं का विकास होगा, स्थानीय भाषाओं का विकास तभी हो सकता है जब राजभाषा देशभर के अंदर मजबूत होगी। ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। इनके बीच में कोई अंतर नहीं है। राजभाषा विभाग का काम है कि स्थानीय भाषाओं को मजबूत करे और देश की जनता का लक्ष्य होना चाहिए कि राजभाषा को आगे बढ़ाना है।
मेरे लिए आनंद का एक और विषय है कि जब हमने इस राजभाषा सम्मेलन को दिल्ली से बाहर निकालने का निर्णय किया तो यह पहला ही सम्मेलन काशी में हुआ। विश्व की सबसे पुरानी नगरी, बाबा विश्वनाथ का धाम, यहां मां गंगा का सान्निध्य है और हमेशा से मां सरस्वती की उपासना करने वालों पर इसका प्रभाव रहा है। भाषा की उपासना करने वालों के लिए काशी हमेशा गंतव्य स्थान रहा है।
काशी एक सांस्कृतिक स्थल है। देश के इतिहास से काशी को अलग करके देखेंगे तो देख ही नहीं पाएंगे। चाहे रामायण काल हो, महाभारत काल हो, चाहे उसके बाद का देश का गौरवमयी इतिहास हो, आजादी का आन्दोलन हो, इन सबमें काशी का महत्वपूर्ण स्थान है। देश को विकास की दिशा और दुनिया में सबसे सम्मानित जगह पर ले जाने वाले प्रधानमंत्री आज काशी से सांसद हैं। जहां तक भाषा का सवाल है, काशी भाषा का गोमुख है। भाषाओं का उद्भव, भाषाओं का शुद्धीकरण, व्याकरण की संरचना सब यहीं हुए हैं। भाषा व्याकरण को लोकभोगी बनाने में काशी का बहुत बड़ा योगदान है, इसलिए इस सम्मेलन का भी बहुत बड़ा महत्व है। आज हम जो हिंदी बोल रहे हैं, लिख रहे हैं, उसका जन्म यहीं काशी में हुआ है।
भारतेंदु बाबू को कौन भूल सकता है! उन्होंने ही बनारस से खड़ी बोली का क्रमवार विकास किया। आज जैसी समृद्ध भाषा के रूप में हिंदी खड़ी है, उसकी यात्रा को मैं प्रणाम करता हूं और वह हमारे लिए प्रेरणा का स्त्रोत है। 19वीं सदी के अंतिम दो दशक में देश के इतिहास को देखें तो वह घटना समानांतर रूप से देशभर में देखी गई। 1893 में आर्य समाज के अंदर एक आन्दोलन चला। भाषा और पश्चिम शिक्षा के मुद्दे पर मतभेद हुआ और उस वक्त शिक्षा का माध्यम क्या हो, शिक्षा की भाषा क्या हो, इस पर पहली बार चर्चा हुई।
1868 में पहली बार यहां पर कुछ ब्राह्मण विद्वानों ने यह मुद्दा उठाया था और मांग की थी कि शिक्षा की भाषा हिंदी होनी चाहिए। इस मांग को तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर ने मान लिया और नौकरी में जो अभिजात्य तरीके से उर्दू भाषा को प्राथमिकता दी जाती थी उसकी जगह हिंदी को राजभाषा बनाने की दिशा में पहला कदम उसी वक्त उठाया गया। हिंदी भाषा का उन्नयन, उसका कोष और व्याकरण कैसा बने, इसकी शुरुआत भी 1893 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा के स्थापना के साथ ही हुई थी ताकि हिंदी का शब्दकोष बने, इसका उन्नयन हो और उसके व्याकरण बने।
हिंदी का पहला व्याकरण कामता प्रसाद गुरू ने इसी शहर में लिखा और उसको आगे बढ़ाया। हिंदी का पहला शब्दकोष ‘हिंदी शब्द-सागर’ इसी बनारस में बना फिर उसको अनेक विद्वानजन आगे बढ़ाते गए। हिंदी भाषा और साहित्य का पहला संगठित इतिहास पंडित रामचंद्र शुक्ल ने काशी में ही लिखा। हिंदी भाषा की पहली कहानियों में एक कहानी ‘राजाभोज का सपना’ शिव प्रसाद सितारेहिन्द नें यहीं पर लिखी थी। पहली हिंदी पत्रिका हरिश्चंद्र मैगजीन और हरिश्चंद्र चंद्रिका भी यहीं से छपी हुई थी। कविताओं की पहली पत्रिका ‘कवि वचन सुधा’, महिलाओं की पहली पत्रिका ‘बाल बोधिनी’ यहीं शुरू हुए। पहला पारसी थियेटर आगा हश्र कश्मीरी ने यहीं लिखा।
भाषा तो बन गई, साहित्य रचा जाने लगा, मगर हिंदी की पढ़ाई कैसी हो इसका पाठ्यक्रम कैसा हो, इस बात की चिंता भी पंडित मदन मोहन मालवीय ने यहीं हमारे हिंदू विश्वविद्यालय के अंदर की थी। फिर लाला भगवानदीन और बाबू श्यामसुंदर दास के नेतृत्व में हिंदी का पहला पाठ्यक्रम बनाने का काम मालवीय जी के तत्वावधान में शुरू हुआ और उसको तुरंत देशभर के सभी विश्वविद्यालयों ने स्वीकार किया। बात भाषा की हो तो आप तुलसीदास को कैसे भूल सकते हैं! योगी जी ने इसका बहुत अच्छे तरीके से उल्लेख किया है।
मैं इतना ही कहना चाहता हूं कि तुलसीदास ने अवधी में रामचरितमानस ना लिखा होता तो शायद रामायण आज विलुप्त हो गया होता। मानव जीवन को उन्नत बनाने की कथा कोई भी नकारात्मक पहलू रखे बगैर उन्होंने लिखा है। आदर्श पति कैसा होता है, रामायण में ढूँढ सकते हैं; आदर्श पिता कैसा होता है, रामायण मे ढूंढ सकते हैं; आदर्श भाई कैसा होता है, रामायण मे ढूंढ सकते हैं; आदर्श पत्नी कैसी होती है, रामायण में ढूंढ सकते हैं; आदर्श शासन कैसा होता है, रामायण में ढूंढ सकते हैं और आदर्श शत्रु कैसा हो सकता है, वह भी रामायण में ढूंढ सकते हैं। रावण जो मरण शैय्या पर पड़ा है, प्रभु श्रीराम लक्ष्मण को उसके पास भेजते हैं कि रावण विद्वान है, उसके पास ढेर सारा ज्ञान है, उसने सोने की लंका बनाई है उसके बाद ये विद्या लुप्त ना हो जाए, इसलिए जाकर सीख लो और किसी झिझक के बगैर रावण ने लक्ष्मण को शासन के पाठ भी सिखाए।
रामायण जैसे ग्रंथ को तुलसीदास ने आगे बढ़ाने का काम किया है और यहीं से अवधी और जितनी भी हिंदी की बोलियां है उसको बनाने की शुरुआत हुई। अनेक हिंदी विद्वान जयशंकर प्रसाद, मुंशी प्रेमचंद, श्याम सुंदर दास, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी सभी ने यहीं पर हिंदी को आगे बढ़ाने का काम किया। इसलिए आजादी के अमृत महोत्सव में हिंदी को मजबूत करने उसे घर-घर पहुंचाने, अपनी स्वभाषाओं को मजबूत बनाकर उसे राजभाषा के साथ जोड़ने का जो अभियान शुरू होने जा रहा है, उसके लिए काशी से उचित स्थान कोई दूसरा हो ही नहीं सकता।
हिंदी भाषा के लिए बहुत विवाद खड़ा करने का प्रयास किया गया लेकिन वह समय अब समाप्त हो गया है। मैं बचपन से देखता था कि अंग्रेजी नहीं बोल सकते तो हीन भावना ग्रन्थि बच्चों में बन जाती है। मैं आपको दावे से कहता हूं कि कुछ समय के बाद ऐसा समय आएगा कि मैं अपनी भाषा मैं नहीं बोल सकता इसलिए लघुता ग्रंथि बनेगी क्योंकि देश के प्रधानमंत्री ने अपने भाषा गौरव को दुनियाभर के अंदर प्रस्थापित किया है। शायद ही कोई प्रधानमंत्री होगा जिनको वैश्विक मंच पर इतना सम्मान मिला हो, जितना मोदी जी को मिला है।
समूची दुनिया में मोदी जी ने भारत की बात अपनी राजभाषा में रखकर राजभाषा का गौरव बढ़ाया है। जो देश अपनी भाषा को खो देता है, वह कालखंड में अपनी संस्कृति और अपना मौलिक चिंतन भी खो देता है और जो देश अपना मौलिक चिंतन खो देता है, वह दुनिया को आगे बढ़ाने में योगदान नहीं कर सकता। इसलिए हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है कि अपनी भाषाओं को संभाल कर रखें। मैं कई सारे लोगों से मिलता हूं और पूछता हूं कि आपकी पहली भाषा कौन सी थी और उस भाषा का हाल क्या है आजकल? लोग शर्म के मारे सर झुका देते हैं। मैं चाहता हूं कि 100 साल के बाद किसी भारतीय का सर शर्म के मारे ना झुके, हमारी भाषा चिरंजीव बने और आगे बढ़े।
भाषा सामाजिक जीवन को आगे बढ़ाने, संस्कृति के प्रवाह को आगे बढ़ाने और संस्कृति के ज्ञान को दुनियाभर में फैलाने का महत्वपूर्ण उपकरण है और इसलिए हमारी भाषा में अक्षर शब्द का प्रयोग हुआ है। इसको अगर एक बार तोड़ कर देखेंगे तो मतलब होता है, जिसका कभी क्षरण नहीं होता। हमारी संस्कृति के अंदर भाषा का इतना सम्मान किया गया है! महर्षि पतंजलि, भर्तृहरि और पाणिनी ने भाषाओं के लिए अनेक प्रकार की विद्याओं को जन्म दिया और वह विद्याएं लुप्त नहीं हुई हैं, कुछ लोग उसको लेकर आगे बढ़ रहे हैं। मुझे भरोसा है कि देश की जनता आजादी के अमृत काल में मन बना ले, हमारे देश का व्यवहार, हमारे देश की बोल-चाल, हमारे देश का पत्राचार, हमारे देश का शासन स्वभाषा में चलने लगे तो महर्षि पाणिनी और पतंजलि जो देकर गए हैं वह पुनर्जीवित हो जाएगा।
मैं इस सम्मेलन के माध्यम से देश के अभिभावकों से अपील करने आया कि आप अपने बच्चों के साथ अपनी भाषा में बात करें। बच्चे चाहें किसी माध्यम में पढ़ते हों, घर के अंदर अपनी भाषा में बात करें, उनका आत्मविश्वास जगाएं, अपनी भाषा बोलने की झिझक को उनके मन से निकालें। इससे भाषा का तो भला होगा ही उससे ज्यादा भला आपके बच्चे का होगा, क्योंकि मौलिक चिंतन स्वभाषा से ही आ सकता है। दूसरी भाषा रटे-रटाए ज्ञान तो दे सकती है, लेकिन ज्ञान को अर्जित करना है तो उसको आगे बढ़ाने की जो यात्रा है वह मौलिक चिंतन से ही हो सकती है और मौलिक चिंतन स्वभाषा से ही आ सकता है। अगर आपने अपने बच्चों के मौलिक चिंतन को समाप्त कर दिया तो वह देने वाला नहीं बनेगा, सिर्फ लेने वाला बनेगा और मेरा बच्चा दुनिया को देने वाला बने, दुनिया वालों से लेने वाला नहीं। इसलिए हमारी स्वभाषा को मजबूत करना बहुत जरूरी है।
दुनिया में लगभग 6000 भाषाएं बोली जाती हैं, लेकिन मैं मानता हूं कि भाषाओं के बारे में हमारे देश पर ईश्वर की कृपा है कि जो सबसे ज्यादा बोली जाने वाली और लिपिबद्ध भाषा है, वह भारत देश में ही है। हजारों साल का इतिहास, हजारों साल की संस्कृति की धारा इसमें समाहित है। उसको आगे बढ़ाना है। भाषा जितनी सशक्त होगी, समृद्ध होगी उतनी ही संस्कृति, सभ्यता विस्तृत होगी। उतनी चिरंजीव होगी। अगर हम संस्कृति को संभाल कर रखना चाहते हैं, आगे ले जाना चाहते हैं तो हमारी भाषाओं को मजबूत करना पड़ेगा। मैं फिर से एक बार अपनी भाषा से जुड़ाव, अपनी भाषा से लगाव और उपयोग के लिए युवाओं का आह्वान करना चाहता हूं कि अपनी भाषा को लेकर कभी भी शर्म मत रखो, ये गौरव का विषय है। मैं हिंदी में भाषण कर रहा हूं। कोई बात गुजराती में आ सकती है और देशभर से आए सारे लोगों को समझ में आ जाएगी क्योंकि हमारी हरेक भाषा एक दूसरे से जुड़ी हुई है।
आज फिर से कहना चाहता हूं कि जो अपनी भाषा के प्रति लघुता ग्रन्थि अंग्रेजी के कारण पैदा हुई है, उसे समाप्त करना है। उसको युवाओं के मन से निकालना पड़ेगा और घबराहट की जगह गौरव की अनुभूति हो इस प्रकार के वातावरण बनाना है। किसी भी मंच पर आप अपनी भाषा में मौलिक विचारों को रखें। वह जमाना गया, जब इसमें घबराहट होती थी। मैं बताता हूं कि अब मोदी जी के शासनकाल में नया जमाना शुरू हो चुका है, जब घबराहट नहीं गौरव होता है। ये बहुत बड़ी उपलब्धि है। स्वभाषा ही अभिव्यक्ति को सुनिश्चित करती है, स्वभाषा ही चिंतन को गति देती है और स्वभाषा ही नए परिणामों की दिशा में सोचने के लिए होती है।
स्वभाषा व्यक्ति के विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। आत्मसम्मान अगर खड़ा करना है तो हमें राजभाषा और स्वभाषा दोनों को साथ लेकर चलना पड़ेगा। मोदी जी के नेतृत्व में जो नई शिक्षा नीति बनी है, इसका एक प्रमुख स्तंभ है कि भारतीय भाषाओं तथा राजभाषा दोनों का संरक्षण और संवर्धन हो। शिक्षा का मूल आधार सोचना है। शिक्षा का मूल आधार स्मरण है। लिखाई पढ़ाई होती रहती है। एक जमाने में हमारे यहां श्रुति को महत्व देते थे। मगर सोचना और स्मरण करना दोनों चीजें स्वभाषा में जितने अच्छे तरीके से होती हैं, वह किसी और भाषा में नहीं हो सकती है। मैं आप सभी से आग्रह करना चाहता हूं कि मोदी जी के नेतृत्व में जो नई शिक्षा नीति बनी हैं, इसका अध्ययन कीजिए। स्वभाषा, राजभाषा पर बहुत बल दिया गया है और मोदी जी के नेतृत्व में अनेक प्रकार के अभ्यास हुए हैं। इंजीनियरिंग का हो या मेडिकल का हो, इन सभी के पाठ्यक्रमों के अनुवाद अलग-अलग आठ भाषाओं में शुरू हो चुके हैं। इसकी पढ़ाई-लिखाई जिस दिन अपनी भाषा में होगी, अनुसंधान में हमारा देश सबसे ऊपर होगा, क्योंकि अनुसंधान अपनी भाषा में ही सबसे अच्छा हो सकता है। मेरा देश पिछड़ इसलिए गया क्योंकि पढ़ाई-लिखाई और अनुसंधान के विषय हमारी भाषाओं में नहीं होते हैं। मोदी जी ने ये परिवर्तन किया है। वह परिवर्तन आने वाले दिनों में भारत के भविष्य को बदलने वाला परिवर्तन होने वाला है, इसका मुझे विश्वास है।
मैं तुलसी सभागार के अंदर बैठे सभी से अनुरोध करना चाहता हूं कि नई शिक्षा नीति का जो मुख्य बिन्दु है अपनी भाषाओं को मजबूत करने का, देशभर में इसके स्वागत के लिए वातावरण की निर्मिति करें। जब तक देश के प्रशासन और नौकरशाही की भाषा देश की नहीं होती, लोकतंत्र सफल ही नहीं हो सकता। प्रशासन की भाषा ऐसी हो जो पांच-सात प्रतिशत लोग ही समझ सकते हों तो लोकतंत्र कैसे सफल हो सकता है। लोकतंत्र तभी सफल हो सकता है जब प्रशासन की भाषा, स्वभाषा और राजभाषा हो। मैं बड़े गौरव के साथ आपलोगों के सामने कहना चाहता हूं कि आज गृह मंत्रालय में एक भी फाइल ऐसी नहीं है जो अंग्रेजी में लिखी जाती है या पढ़ी जाती है। सब कुछ पूर्णतया राजभाषा में कर दिया है। बहुत सारे विभाग भी इस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं और मुझे भरोसा है कि शासन तभी लोकभोगी हो सकता है जब आमजन की भाषा में चले। आप कोई भी अध्यादेश/परिपत्र निकाल लो अगर देश की जनता उसे पढ़ नहीं सकती, तो उसको स्वीकार कैसे कर सकती है। ये स्वभाषा व राजभाषा को अपनाने का परिवर्तन मोदी जी के नेतृत्व में आ रहा है।
अमृत काल के अंदर हमें कुछ लक्ष्य तय करने होंगे कि इस देश के शिक्षा और प्रशासन की भाषा स्थानीय और राजभाषा होनी चाहिए। इस देश की न्याय व्यवस्था, स्थानीय और राजभाषा में हो। इस देश की तकनीक की भाषा स्थानीय भाषा और राजभाषा हो। जनसंचार और मनोरंजन की भाषा भी स्थानीय और राजभाषा होनी चाहिए। अगर ये लक्ष्य तय करते हैं तो कोई संघर्ष करने की जरूरत नहीं है। ये उद्देश्य इतने बड़े हैं कि सिर्फ आत्मविश्वास के सामने लगते ही जनमानस उसको तुरंत स्वीकार कर लेगा, कोई संघर्ष नहीं होगा। राजभाषा के प्रचार के लिए किसी के साथ संघर्ष की जरूरत नहीं है। वह इसकी नियति है। इसका बढ़ना, इसकी नियति है। हमें उसमें दीपक का काम करना होगा। हमें इसको आगे ले जाने के वाहक का काम करना है।
देश की आजादी के इतिहास को अलग-अलग भाषाओं में, अलग-अलग राज्यों में, अलग-अलग तरह से पढ़ाया जाता है। मेरा सभी से आग्रह है कि इसका राजभाषा में अनुवाद करने की मुहिम चलानी चाहिए। गुजरात का इतिहास अगर गुजराती में है तो उत्तर प्रदेश का बच्चा कैसे पढ़ेगा? लेकिन अगर राजभाषा में है तो पढ़ पाएगा। आडिशा का अपना एक इतिहास है और सिर्फ उड़िया भाषा में है तो गुजरात का बच्चा कैसे पढ़ेगा? लेकिन अगर वह राजभाषा में होगा तो उसको पढ़ पाएगा। राष्ट्रीय एकात्मता की निर्मिति के लिए देश के कोने-कोने में बिखरी हुई घटनाओं को और इतिहास की पुस्तकों को राजभाषा में अनूदित किया जाए। राजभाषा विभाग ने तय किया है कि कार्यालयी कामकाज के लिए सुस्पष्ट शब्दकोष रखेंगे। अगर मैं कहूं तो हिंदी के विद्वानों के गले यह नहीं उतरेगा कि हमें हिंदी को लचीला भी बनाना होगा। हिंदी की स्वीकृति लानी है तो उसको लचीला भी बनाना होगा। वीर सावरकर इस देश में अनेक प्रकार के काम के लिए जाने जाते हैं।
दुनियाभर में उनकी स्वीकृति है। उन्हें वीर सावरकर कहकर सम्मानित करते हैं। मगर आपलोगों के ध्यान में कम होगा कि सावरकर ने स्वभाषा और राजभाषा के लिए बहुत बड़े काम किए थे। ऐसे कई शब्द मैं जानता हूं कि यदि सावरकर नहीं होते तो आज हम उनका मतलब नहीं समझ पाते और अंग्रेजी शब्द का ही प्रयोग करते रहते। जैसे पिक्चर देखते हैं तो लिखा होता है-डायरेक्टर। उन्होंने शब्द दिया निर्देशक, आर्ट डायरेक्शन में उन्होंने शब्द दिया- कला निर्देशक ऐसे कई सारे शब्द उनके दिए हैं। उन्होंने भी हिंदी को समृद्ध बनाने का प्रयास किया। अब समय आया है कि हिंदी को लचीला बनाएं। अगर दूसरी भाषाओं के शब्द हिंदी में आते हैं तो परहेज ना रखे, कोई विदेशी भाषा का शब्द आता है तो परहेज ना रखें, उसका बोलने का माध्यम हिंदी, लिखने का माध्यम हिंदी, सोचने का माध्यम हिंदी हो, इतना ही करना है। हिंदी अपने आप रास्ता खोज लेगी। ये जो शब्दकोष राजभाषा विभाग तैयार कर रहा है, मुझे लगता है कि वह हिंदी को प्रशासन की भाषा बनाने में बहुत बड़ा योगदान देगा। हमें इसे लोकोपयोगी बनाकर जन-जन तक पहुंचाना पड़ेगा। हम पर अंग्रेजी राजाश्रय से थोपी गई थी।
ये इसलिए किया गया था क्योंकि वह विदेशी भाषा थी। हिंदी को थोपना नहीं है, हमारे प्रयासों से इसको स्वीकृत बनाना है। शासन तो अपने स्तर पर करेगा। मोदी जी के जितने भाषण सुनेंगे हिंदी में होंगे। अब शासन के अंदर भी हिंदी भाषा प्रयोग में आने लगी है। परंतु इससे कुछ नहीं होगा, जब तक जनमानस के अंदर अपने-अपने राज्य की भाषा और राजभाषा का एक प्रकार का वातावरण नहीं बनाएंगे। मैं आप सभी से कहना चाहता हूं कि हिंदी के शब्दकोष को और भी समृद्ध करने की जरूरत है। यहां बहुत सारे विद्वानजन बैठे हैं। मेरा आपसे अनुरोध है कि हमें इसके लिए काम करना चाहिए। समय आ गया है कि इसको नए सिरे से देखा जाए। हिंदी के शब्दकोष को मजबूत करना चाहिए, विस्तृत करना चाहिए, इसकी सीमाओं को बढ़ा देना चाहिए। इसे परिपूर्ण भाषा बनाने के लिए कुछ विद्वत्तजनों को काम करना पड़ेगा। बहुत समय हो गया है हिंदी के शब्दकोष पर नजर डाले। अगर इस पर अब नहीं सोचेंगे तो काल अपना काम करेगा। क्योंकि भाषा तो नदी जैसी है, बहती रहती है। भाषा में नई चीजों को जोड़ने के लिए भी हमारे विद्वत्तजन आगे आएं, इसके लिए मैं सभी का आह्वान करना चाहता हूं। मोदी जी ने जो कल्पना की है आजादी के अमृत काल की, उसमें स्वदेशी और स्वभाषा को बढ़ाना है। जो स्वराज मिल गया है उसको सुराज में बदलना है। स्वदेशी और स्वभाषा का जो विषय छूट गया है उसको फिर से एक बार चर्चा में लाकर एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम बनाना है। इसमें आप सभी का सहयोग मिलेगा इसका मुझे भरोसा है। अंत में फिर से एक बार अपील करता हूं कि हिंदी को देश की भाषा बनाएं, हिंदी को लोगों की भाषा बनाएं।
(शिवानंद द्विवेदी द्वारा संपादित पुस्तक ‘शब्दांश’ अमित शाह के चुनिन्दा भाषण से साभार)