पाकिस्तान में सत्ता के समीकरण फिर उलझ गए हैं। फरवरी में फाइनेंशियल एक्शन टॉस्क फोर्स ने अगर पाकिस्तान को काली सूची में डाल दिया, तो पाकिस्तान की मुसीबत और बढ़ने वाली है। इन सब झंझटों से इमरान खान सरकार कैसे उबरेगी? इस सबका असर पाकिस्तानी सेना पर पड़े बिना नहीं रहेगा।
पाकिस्तान में सबसे ताकतवर मानी जाने वाली सेना को एक महीने के भीतर दूसरा बड़ा झटका लगा है। 28 नवंबर को पाकिस्तान की सर्वोच्च अदालत ने सेनाध्यक्ष कमर जावेद बाजवा को मिला तीन साल का सेवा विस्तार रद्द कर दिया था। अदालत ने कहा था कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान को उन्हें सेवा विस्तार देने का कोई अधिकार नहीं है। पाकिस्तान के संविधान में सेनाध्यक्ष के सेवा विस्तार से संबंधित कोई प्रावधान नहीं है। अदालत ने 29 नवंबर को सेवानिवृत्त होने वाले बाजवा को छह महीने और बने रहने की छूट दी। अदालत के इस फैसले से सेना की प्रतिष्ठा को बहुत धक्का लगा था। अब पाकिस्तान की एक विशेष अदालत ने पूर्व सेनाध्यक्ष और 1999 में संविधान स्थगित करते हुए तख्ता पलटकर तानाशाह बने परवेज मुशर्रफ को देशद्रोह के अपराध में फांसी की सजा सुना दी है।
पाकिस्तानी सेना के लिए अब तक यह अकल्पनीय था कि उसके किसी जनरल को देशद्रोह के आधार पर फांसी की सजा दी जाए। मुशर्रफ से पहले जो जनरल तख्ता पलटकर शासक बने थे, उनमें से अधिकांश ने संविधान के साथ ऐसा ही खिलवाड़ किया था। जनरल अयूब खां और जनरल जिया उल हक इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। लेकिन उन पर देशद्रोह का कोई मुकदमा नहीं चला था। आज का पाकिस्तानी संविधान अयूब खान के शासन के बाद अस्तित्व में आया था। लेकिन जनरल जिया उल हक संविधान को हटाकर ही सत्ता में आए थे। आज अगर पाकिस्तान की अदालतें यह साहस करने लगी हैं तो यह पाकिस्तानी सेना के लिए काफी चिंता की बात है।
अब तक यह मान्यता रही है कि पाकिस्तान में सरकार किसी की भी हो, सत्ता सेना की ही होती है। क्या पाकिस्तान की अदालत इसे चुनौती देना चाहती हैं? पाकिस्तान की सेना में शीर्ष कमांडरों के बीच सब विषयों पर सहमति होती हो,यह आवश्यक नहीं है। जब पाकिस्तान की सर्वोच्च अदालत ने सेनाध्यक्ष कमर जावेद बाजवा के सेवा विस्तार को रद्द किया था तो अनेक राजनैतिक विश्लेषकों ने कहा था कि अदालत ने ऐसा सेना के कुछ असंतुष्ट अधिकारियों के इशारे पर किया है। अगर यह अनुमान सही हो तो छह महीने में बाजवा को इस्तीफा देकर पद छोड़ना होगा, पर अभी ऐसा लगता नहीं है। अधिक संभावना इसी बात की है कि पाकिस्तानी अदालतों के कुछ जज अपने अधिकारों का उपयोग करने लगे हैं। यह सिलसिला 2007 में शुरू हुआ था। उस समय इितकार मोहम्मद चौधरी पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश थे। उन्होंने उन लोगों के मुकदमे सुनने शुरू किए, जिन्हें सरकारी तंत्र जबरन अगवा कर लेता था और उनका कोई पता ठिकाना नहीं मिलता था। इससे उनके और उस समय सत्ता में बैठे जनरल मुशर्रफ के बीच ठन गई।
मुशर्रफ ने उनसे इस्तीफा दिलवाकर उन्हें गिरफ्तार करवा लिया। इसके बाद पाकिस्तान में वकीलों का एक अभूतपूर्व आंदोलन शुरू हुआ, जिसके परिणामस्वरूप इितकार मोहम्मद चौधरी अपने पद पर बहाल हुए और 2008 में मुशर्रफ को राष्ट्रपति पद छोड़ना पड़ा। उसके बाद पाकिस्तान की अदालतों ने कुछ हिम्मत दिखाना शुरू किया। लेकिन इसके उदाहरण बहुत अधिक नहीं हैं। अधिकांश मामलों में शीर्ष जज सरकार और सेना के इशारे पर निर्णय लेते रहे हैं। 2017 में पनामा पेपर्स को आधार बनाकर नवाज शरीफ को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर करना कोई स्वतंत्र निर्णय नहीं था। पाकिस्तान की विशेष अदालत द्वारा मुशर्रफ को फांसी की सजा सुनाना भी पाकिस्तानी न्यायपालिका द्वारा पाकिस्तानी सेना को दी गई चुनौती के रूप में नहीं देखा जा सकता।
मुशर्रफ और इितकार मोहम्मद चौधरी की टकराहट से जो परिस्थितियां पैदा हुई थीं, उन्हीं में मुशर्रफ के खिलाफ देशद्रोह का मामला दर्ज हुआ था। उसकी सुनवाई के लिए 2007 में एक विशेष अदालत गठित की गई थी। 2008 में मुशर्रफ को पाकिस्तानी संसद के चुनाव कराने पड़े और उनकी पार्टी चुनाव हार गई। उस समय नवाज शरीफ स्वयं निष्कासित होकर लंदन में रह रहे थे। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और नवाज शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग ने मिलकर सरकार बनाई। लेकिन नवाज शरीफ मुशर्रफ पर महाभियोग चलवाना चाहते थे। इसलिए मिलीजुली सरकार से बाहर होकर मुस्लिम लीग महाभियोग आंदोलन में कूद पड़ी। महाभियोग की आशंका से चिंतित होकर मुशर्रफ देश छोड़कर चले गए। पर विशेष अदालत में उन पर देशद्रोह का मुकदमा चलता रहा। मुशर्रफ 2013 में पाकिस्तान लौटे थे और यहां की परिस्थितियां अपने अनुकूल न देखकर 2016 में इलाज के बहाने दुबई चले गए थे। इस बीच बेनजीर भुट्टो की हत्या के मुकदमे में अदालत उन्हें भगोड़ा घोषित कर चुकी थी।
वे अपना पक्ष रखने पाकिस्तान नहीं आए, लेकिन एक संदेश रिकॉर्ड करवाकर अदालत के सामने भेज दिया। विशेष अदालत ने उनकी दलीलों को अस्वीकार करके उन्हें फांसी की सजा सुना दी। विशेष अदालत द्वारा फांसी की सजा सुनाए जाने के बाद भी मुशर्रफ के विकल्प समाप्त नहीं हुए हैं। पाकिस्तान की सरकार ने घोषणा की है कि वह इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करेगी। अगर सुप्रीम कोर्ट में उनकी सजा बरकरार रहती है, तो वे राष्ट्रपति से सजा माफ करने का अनुरोध कर सकते हैं। अगर मुशर्रफ यह सब भी न करें तो स्वनिष्कासन द्वारा दुबई या लंदन में बने रह सकते हैं। पाकिस्तान सरकार उन्हें लौटने के लिए मजबूर नहीं करने वाली। सेना को मुशर्रफ की परवाह हो न हो, पर अपनी प्रतिष्ठा की काफी परवाह है। इसलिए मुशर्रफ को फांसी की सजा सुनाए जाने के बाद सबसे कड़ी प्रतिक्रिया सेना द्वारा ही दी गई है। पाकिस्तानी सेना के प्रवक्ता मेजर जनरल आसिफ गफूर ने कहा है कि इस फैसले से पाकिस्तान की सर्वोच्च सेना काफी तकलीफ और पीड़ा अनुभव कर रही है।
अदालत ने पूरी कानूनी प्रक्रिया का पालन नहीं किया है। 40 वर्ष से अधिक देश की सेवा करने वाले और पाकिस्तान की ओर से अनेक युद्धों में लड़ने वाले मुशर्रफ गद्दार नहीं हो सकते। सेना की इस कड़ी प्रतिक्रिया से यह स्पष्ट है कि वह परवेज मुशर्रफ को फांसी पर नहीं चढ़ने देगी, क्योंकि इससे उसकी अपनी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल जाएगी। यह सिद्ध हो जाएगा कि पाकिस्तानी सेना देश की एकमात्र प्रभावी सत्ता नहीं है। पाकिस्तानी सेना किसी भी कीमत पर राजनैतिक या न्यायिक प्रतिष्ठान में यह भावना फैलने से रोकेगी। पर उसकी समस्या यह होगी कि पाकिस्तान में इमरान सरकार की प्रतिष्ठा तेजी से गिर रही है। पाकिस्तान की आर्थिक बदहाली तो उसका कारण है ही। मोदी सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 समाप्त करने के बाद कश्मीर का मुद्दा पाकिस्तान की पहुंच से बाहर हो गया है। इससे भी पाकिस्तान की सरकार और सेना की प्रतिष्ठा काफी गिरी है।
नाभिकीय युद्ध का खतरा बताकर जब भी इमरान खान ने विदेशी हस्तक्षेप के जरिए भारत पर दबाव डालने की कोशिश की है, उन्हें मुंह की खानी पड़ी है। पाकिस्तान के आग्रह पर चीन ने एक बार फिर सुरक्षा परिषद में कश्मीर पर विचार करवाने की कोशिश की, पर असफल रहा। कमजोर इमरान सरकार अदालत पर दबाव बनाने की स्थिति में नहीं है। जब तक भाजपा के सेवा विस्तार का मामला सुलझ नहीं जाता सेना भी पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट को सीधे प्रभावित करने से बचेगी। मुशर्रफ को फांसी लग पाए या नहीं। पाकिस्तान में उन्हें दी गई फांसी की सजा पर आंसू बहाने वाले कम ही हैं। मुशर्रफ सत्ता में बने रहने के लिए राजनेताओं और कट्टरपंथियों से समझौते करते रहे और बाद में उन्हें तोड़ते रहे। 2001 में अमेरिका पर आतंकी हमले के बाद उन्होंने अमेरिका का विश्वास जीतने के लिए तालिबान के खिलाफ उनके अभियान में सहयोग दिया। इससे वे आतंकवादियों और इस्लामी कट्टरपंथियों के निशाने पर आ गए और उन पर कई बार जानलेवा हमले हुए। भारत में तो मुशर्रफ को खलनायक के रूप में ही देखा जाता रहा है।
मोदी सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 समाप्त करने के बाद कश्मीर का मुद्दा पाकिस्तान की पहुंच से बाहर हो गया है। इससे भी पाकिस्तान की सरकार और सेना की प्रतिष्ठा काफी गिरी है।
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पहल पर जब नवाज शरीफ कश्मीर समस्या सुलझाने की दिशा में कुछ आगे बढ़े थे, तो उसमें बाधा डालने के लिए ही मुशर्रफ ने कारगिल में चोरी-छिपे सेना भेजकर उस क्षेत्र को हथियाने की कोशिश की थी। इसने भारत और पाकिस्तान को एक गंभीर युद्ध की ओर धकेल दिया था। दिल्ली में जन्मे मुशर्रफ ने शुरू में मोहाजिरों की मदद की और उनके समर्थन से अपनी स्थिति मजबूत की। फिर उन्होंने कट्टरपंथी राजनैतिक दलों की मदद से संविधान संशोधन करवाकर 1999 के तख्तापलट को वैध घोषित करवाया। पर अंत में लाल मस्जिद पर कार्रवाई, इितकार चौधरी का जबरन इस्तीफा और बेनजीर भुट्टो की हत्या ने उन्हें अपने बोरिया बिस्तर समेत सत्ता छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया।
उनको सेना की अप्रसन्नता के बावजूद फांसी की सजा घोषित किए जाने से कम से कम यह स्पष्ट है कि पाकिस्तान में सत्ता के समीकरण फिर उलझ गए हैं। फरवरी में फाइनेंशियल एक्शन टॉस्क फोर्स ने अगर पाकिस्तान को काली सूची में डाल दिया, तो पाकिस्तान की मुसीबत और बढ़ने वाली है। इन सब झंझटों से इमरान खान सरकार कैसे उबरेगी? इस सबका असर पाकिस्तानी सेना पर पड़े बिना नहीं रहेगा।