भारत कृषि प्रधान गांवों का देश है और गांव का इतिहास मानव सभ्यता के विकास का इतिहास रहा है। गांव परिवारों या व्यक्तियों का समूह मात्र नहीं है। विभिन्न ऐतिहासिक काल-खण्डों में गांव के भिन्न-भिन्न रूप रहे हैं। गांव एक प्रशासनिक, उत्पादक एवं राजस्व इकाई के रूप में व्यवहृत हुए हैं। वेदों में परिवारों के समूह जो एक स्थान पर एक साथ रहते थे को, गांव कहा गया।
आधुनिता के इस मकडजाल में फंसकर हमने अपनी इस दुनिया को क्या बना डाला है। महानगरों की निरंतर बढ़ती संख्या ने एक ओर गांव के अस्तित्व पर ही संकट खड़ा कर दिया, तो दूसरी तरफ अपने स्वयं के असत्तित्व को बचाने में भी कहीं समर्थ दिखलाई नहीं पड़ते। महानगरों के कारण हमारे सामने समस्याओं का अंबार खड़ा हो गया है। जीडीपी का लगभग अधिकांश भाग इन पर खर्च कर दिया जाता है। इस प्रकार ये गांव के हिस्से को भी हड़प रहे हैं। नदियों के प्रदूषण का प्रमुख कारण भी महानगरों से निकलने वाला मल ही है। वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण में भी महानगरों की भूमिका ही बडी है। इन्होंने मनुष्य के जीवन को बुरी तरह प्रभावित किया है। मनुष्य के जीवन में शांति एवं स्थायित्व का स्थान तो महानगरों के कारण मानो समाप्त ही हो चुका है। भागमभाग ही मानों महानगरों का अंतिम परिणाम है।
दुनिया आज महानगरों के विकास में जहां चरम पर है। फिर भी अभी तक कोई भी महानगर अपने आपमें स्वावलंबी या आत्मनिर्भर नहीं हो सका है। आज भी दुनिया भरण पोषण हेतु गांव पर ही निर्भर है। गांव जहां शुरू से ही स्वयं के स्तर पर आत्मनिर्भर रहे हैं। गांव का अपना आर्थिक सामाजिक सांस्कृतिक स्वरूप होता है। जिसके परिणामस्वरूप उस पर बहुत अधिक बाहरी दुनिया का प्रभाव नहीं पड़ता। आज के इस कोरोना काल ने जहां पूरी दुनिया में हड़ंकप मचा रखा है, तो इसका मूल कारण भी महानगरो का मकड़जाल ही है। जहां महानगरों को इस महामारी की दशा में निरंतर चलने देना, मौत को दावत देने के तुल्य है, तो दूसरी तरफ इसमें दैनिक गतिविधियों को रोकना भी इतना आसान नही है।
जहां एक ओर लाकडाउन की दशा में महानगरों में खाद्य पदार्थो की जैसे रोटी दूध सब्जी आदि की उपलब्धता बनाए ऱखना ही चिंतनीय विषय है। दूसरी तरफ गांव में संपूर्ण वर्ष इस तरह की कोई समस्या दिखलाई नहीं पड़ती। गांव स्वयं के साथ साथ महानगरों में भी दूध सब्जी आदि पदार्थों की आपूर्ति करते हैं। गाय-बकरी का दूध आरोग्य प्रदान करता है। दूध से घरेलू स्तर पर ही दही, लस्सी, मक्खन एवं घी बनाया जाता है! दूध से पोष्टिक भोजन जैसे खीर आदि भी सरलता से बनाया जा सकता है! बर्तन आदि भी मिट्टी से ग्राम की आवश्यकतानुसार ग्राम स्तर पर ही बनाए जाते हैं तथा इनके निर्माण में पर्यावरण को भी निम्न से निम्न हानि होती है! वस्तुओं का आवंटन, कार्य का विभाजन, आपसी सहयोग, गांव को स्वालम्बी बनाते हैं!
भारतीय ग्राम अपने आप में सम्पूर्ण दुनिया हैं। आर्थिक, सामाजिक, आध्यात्मिक, भौतिक, सांसारिक रूप से संपन्न। बाहरी दुनिया से सम्बंध है तो सहयोग का, विकास का, पर्यटन का। ग्राम शब्द ही मानो अभाव रहित अहसास करवाता है। यहां क्या कुछ नहीं है। पानी के लिए कुंए एवं नलकूप हैं, जो किसी विधुत आगमन पर निहित नहीं रहते, दिन-रात निज आवश्यकता हेतु निर्बोध जल देना मानो इनका नित्य कर्म है! मनुष्य जीवन हेतु प्रथम आवश्यक तत्त्व है! ग्राम के अलावा अन्य शैली में जल की निर्बाध उपलब्धता कठिन ही नहीं, असम्भव दिखलाई पड़ती है।अनाज का भंडारण अगले वर्ष की पैदावार आने से 2-3 माह बाद तक का रखना किसी भी आपात स्थिति से निपटने हेतु सामान्य सिद्धांत है। अनाज की पैदावार घर पर आने के पश्चात उसे 2-3 माह बाद ही प्रयोग में लाया जाता है, जिसका वैज्ञानिक आधार है कि अत्यधिक स्वास्थ्य लाभ किस प्रकार लिया जावे।
गांव में व्यावहारिक स्तर पर स्वयं ही सोशल डिस्टेंसिंग बनी रहती है! पैसे का निम्न प्रयोग भी इसमें अहम भूमिका अदा करता है! व्यर्थ का आवागमन तो घर के अन्दर भी सम्भव नहीं है! बुजुर्गो का सम्मानपूर्वक भय मानो आज के लॉक डाउन का उत्कृष्ट स्वरुप हो! भारतीय संस्कृति के ध्वजवाहक महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने कहा था- चलो चले वेदों की ओर, का अनुसरण करते हुए हमें अपनी सम्पन्न, स्वालम्बी, आत्म-निर्भर ग्रामीण जीवन पद्धति के विषय में पुनः विचारना पड़े।
हम क्या थे, क्या हैं, और क्या होंगे आगे अभी,
————-आओ मिलकर विचारे सभी!