ब्रिटिश हूकूमत से पहले भारत में खेती भारतीय जीवन शैली का परंपरागत अंग था।पशुपालन भी खेती किसानी का हिस्सा था। खेती स्वतंत्र एवं जीवन-निर्वाहक प्रकृति की थी। किसान स्वतंत्र थे, ग्रामीण समाज अपनी आवश्यकताओं के लिये किसी पर निर्भर नहीं था। 17वीं शताब्दी में अंग्रेज जब भारत आए, तो उन्होंने खेती का प्रयोग भारतीयों पर नियंत्रण प्राप्त करने के लिये एवं उनसे राजस्व वसूलने के लिये किया। अंग्रेजों के आने के बाद किसान राजस्व प्राप्ति एवं इंग्लैण्ड की औद्योगिक क्रांति की गति देने के साधन बनकर रह गये।
भारतीय खेती ने पहले विश्व युद्ध से पूर्व बाजार सभी खाद्यान्नों के लिये अनुकूल था। ऐसे में कृषि उत्पादकता जनसंख्या वृद्धि दर से अधिक हो गई। कृषि निर्यात बढ़ने पर भी प्रतिदिन प्रति व्यक्ति खाद्य उपलब्धता 540 ग्राम पहुंच गई। यह समय ब्रिटिश काल में भारतीय कृषि का सर्वोत्तम काल था। पहले विश्व युद्ध, 1930 की वैश्विक मंदी एवं दूसरे विश्व युद्ध ने निर्यात बाजार को संकुचित कर दिया। बंगाल के अकाल ने स्थिति को और अधिक भयावह बना दिया। खाद्य उपलब्धता घटकर 417 ग्राम प्रतिदिन प्रति व्यक्ति रह गई। इस प्रकार भारतीय कृषि में वैश्विक कारणों से उतार-चढ़ाव आते रहे।
पहली पंचवर्षीय योजना के दौरान 14.9 प्रतिशत खेती के लिए धनराशि आवंटित की गई। यह एक अच्छी पहल थी। इसके अलावा सिंचित क्षेत्रों का बढ़ना एवं अन्य भूमि सुधार उपायों के माध्यम से कृषि उत्पादकता में बढोत्तरी हुई। परंतु अनुकूल उत्पादन होने के बाद भी संभावनायें जमीन पर उतरती दिखाई नहीं दी। 60 के दशक के शुरूआत में नीति निर्धारक ऐसी कृषि तकनीक की खोज में थे जो इस तस्वीर को बदल सकें। 60 के दशक के मध्य तक यह तकनीक ‘‘चमत्कारी बीजों’’ के रूप में सामने आयी। यह तकनीक मैक्सिको में सफल हो चुकी थी। इस प्रकार भारतीय कृषि में हरित क्रांति के आगमन की पृष्ठभूमि तैयार हुई। यह क्रांति एचवाईवी, बीज, रसायन, कीटनाशकों एवं भू-मशीनीकरण पर आधारित थी। इस क्रांति ने भारतीय कृषि के तरीके को बदल कर रख दिया।
सिंचाई की अनेक तकनीकें आ चुकीं है। इन तकनीकों के बाद भी भारतीय कृषि आज भी मानसून पर निर्भर है। 1979 व 1987 में खराब मानसून के कारण पड़े सूखे ने हरित क्रांति की दीर्घकालीन उपयोगिता पर सवाल उठा दिए। जलवायु परिवर्तन एवं मौसमी घटनायें आज भी भारतीय खेती को अत्यंत प्रभावित करती हैं।
भारत के हर इलाके में हरित क्रांति के एक समान प्रयोग नही हुए। इसलिए समान परिणाम नही आए। इसका नतीजा क्षेत्रीय असंतुलन निकला। हरित क्रांति के सफलतम परिणाम पंजाब व हरियाणा में प्राप्त हुए। पं. बंगाल में भी उल्लेखनीय परिणाम थे, परंतु अन्य राज्यों में परिणाम संतोषजनक नहीं थे।इसका दूसरा पहलू भी है। हरित क्रांति ने भारतीय कृषि का व्यावसायीकरण कर दिया। कृषि से जुड़े हुए परंपरागत मूल्य एवं संस्कृति विलुप्त हो गई। इसके अतिरिक्त ज्यादा अनाज उत्पादन के दोष भी दिखाई दिए।
डीडीटी, लिन्डेन, सल्फेट जैसे हानिकारक कीटनाशकों ने पर्यावरण को दूषित किया। खेतिहर मजदूरों के स्वास्थ्य को प्रभावित किया। इसका प्रभाव जैव विविधता पर भी पड़ा। यह पक्षियों और किसान मित्र कीटों पर भी भारी पड़ा। पम्पसेट व ट्यूबवेल के अत्यधिक प्रयोग ने भूमिगत जल के प्राकृतिक संसाधन को भी प्रभावित किया है। भूमिगत जल का स्तर 30-40 फीट से 300-400 फीट तक पहुँच गया है।
अत्यधिक कृषि मशीनीकरण ने मानवीय श्रम को स्थानान्तरित कर दिया। इससे ग्रामीण बेरोजगारी व पलायन बढ़ा। इसने जैव विविधता व ग्रीन हाउस गैसों पर भी नकारात्मक प्रभाव डाला है। किसानों के पास साख व वित्त की कमी हुई। हरित क्रांति वर्षाजल संरक्षण में भी असफल रहा है। ज्यादा उत्पादन वाले बीजों, उर्वरकों, व मशीनों की सभी किसानों तक पहुंच न होने के कारण किसानों में असमानता बढ़ गई। अनेक गरीब किसान इस कारण कर्जदार हुए।
भारत को खाद्य सुरक्षा व अन्न के मामले में आत्म निर्भरता बनाने के लिये खेती की विविधता पर जोर देना जरूरी है। भारतीय खेती व्यापारिक फसलों के विविधिकरण, वर्षाजल संरक्षण, एग्रो प्रोसेसिंग उद्योगों को प्रोत्साहन, वन संरक्षण, बेकार पड़ी भूमि के प्रयोग व निर्यात संवर्द्धन के साथ-साथ एक और उत्पादकता क्रांति की आवश्यकता है।