सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि 1937 के विधानसभा चुनाव में क्या कांग्रेस और मुस्लिम लीग का दृष्टिकोण भिन्न था? अगर भिन्न था तो उसका सार क्या था? यह समझने के लिए इतिहास के पन्ने पलटते हुए खोजना होगा कि इनमें जो विवाद पैदा हुआ, वह वास्तव में किन बातों पर था। उस समय की घटनाओं पर अनेक इतिहासकारों ने लिखा है। ताराचंद की पुस्तक है – ‘भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास’। इसके चौथे खंड में वे उस समय के विवाद के बारे में बताते हैं। उनका निष्कर्ष है, ‘विवाद इन तीन विषयों पर था।’- पहला, ‘कांग्रेस ने 1937 के चुनाव इसलिए लड़े कि स्वराज का प्रचार किया जाए और फिर पद ग्रहण की अनुमति दे दी जाए। इस तरह कांग्रेस का ध्येय 1935 के संविधान को बेकार सिद्ध करना था। मुस्लिम लीग का दृष्टिकोण भी बिल्कुल यही था। वह भी पूर्ण उत्तरदायी स्वराज चाहती थी, परंतु वह जैसा भी संविधान था, उपयोग करने के लिए पद ग्रहण करने के पक्ष में थी।
जवाहरलाल नेहरू मानते थे कि भारत में केवल दो ही पक्ष हैं। कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार। उन्होंने मुस्लिम लीग के तर्कों को मिथ्या और अवास्तविक माना। जो विवाद उत्तर प्रदेश के चुनाव से शुरू हुआ वह भारत विभाजन में परिवर्तित हो गया। इसका अर्थ एक ही है। वह यह कि 1937 के विधानसभा चुनाव ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग में जो विवाद पैदा किया वह अंतत: भारत विभाजन का कारण बना।
जिन्ना समझते थे कि कांग्रेस का रुख पाखंडपूर्ण तथा अवास्तविक है। उन्होंने बताया कि 1923 में स्वराज पार्टी ने यही लक्ष्य बताया था, परंतु जब काम करने लगे तो यह ध्येय झूठा साबित हुआ। इसके बाद प्रांतों में कांग्रेस के मंत्रिमंडलों के कार्य से सिद्ध हो गया कि जिन्ना का कथन सही था।’ दूसरा, ‘प्रधानमंत्री रेमसे मेक्डोनाल्ड के साम्प्रदायिक परिनिर्णय के विषय में कांग्रेस का रुख न तो अनुकूल था और न प्रतिकूल। कांग्रेस चाहती थी कि समुदायों में स्वेच्छा से ही समझौता हो जाए। मुस्लिम लीग चाहती थी कि परिनिर्णय को अस्थाई रूप से स्वीकार कर लिया जाए और इसी बीच प्रयास किया जाए कि इसके स्थान पर समुदाय बातचीत करके आपस में समझौता कर लें।’ तीसरी, ‘सबसे बड़ी कठिनाई उपस्थित हुई कि कांग्रेस ने मुस्लिम लीग को स्वतंत्र इकाई मानने से इंकार कर दिया।’ इसके पीछे मुस्लिम समुदाय को एक राजनैतिक गुट या राष्ट्रीयता नहीं माना।’ एक मत यह है कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग, दोनों ने परिस्थिति को अपने-अपने दृष्टिकोण से देखा- समझा। आंकलन यथार्थपरक नहीं था। राजनीति थी और भावुकता थी। वह गहरी थी।
जवाहरलाल नेहरू मानते थे कि भारत में केवल दो ही पक्ष हैं। कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार। उन्होंने मुस्लिम लीग के तर्कों को मिथ्या और अवास्तविक माना। शशि थरूर ने अपनी पुस्तक ‘अंधकार काल- भारत में ब्रिटिश साम्राज्य’ में लिखा है कि ‘नेहरू को यह विश्वास नहीं था कि इसका अभिप्राय था कि देश का विभाजन अपरिहार्य है जिसे वे तब तक पूर्णतया अव्यावहारिक मानते थे।’ 1937 के चुनाव से उत्पन्न विषम परिस्थितियों का वर्णन कर शशि थरूर इस निष्कर्ष पर पहले स्वयं पहुंचते हैं और लिखकर वे पाठकों को भी परोसते हैं। वे गलत नहीं हैं। उनमें एक इतिहास दृष्टि है जो सच को सामने लाती है। कांग्रेस के नेता की खोल को उतारकर ही वे ऐसा कर सके हैं। इतिहासकार ताराचंद का मत है कि ‘मुस्लिम लीग मुसलमानों के हितों का संरक्षण चाहती थी, जिस पर मतभेद था।
जवाहरलाल नेहरू ने पूछा कि ये हित कौन से हैं। ये या तो सांस्कृतिक या धार्मिक या राजनीतिक थे।’ वे इसे ही विस्तार से लिखते हैं कि ‘सांस्कृतिक और धार्मिक हितों के विषय में कांग्रेस का स्पष्ट दृष्टिकोण क्या है। उसे वह कई बार गंभीरतापूर्वक सूचित करती थी कि संविधान में उनको इस प्रकार सुरक्षित किया जाएगा कि मुसलमानों को पूरा संतोष हो।’ ‘राजनैतिक हितों के विषय में जवाहरलाल नेहरू का यह विचार था कि वे मुख्यत: आर्थिक हित हैं जिनका संबंध धन के उत्पादन और वितरण से है। वे सारे भारतीयों पर समान रूप से लागू होते हैं, उनका धर्म, सामाजिक और सांस्कृतिक भेद से कोई संबंध नहीं है। इसलिए सम्प्रदाय के आधार पर उनमें कोई भेद नहीं किया जा सकता। सामान्य अधिकारों के अतिरिक्त ऐसे कोई विशेष आर्थिक अधिकार नहीं हो सकते जिनके लिए विशेष संवैधानिक या कानूनी संरक्षणों की आवश्यकता हो। सब प्राथमिक उत्पादकों की अर्थात किसानों की, कारखानों में काम करने वालों की, व्यापारियों और उद्योगपतियों की समस्याएं एक जैसी थीं।’ इस आधार पर जवाहरलाल नेहरू राजनैतिक कार्य का आर्थिक भाष्य करते थे। इसलिए उनका मत था कि साम्प्रदायिक राजनीति में आत्मघात है। इस विचार से वे साम्प्रदायिक आधार पर किसी दल के गठन को अनुचित समझते थे।
मुस्लिम लीग के बारे में भी उनका यही सुविचारित मत था। दूसरी तरफ मुस्लिम लीग के नेता इस विषय के दार्शनिक तत्व को नहीं देख पाते थे। उनका दृष्टिकोण यह था कि आर्थिक क्षेत्र से राजनैतिक क्षेत्र अधिक बड़ा है। राजनैतिक क्षेत्र धार्मिक, सांस्कृतिक और आर्थिक क्षेत्र से भिन्न है। राजनैतिक शक्ति का सार वे सत्ता में पाते थे। उससे वे मुस्लिम समाज के सामाजिक, आर्थिक और राष्ट्रीय मामलों पर निर्णय करने की शक्ति चाहते थे। इस दृष्टिकोण भिन्नता ने टकराव का रुख लिया। मुस्लिम लीग ने यह समझ लिया था कि कागजी संविधान में या संवैधानिक धाराओं में शक्ति नहीं होती। परंतु 1935 तक यह कोई ऐसी योजना नहीं बना सकी, जिसके द्वारा यह राजनैतिक शक्ति प्राप्त कर सके। 1937 और 1939 के बीच में इसको विश्वास नहीं रहा कि संरक्षणों या आरक्षणों या अन्य संवैधानिक युक्तियों के द्वारा ध्येय की प्राप्ति हो सकती है। इसे 1937 के चुनाव परिणाम में मुस्लिम लीग ने देख लिया था। अंत में लीग इस निर्णय पर पहुंची कि स्थिति का एकमात्र हल यह था कि एक अलग राज्य स्थापित होना चाहिए जो प्रभुता सम्पन्न हो।
1936 में जिन्ना ने जमायत-उल-उलमा से स्पष्ट कहा था कि समस्या मुख्यत: राजनैतिक है। धर्म, संस्कृति, भाषा या व्यक्तित्व के प्रश्न मूल नहीं है। जिन्ना की यह दृष्टि भी कांग्रेस से टकराव का कारण बनी। कांग्रेस और मुस्लिम लीग में बात कहां, कैसे और क्यों बिगड़ी? इसे संवैधानिक विकास के इतिहास में ढूंढ सकते हैं। पत्रकार दुर्गा दास की पुस्तक ‘भारत, कर्जन से नेहरू और बाद में’ उस समय की साक्षी देती है। जिसके बारे में डॉ. जाकिर हुसेन ने लिखा कि इसमें इतिहास को स्पष्टता और वस्तुपरकता से प्रस्तुत किया गया है। दुर्गा दास ने लिखा है कि जो विवाद उत्तर प्रदेश के चुनाव से शुरू हुआ वह भारत विभाजन में परिवर्तित हो गया। इसका अर्थ एक ही है। वह यह कि 1937 के विधानसभा चुनाव ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग में जो विवाद पैदा किया वह अंतत: भारत विभाजन का कारण बना। विवाद की टेढ़ी-मेढ़ी कहानी में रफी अहमद किदवई की बड़ी भूमिका रही। उत्तर प्रदेश के उन चुनावों में रफी अहमद किदवई कांग्रेस के कर्ताधर्ता थे। वे मोतीलाल नेहरू के निजी सचिव थे।
स्वराज पार्टी के कर्ताधर्ता थे। मोतीलाल नेहरू के निधन के बाद वे जवाहरलाल नेहरू के प्रवक्ता और प्रवर्तक हो गए। उत्तर प्रदेश के चुनावों को कांग्रेस की ओर से उन्होंने ही संचालित किया था। वे नहीं समझ सके कि उस चुनाव में मुस्लिम मतदाताओं का रुख क्या होगा, इसलिए रफी अहमद किदवई ने चौधरी खलीकुजमा और नवाब मोहम्मद इस्माइल सहित कांग्रेसी मुस्लिम नेताओं को मुस्लिम लीग के टिकट पर चुनाव लड़वाया। कांग्रेस चुनाव में अपने बलबूते स्पष्ट बहुमत पा सकेगी इसका उसे भरोसा नहीं था। इसलिए उसने कांग्रेसी मुसलमानों को मुस्लिम लीग के टिकट पर चुनाव लड़वाया। विचार यह था कि मिलीजुली सरकार बनायेंगे। इसमें कांग्रेस के अनुकूल जो मुस्लिम लीग के नेता जीतेंगे वे सरकार बनाने में मददगार होंगे। कांग्रेस की यह चाल उलटी पड़ी। चुनाव परिणाम ने कांग्रेस को जैसी सफलता दिलाई, उसकी नेताओं को उम्मीद ही नहीं थी। इससे कांग्रेस नेतृत्व का विचार बदला। अपनी सरकार बनाने की सोचा। जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष थे।
उत्तर प्रदेश के ही बारे में नहीं, बल्कि सारे देश के बारे में निर्णय लेने का उन्हें अधिकार था। कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता सरदार पटेल, मौलाना आजाद और गोविन्द बल्लभ पंत चाहते थे कि जैसा शुरू में विचार था, वैसा ही चुनाव परिणाम के बाद मुस्लिम लीग से मिलकर सरकार बनाई जाए। गांधीजी भी इसी मत के थे। इसके विपरीत नेहरू के स्पष्ट निर्देश पर रफी अहमद किदवई ने खलीकुजमा और उनके समर्थकों के सामने प्रस्ताव रखा कि वे कांग्रेस में पुन: शामिल हो जाएं। जिन्ना मुस्लिम लीग की अलग पहचान बनाने के लिए चुनाव के अवसर का इस्तेमाल करना चाहते थे। रफी अहमद किदवई के प्रस्ताव से जिन्ना का तेवर बदला। वे प्रतिक्रिया में आए। जिन्ना ने दुर्गा दास को एक इंटरव्यू दिया। वह 26 जुलाई, 1937 का है। उन्होंने कहा कि नेहरू हर काम में अडंगा डालते हैं। वे अपने काम के अलावा पूरी दुनिया का बोझ अपने कंधे पर उठाए घूम रहे हैं। ऐसे कांग्रेस अध्यक्ष के बारे में मैं क्या कह सकता हूं।
रफी अहमद किदवई ने जो प्रस्ताव रखा था उस पर खलीकुजमा सहमत थे, लेकिन जिन्ना विरोध में थे। प्रस्ताव यह था कि खलीकुजमा और दूसरे कांग्रेसी पुन: पार्टी में आ जाएं और मुस्लिम लीग छोड़ दें। ऐसा अगर वे करते तो कांग्रेस मंत्रिमंडल में उन्हें स्थान मिलता। जिन्ना उन्हें मुस्लिम लीग का प्रतिनिधि बनाकर कांग्रेस और मुस्लिम लीग की सरकार में भेजना चाहते थे। जो जवाहरलाल नेहरू को स्वीकार्य नहीं था। कांग्रेस ने सरकार बनाई। मुस्लिम लीग ने लड़ाकू भूमिका अपने लिए चुन ली।