[ एक बार भंगी बस्ती, नई दिल्ली की एक सायंकालीन प्रार्थना में एक भजन गाया था। उसमें गांधीजी को अपने स्वतंत्र भारत की मूलभूत बातों का चित्र उपस्थित होता दिखाई दिया, इस कारण वह भजन उन्हें बहुत पसंद आया था । उसका अँगरेजी अनुवाद स्वयं करके उन्होंने लॉर्ड पैथिक लॉरेंस को भेजा था । उस भजन का आशय इस प्रकार है: ]
हम ऐसे देश के निवासी हैं, जहाँ न तो शोक है और न कष्ट है; जहाँ न मोह है, न संताप है; न भ्रम है, न चाह है। जहाँ प्रेम की गंगा बहती है और सारी सृष्टि आनंदित रहती है। जहाँ सब लोगों के मन एक दिशा में काम करते हैं । जहाँ न दिन है, न रात है; न सन् है, न माह है। जहाँ सब लोगों की आवश्यकताएँ पूरी हो जाती हैं । जहाँ सारा सौदा न्यायपूर्ण होता है। जहाँ सब कोई एक ही साँचे में ढले हुए हैं । जहाँ न तो कोई अभाव है, न किसी तरह की चिंता है । जहाँ किसी प्रकार का स्वार्थ नहीं है। न ऊँच- नीच के भेद हैं और न मालिक – गुलाम के भेद हैं । जहाँ सर्वत्र प्रकाश फैला रहता है, परंतु वह किसी को जलाता नहीं। वह देश तेरे अंतर में है – वही स्वराज्य है, वही स्वदेशी है। जो उसकी चाह रखता है, वही उसका साक्षात्कार करता है । उस देश की जय हो, जय हो, जय हो !
यह उस जाति -विहीन और वर्ग-विहीन समाज का चित्र है, जिसमें न कोई ऊँचा है और न कोई नीचा है; सारे काम एक से हैं और सारे कामों की मजदूरी भी एक- सी है; जिन लोगों के पास अधिक है, वे अपने लाभ का उपयोग खुद के लिए नहीं करते, परंतु उसे पवित्र धरोहर मानकर ऐसे लोगों की सेवा में उसका उपयोग करते हैं, जिनके पास कम है। ऐसे समाज में धंधों के चुनाव में प्रेरक बल की व्यक्तिगत उन्नति नहीं होती, बल्कि समाज की सेवा करके आत्माभिव्यक्ति और आत्म-साक्षात्कार करना ही उसका प्रेरक हेतु होता है ।
चूँकि ऐसे समाज में सब तरह के कामों का समान आदर होता है और उनके लिए एक-सा वेतन मिलता है, इसलिए वंश-परंपरागत कुशलताएँ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में सुरक्षित रहती हैं और व्यक्तिगत लाभ के प्रलोभन के लिए उनकी कुरबानी नहीं की जाती । समान- सेवा का सिद्धांत अनियंत्रित, आत्मीयता – रहित प्रतिस्पर्धा का स्थान लेता है। ऐसे समाज में हर एक व्यक्ति कड़ा परिश्रम करता है, जिसे काफी फुरसत रहती है, उन्नति का अवसर मिलता है और शिक्षा तथा संस्कृति के विकास के लिए आवश्यक सुविधाएँ मिलती हैं। वह कुटीर उद्योगों की तथा छोटे पैमाने पर चलनेवाली सघन सहकारी खेती की आकर्षक दुनिया होती है – ऐसी दुनिया, जिसमें सांप्रदायिकता अथवा जातिवाद के लिए कोई स्थान नहीं होता ।
अंत में, वह स्वदेशी की दुनिया है, जिसमें आर्थिक व्यवहार की सीमाएँ तो अधिक निकट आ जाती हैं, परंतु व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सीमाएँ अधिक-से-अधिक विस्तृत हो जाती हैं । प्रत्येक व्यक्ति अपने आस-पास के वातावरण के लिए जिम्मेदार होता है और सारे व्यक्ति समाज के लिए जिम्मेदार होते हैं । उसमें अधिकारों और कर्तव्यों का नियमन परस्परावलंबन के सिद्धांत से तथा परस्पर के आदान-प्रदान से होता है। ऐसे समाज में उसके अंगभूत व्यक्तियों तथा संपूर्ण समाज के बीच कोई संघर्ष नहीं होता; और न तो राष्ट्रवाद के संकुचित, स्वार्थी या आक्रामक बनने का खतरा रहता है, न अंतर राष्ट्रीयतावाद के निरा आदर्श बन जाने का खतरा होता है ।
ऐसे आदर्श समाज में न कोई गरीब होगा, न भिखारी; न कोई ऊँचा होगा, न नीचा, न कोई करोड़पति मालिक होगा, न आधा भूखा नौकर; न शराब होगी, न कोई दूसरी नशीली चीज । सब अपने आप खुशी से और गर्व से अपनी रोटी कमाने के लिए मेहनत करेंगे। वहाँ स्त्रियों की भी वही इज्जत होगी जो पुरुषों की; और स्त्रियों तथा पुरुषों के शील एवं पवित्रता की रक्षा की जाएगी। अपनी पत्नी के सिवा हर एक स्त्री को उसकी उम्र के अनुसार हर धर्म के पुरुष माँ, बहन और बेटी समझेंगे। वहाँ अस्पृश्यता नहीं होगी और सब धर्मों के प्रति समान आदर रखा जाएगा। मैं आशा करता हूँ कि जो यह सब सुनेंगे या पढ़ेंगे, वे मुझे क्षमा करेंगे कि जीवन देनेवाले सूर्यदेवता की धूप में पड़े-पड़े मैं इस काल्पनिक आनंद की लहर में बह गया ।