नेपाल में लोकतंत्र की बहाली और राजतंत्र का अंत काफी रक्तरंजित रहा था और नेपाल में राजनीतिक उथल-पुथल का लंबा इतिहास रहा है और एक बार फिर नेपाल में संसद भंग कर दी गई है|अभी संसद का कार्यकाल दो साल बचा था |राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी ने नए जनादेश के लिए 30 अप्रैल और दस मई को दो चरणों में चुनाव कराए जाने की घोषणा भी कर दी है|
नेपाल में दशकों की राजनीतिक उथल-पुथल के बाद यह पहला मौक़ा था जब देश में लोकतांत्रिक तरीक़े से चुनकर बहुमत वाली स्थायी सरकार आई थी| इस सरकार से लोगों की अपेक्षाएं जुड़ी हुई थीं लेकिन क्या वजह रही कि नेपाल में संसद भंग करनी पड़ी?
नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता के लिए कोई एक ही कारण हो, ऐसा नहीं है|बहुमत होने के बाद भी स्थायित्व का अभाव रहा| इसके लिए राजनीतिक पार्टियों, उनकी नीतियों, अनुभव और दूरदर्शिता को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है| नेपाल की राजनीति में जो कुछ हो रहा है उसका सबसे बड़ा कारण सत्ताधारी पार्टी में ज़बर्दस्त आंतरिक मतभेद है |कई वरिष्ठ नेता प्रधानमंत्री के और उनकी नीतियों के ख़िलाफ़ हैं| इसमें कई नाम उन नेताओं के भी है जो पहले प्रधानमंत्री रह चुके हैं, मसलन, प्रचंड, माधव नेपाल उनके ख़िलाफ़ है| इन नेताओं को लगा कि प्रधानमंत्री पार्टी से बिना सलाह-मशविरा किये बड़े फ़ैसले ले रहे हैं और कई ऐसे फ़ैसले भी ले रहे हैं जो असंवैधानिक हैं |
इसमें हाल में प्रधानमंत्री का लाया गया वो अध्यादेश भी शामिल है जिसके तहत वो संसदीय समितियों को नियंत्रित करना चाहते हैं, यह एक बड़ा कारण बना| इसके अलावा प्रधानमंत्री के खिलाफ़ जो कुछ भ्रष्टाचार के मामले सामने आए वो भी एक अहम वजह रही कि पार्टी विघटन की ओर बढ़ रही थी. इसी बीच पीएम ओली ने संसद भंग करने की सिफ़ारिश कर दी|
यह घटनाक्रम आश्चर्य में डालने वाला है| यह सरकार सिर्फ़ चुनी हुई सरकार नहीं थी बल्कि इसे किसी दूसरे विरोधी दल से कोई ख़तरा भी नहीं था| ऐसे में प्रधानमंत्री ओली का संसद को भंग करने की सिफ़ारिश करना अजीब है|”फिलहाल देश में कोई ऐसी स्थिति नहीं थी कि संसद भंग करने की सिफ़ारिश करनी पड़े | केवल अपनी पार्टी के कुछ असंतुष्ट लोगों से व्यक्तिगत रूप से अपनी सरकार बचाने के लिए ओली ने पूरे देश को संकट में डाल दिया है| इस क़दम से ओली अल्पमत में आ गए हैं | 15 तारीख़ को संवैधानिक परिषद अधिनियम में संशोधन को लेकर जो अध्यादेश आए उसी से उनकी मंशा स्पष्ट हो गई | इस संशोधन से पीएम को अपार शक्ति मिल जाती |
“इसी अध्यादेश को वापस लेने की मांग पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने की. हालांकि बाद में यह दावा भी किया गया कि ओली ने सहमति दी थी कि वो इस अध्यादेश को वापस ले लेंगे लेकिन वो कुछ कर नहीं रहे थे | इसलिए पार्टी के कुछ नेताओं ने संसद का विशेष अधिवेशन बुलाने की मांग की थी | संभव है कि ओली को लगा कि अगर ऐसा होता है तो उनकी सत्ता पर पकड़ कमज़ोर हो जाएगी और उसे ही बचाने के लिए उन्होंने सिफ़ारिश कर दी | हालांकि नेपाल के संविधान में प्रधानमंत्री को संसद भंग करने की सिफारिस करने का अधिकार नहीं दिया गया है |
तीन साल पहले केपी शर्मा ओली के नेतृत्व में तत्कालीन सीपीएन (यूएमएल) और प्रचंड के नेतृत्व वाले सीपीएन (माओवादी) ने चुनावी गठबंधन बनाया था | इस गठबंधन को चुनावों में दो-तिहाई बहुमत मिला था| सरकार बनने के कुछ समय बाद ही दोनों दलों का विलय हो गया था | लेकिन कुछ समय बाद ही गतिरोध सामने आने लगे थे, जिसका ज़िक्र सोमवार को पीएम ओली ने अपने राष्ट्र संबोधन के दौरान भी किया| ओली पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को विकृतियां पैदा करने का ज़िम्मेदार बताते हैं तो वहीं पार्टी के सह अध्यक्ष ‘प्रचंड’, माधव कुमार नेपाल और झाला नाथ खनाल जैसे वरिष्ठ नेता काफी पहले से ओली पर पार्टी और सरकार को एकतरफ़ा चलाने का आरोप लगाते रहे है |
नेपाल में माओवादी विद्रोहियों के साथ 10 साल लंबा गृहयु्द्ध चला था | नेपाल में 90 के दशक में माओवादियों ने देश में लोकतंत्र क़ायम करने और एक नए संविधान की मांग करते हुए हथियार उठा लिए थे |10 साल तक चले गृहयुद्ध का अंत 2006 में एक शांति समझौते से हुआ|
इसके दो साल बाद नेपाल में संविधान सभा के चुनाव हुए जिसमें माओवादियों की जीत हुई| साथ ही, 240 साल पुरानी राजशाही का अंत हो गया| मगर मतभेदों की वजह से संविधान सभा नया संविधान नहीं बना सकी और कार्यकाल का कई बार विस्तार करना पड़ा | आख़िरकार 2015 में एक संविधान को स्वीकृति मिल पाई| लेकिन नेपाल में लोकतंत्र बहाल तो हो गया पर उसमें लगातार अस्थिरता बनी रही| नेपाल में संसद बहाल होने के बाद से अब तक दस प्रधानमंत्री हुए हैं |
नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता को समझने के लिए नेपाल की राजनीति को दो हिस्सों में बांटकर देखना होगा | एक वो समय जब राजतंत्र था | तो राजतंत्र तो लगभग-लगभग समाप्त हो गया साल 2006 लेकिन विधिवत राजतंत्र समाप्त हुआ साल 2008 में | साल 2008 में पहले प्रधानमंत्री बने प्रचंड| प्रचंड का कार्यकाल नौ महीने का ही रहा | सेनाध्यक्ष कटवाल को बर्खास्त करना उनके हित में नहीं रहा और उनका कार्यकाल नौ महीने में ही ख़त्म हो गया |