ऐसा क्या है कि पूरी दुनिया गांधीजी में आज भी रुचि ले रही है? देश-दुनिया की बड़ी समस्याओं के समाधान के लिए उनके विचारों की ओर उम्मीद से देखा जा रहा है। कुछ तो है। गांधी विचार में नवीनता अगर नहीं होती तो 71 साल बाद भी उन पर अध्ययन का सतत क्रम बना नहीं रहता। उनके विश्वव्यापी महत्व को इस तथ्य से भी समझा जा सकता है कि करीब सौ देशों में उनके चित्र वाले 250 से ज्यादा डाक टिकट जारी हुए हैं। हमारे देश में नगदी के नोटों पर उनके चित्र हैं। हर शहर में उनके नाम पर सड़कें हैं। जगह-जगह, चौराहों पर, भवनों के भीतर उनकी प्रतिमा-फोटो लगी रहती है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हाल ही में महात्मा गांधी का एक डिजिटल संग्रहालय बनवाया है। लेखक और क्यूरेटर विरद राजाराम याज्ञनिक ने बताया कि 120 देशों से लोग संग्रहालय देखने आ चुके हैं। इस संग्रहालय में नई पीढ़ी महात्मा गांधी के साथ सेल्फी ले सकती है। आने वाला हर दर्शक ऐसा कर भी रहा है। इस संग्रहालय में गांधीजी की आवाज सुनी जा सकती है। दर्शक यहां आकर देख सकते हैं कि युवा गांधी ने कैसे महात्मा गांधी की यात्रा पूरी की। इतिहास में ऐसा कोई नहीं है, जिस पर इतने विविध माध्यमों से निरंतर काम हो रहा हो। जिस पर इतनी संख्या में हर साल पुस्तकें भी छपती हों, जितनी महात्मा गांधी पर छपती हैं।
ऐसे गांधीजी को उनके जीवनकाल में ही आदर और श्रद्धा से अनेक नामों से विभूषित किया गया। वे नाम उनके पर्याय बन गए हैं। चलन में बने हुए हैं। रवींद्रनाथ ठाकुर ने उन्हें महात्मा कहा। नेताजी सुभाष चंद्र बोस उनसे स्वाधीनता संग्राम की पद्धति पर राजनीतिक रूप से असहमत थे, फिर भी युद्ध की रणभेरी बजाने से पहले उन्हें राष्ट्रपिता कहकर संबोधित किया। वह संबोधन विदेश की भूमि से था। गुजरात ने उन्हें प्यार से बापू कहा। विंस्टन चर्चिल ने उन्हें नंगा फकीर कहा। नेलशन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग जैसे विभूतियों ने उन्हें अहिंसा का पुजारी माना। वे उनके रास्ते पर चले। उनकी मां उन्हें मुनिया पुकारती थी।
इतिहासकार धर्मपाल की धारणा थी कि वे हनुमान रूप थे। क्या ऐसा कोई अभागा होगा जो महात्मा गांधी का नाम न सुना हो? शायद ही ऐसा कोई होगा। फिर भी यह जानना रह ही जाता है कि वे वास्तव में कौन थे? यह इस पर भी निर्भर करता है कि कौन किस नजरिए से उन्हें देख रहा है। इसी तरह एक प्रश्न और है कि उन्हें समग्रता में जानने के लिए किस नाम से पुकारें?इसका एक उत्तर यह हो सकता है कि मोहन दास से महात्मा गांधी बनने की कहानी को भली-भांति समझें। इससे उन्हें जानना संभव हो सकता है।
महात्मा गांधी एक पहेली बना दिए गए हैं। इस कारण उन्हें जानने के लिए कई गुत्थियों को सुलझाना जरूरी हो जाता है। संभवत: यही समझकर अलबर्ट आइंस्टीन ने सच ही लिखा था कि ‘भावी पीढ़ियों को विश्वास ही नहीं होगा कि इस धरती पर हाड़-मांस का कोई गांधी कभी जन्मा भी था।’ यह उन्होंने उस समय लिखा, जब दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया था। उनकी नजर में गांधी मानवता के प्रतीक थे। पूरी पृथ्वी का हित उनके जीवन में झलकता था। बात 1939 की है। गांधीजी के अनोखेपन पर विराम नहीं लगा है। तभी तो रामचंद्र गुहा एक संदर्भ का उल्लेख कर लिखते हैं कि ‘गांधी एक समस्या है। संविधानवादियों की नजर में वे धुर क्रांतिकारी हैं। मुस्लिम नेताओं के लिए सांप्रदायिक हिन्दू हैं।’
इनसे एक अर्थ यह निकलता है कि गांधीजी अपने जीवनकाल में भी अबूझ माने जाते थे। उनके रहते जब यह प्रश्न था,कुछ लोगों के लिए गुत्थी भी थी तो आज अगर वह थोड़ा जटिल हो गई है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। अपने जीवनकाल में वे हर प्रश्न का उत्तर देने के लिए स्वयं उपस्थित थे। समाधान के सूत्र खोजने के लिए हमेशा उद्यत रहते थे। गांधीजी के जाने के बाद उनकी परिभाषा का प्रश्न प्रारंभ से ही बना हुआ है। उन्हें अपने-अपने नजरिए से देखने और दिखाने का सिलसिला जो चल पड़ा, वह रुकने का नाम नहीं लेता। क्या कभी इस पर विराम लगेगा? यह प्रश्न गांधी के हर जिज्ञासु के सामने है। एक बार किसी ने विनोबा से पूछा कि ‘उन्हें ‘गांधी’ कहा जाए या ‘गांधीजी’? ‘विनोबा ने समझाया-‘आप अगर उन्हें व्यक्ति मानते हों, एक पूज्य पुरुष के रूप में देखते हों तो ‘गांधीजी’ कहिए। लेकिन यदि उन्हें विचार मानते हों तो ‘गांधी’ कहना चाहिए।’
प्रश्न गांधी या गांधीजी का ही होता तो विनोबा के उत्तर से समाधान हो जाता। गांधीजी के जाने के बाद जब यह प्रश्न आया कि उन्हें कैसे समझें, तब देश-दुनिया ने उनके सहयोगियों का सहारा लिया। समस्या खड़ी हुई इससे कि उनके सहयोगियों ने परस्पर विरोधी व्याख्याएं प्रस्तुत की। तो क्या गांधीजी को उनके सहयोगियों ने भी सही ढंग से नहीं समझा? स्वयं पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है-‘जहां तक गांधीजी का प्रश्न है,उनको समझ पाना बड़ा कठिन था।
कभी-कभी उनकी भाषा एक औसत आधुनिक के लिए अबोध हो जाती थी। फिर भी हमें लगता था कि हम उनको इतनी अच्छी तरह से जानते ही हैं कि समझ सकें कि वह एक महान और अनूठे आदमी और यशस्वी नेता हैं।’ इसमें नेहरू मान रहे हैं कि वे गांधीजी को समझ नहीं सके। वे उनका आदर जरूर करते थे। क्यों नहीं समझ सके! इसे विचारक बनवारी स्पष्ट करते हैं। उन्होंने लिखा है कि ‘वे (गांधीजी) अद्भुत सेनापति थे और उनकी बुद्धि को समझ पाना ब्रिटिश राज्य के लिए तो क्या उनके अपने निकट सहयोगियों के लिए भी संभव नहीं था। जवाहरलाल नेहरू के लिए तो और भी कम, क्योंकि उन्होंने गांधीजी को हमेशा प्रतिकूल बुद्धि से ही देखा था।’ इस आधार पर माना जा सकता है कि गांधीजी को प्रतिकूल, अनुकूल और यथार्थ बुद्धि से देखने का जो क्रम उनके जीवन में प्रारंभ हुआ, वह आज भी जारी है। इसमें उनके सहयोगी, विरोधी और जिज्ञासु आदि सभी आते हैं।
कभी गांधीजी व्यक्ति थे। व्यक्तिरूप गांधीजी कैसे महापुरुष बने? इसे विनोबा ने एक बार बताया-‘गांधीजी जैसे इतने बड़े महापुरुष हमारे लिए हो गए। फिर भी भगवान की कृपा है कि वे अलौकिक पुरुष पैदा नहीं हुए। शुकदेव जन्म से ही ज्ञानी थे। कपिल महामुनि जनमते ही मां को उपदेश देने लगे। शंकराचार्य आठ वर्ष की उम्र में वेदाभ्यास पूरा करके भाष्य लिखने लगे। लेकिन गांधीजी ऐसी कोटि में पैदा नहीं हुए। वे समान्य मानव थे। इस जीवन में उन्होंने जो कुछ प्राप्त किया,अपनी प्रत्यक्ष साधना और सत्य निष्ठा से किया।’ आज वे विचाररूप हैं।
उनके विचार को जिज्ञासु-भाव से समझने की आवश्यकता आज पहले से कहीं अधिक है। जो लोग गांधीजी और उनके विचार को जानना चाहते हैं, उन्हें विचारक बनवारी की पुस्तक-‘भारत का स्वराज्य और महात्मा गांधी’ अवश्य पढ़नी चाहिए। ‘मेरे सामने यह प्रश्न है कि अब बापू के बाद उनके कार्यक्रम और विचारों के बारे में मेरा मार्गदर्शन कौन कर सकता है? मैं जानना चाहता हूं। उत्तर की जरूरत मेरे जैसे लाखों आदमियों को मालूम होती है।’ देवदास गांधी ने यह तब पूछा था। वे महात्मा गांधी के बेटे थे। मशहूर संपादक थे। उन्होंने यह प्रश्न सेवाग्राम आश्रम में उपस्थित गांधीजी के निकटस्थ सहयोगियों के समक्ष रखा था। तारीख थी-11 मार्च, 1948। देवदास गांधी आधुनिक समय के नचिकेता रूप माने जाएंगे। वे अगर आज होते तो बनवारी की पुस्तक से उन्हें समाधान हो जाता।
जिस किसी के मन में प्रश्न हो कि आज गांधीजी को कैसे जानें?कौन थे मोहन दास गांधी? क्या महात्मा गांधी उनसे भिन्न थे? ऐसे प्रश्न विनोबा से भी पूछे गए। उनका कहना था-‘वे तो रोज-रोज बदलते,पल-पल विकसित होते रहे हैं।’ तभी तो मोहन दास महात्मा गांधी बन सके। मूल प्रश्न यही है कि किस तरह और विचार की वह थाती क्या थी, जिससे महात्मा गांधी का व्यक्तित्व बना। इसे जो समझ लेगा, वह जान सकेगा कि मोहन दास कैसे महात्मा गांधी बने। इसे समझने-समझाने का सही परिप्रेक्ष्य में प्रयास कम ही हुआ है। गांधीजी को एक खांचे में बैठाने की कोशिशें ज्यादा हुई हैं। उन्हें नए सिरे से समझने की जरूरत है। तभी अपने आस-पास की दुनिया के बारे में सही समझ पैदा होगी। सही समझ जिसे हो जाती है, वह स्वयं को उपलब्ध हो जाता है। यही गांधी के साथ हुआ। उस महात्मा गांधी का साक्षात दर्शन भी स्वयं को उपलब्ध व्यक्ति कर सकेगा। उनसे तदाकार हो सकेगा।
मोहन दास गांधी प्रस्थान के व्यक्ति हैं। महात्मा गांधी मंजिल हैं। यही इनमें अंतर है। इस दृष्टि से मोहन दास गांधी हमेशा प्रासंगिक रहेंगे। लेकिन महात्मा गांधी तो हमेशा ही अकादमिक अध्ययन के विषय माने जाएंगे। पहले को जानना उनके साथ यात्रा करना है। दूसरे की व्याख्या संभव है, उनके साथ यात्रा नहीं। मोहन दास गांधी प्रेरक हैं। उनसे प्रेरणा प्राप्त की जा सकती है। लेकिन महात्मा गांधी को विभिन्न व्याख्याओं से जाना जा सकता है। मोहन दास को जीवन में उतारना संभव है। महात्मा गांधी आज होते तो क्या करते, यह बौद्धिक विमर्श का विषय है।
फ्रांसीसी मनीषी रोमां रोलां ने महात्मा गांधी के बारे में इस तरह दुनिया को बताया- ‘महात्मा जिन्होंने विश्व सत्ता के साथ अपने को एकाकार कर दिया है।’ उन्होंने मोहन दास गांधी का भी एक शब्द चित्र बनाया। ‘शांत, काली आंखें। छोटा कद, दुबला शरीर, लंबोतरा चेहरा, सूप-जैसे कान। माथे पर सफेद टोपी, पहनावे में साफ धुले कपड़े, पैर नंगे। भोजन में भात और फल, पानी के सिवा और कुछ नहीं पीते। लेटते हैं जमीन पर,सोते हैं कम,काम करते हैं लगातार। शरीर की तो जैसे खोज-खबर ही नहीं रखते।’ वे यह भी बताते हैं कि ‘आदमी सरल शिशु जैसा है, अपने विरोधियों के साथ भी मधुर और विनयी, आंतरिकता में कहीं जरा-सी भी खोट नहीं है।’ उन्होंने लिखा कि ‘यही हैं वे व्यक्ति,जिन्होंने 30 करोड़ जनों को जगा दिया है, कंपा दिया है ब्रिटिश साम्राज्य को और आरंभ किया है मानव-राजनीति का एक ऐसा सशक्त आंदोलन, जिसकी तुलना लगभग दो हजार वर्षों के इतिहास में नहीं है।’
रोमां रोलां दूसरे जीवनी लेखक थे। गांधीजी के पहले जीवनी लेखक जोसेफ जे डोक थे। उन्होंने भारत की यात्रा की थी। इसलिए गांधीजी के ‘चेहरे और देह की’ एक कल्पना उन्होंने कर रखी थी। जब मिले तो विस्मित हुए। आश्चर्य दूसरे पर होता है और विस्मय स्वयं पर। जोसेफ जे डोक भी खुद पर ही विस्मित हुए, क्योंकि उन्होंने जो देखा वह उनकी कल्पना के विपरीत था। उनके शब्द हैं-‘एक नाटा, सुकुमार और दुबला-पतला व्यक्ति मेरे सम्मुख खड़ा था, जिसका सुसंस्कृत और ईमानदार चेहरा मुझे देख रहा था। उसकी त्वचा और आंखें काली थीं, लेकिन चेहरे को दीपित करती हुई उसकी मुस्कराहट तथा निर्भय दृष्टि किसी को भी अपने साथ बहा ले सकती थी।’
ऐसे महात्मा गांधी के बचपन की दो घटनाएं हैं। पहली घटना नकल न करने की है। शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर जाइल्स का स्कूल में निरीक्षण था। हर छात्र को उनके सामने अंग्रेजी के पांच शब्द लिखने थे। मोहन दास नकल करके सही शब्द लिख दें इसका इशारा उनके अध्यापक ने किया। लेकिन वे ऐसा न करने के लिए कृतसंकल्प थे।
अपनी आत्मकथा में गांधीजी ने लिखा है कि ‘मैं दूसरे लड़कों की पट्टी में देखकर चोरी करना कभी सीख न सका।’ दूसरी घटना थी। ‘शनिवार को खेल के घंटे से तुम गैर हाजिर क्यों थे? ’प्रिंसिपल ने अपने सामने लाए गए चौदह साल के छात्र से यह पूछा। उसने जवाब दिया-‘सर, मैं अपने पिताजी की सेवा में था। मेरे पास घड़ी नहीं है, बादलों के कारण धोखा हुआ और समय का सही अंदाज नहीं लगा सका। जब मैं पहुंचा तो सब लड़के जा चुके थे।’‘झूठ बोल रहे हो?’ प्रधानाध्यापक ने रुखाई से कहा। 1883 का वह साल था। जगह थी राजकोट। गुजरात की एक छोटी सी रियासत। वहां के एलफ्रेड हाई स्कूल के प्रिसिंपल दोराब जी एदलजी गीमी अनुशासन के मामले में कठोर थे। यह उदाहरण मोहन दास गांधी का है। उस उम्र में भी चरित्र के प्रति ऐसी जागरूकता एक अनहोनी बात है। सत्य, ईमानदारी और दृढ़ निष्ठा उनमें बचपन से ही थी। महात्मा गांधी ने स्वयं यह स्वीकार किया है-‘जो भी सद्गुण आप मुझमें देखते हैं, वह मैंने अपनी मां से पाई।’
‘बचपन में मोहन दास गांधी झिझक से भरे हुए, शर्मिले, लेकिन सत्यवादी और निष्ठावान थे। माता-पिता में उनकी गहरी श्रद्धा थी और स्कूली पढ़ाई के बाद वे अपने पिता की सेवा में जुट जाते थे। पढ़ाई-लिखाई में गांधी मंद नहीं थे, पर संकोची थे। उनके स्वभाव में आरंभ में जो झिझक और संकोच था, वह उनकी अन्तर्मुखता के कारण था।’ ऐसे मोहन दास कानून की पढ़ाई के लिए लंदन गए। पढ़ाई पूरी की। लंदन में कानून की पढ़ाई के दौरान उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय से मैट्रिक की परीक्षा पास करने का निर्णय लिया, जिसमें एक विषय लैटिन भाषा का भी था। उस समय के उनके श्रम और लगन का विवरण पढ़कर कोई भी यह मानेगा कि वे अध्यवसाई थे और अपने हर काम को गंभीर-पूर्वक लेते थे। शुरू में उनका ख्याल था कि वह ‘अंग्रेज’ बन सकते हैं। इसलिए उन्होंने अपनी पोशाक बदली। वहां के रहन-सहन को अपनाया।
थोड़े दिनों बाद ही उन्हें समझ में आ गया कि बीच की दीवार बहुत उंची है। लुई फिशर ने लिखा है कि ‘उन्होंने समझ लिया कि वे भारतीय ही रहेंगे और वे भारतीय हो गए।’ ऐसा क्यों हुआ और कैसे हुआ? इसे बनवारी ने समझाया है- ‘लंदन में उनकी सबसे बड़ी समस्या शाकाहार थी।’…उन्हें एक शाकाहारी रेस्तरां मिला और वे वहां के शाकाहारी आंदोलन में कूद पड़े। उन्होंने शाकाहार संबंधी साहित्य पढ़ा। वेजवाटर में, जहां वे कुछ दिन रहे थे, उन्होंने शाकाहारी क्लब की स्थापना की। उस समय के प्रसिद्ध शाकाहारी सर एडविन आरनोल्ड से संपर्क किया। वेजिटेरियन पत्रिका में नौ लेख लिखे। शाकाहार का प्रचार करने वाले सम्मेलनों में गए।’ लंदन में पढ़ाई के दौरान ही सच्चे गांधी के लक्षण उभरने लगे थे।
वहां वे दो साल आठ महीने रहकर भारत लौटे। वकालत करने की सोची। लेकिन अनेक तरह की अड़चनों में वे पड़े रहे। एक बड़ी अड़चन यह थी कि वे इसे स्वीकार करने के लिए तैयार ही नहीं थे कि वकालत पेशे में सब कुछ चलता है। वह अड़चन मनोवैज्ञानिक थी। उस उधेड़बुन के दौर में उन्हें दक्षिण अफ्रीका के एक मुकदमे में सहायता करने का प्रस्ताव मिला। वे पानी के जहाज पर सवार हुए। डरबन के लिए चल पड़े। वे 1893 के मई में डरबन पहुंचे। वहां उनके मुवक्किल अब्दुल्ला सेठ उन्हें अदालत दिखाने ले गए। गांधी के सिर पर पगड़ी थी। यूरोपीय मजिस्ट्रेट ने पगड़ी उतारने का आदेश दिया। इसे अपमान समझकर उन्होंने इंकार कर दिया और अदालत से बाहर चले आए। स्थानीय समाचार पत्रों में मजिस्ट्रेट के दुर्व्यवहार के बारे में खूब पत्र लिखे। रंगभेद के विरोध में वे आवाज उठा रहे थे। इस रूप में वे पत्रकार गांधी भी थे। वे वहां एक सप्ताह रुके। फिर प्रिटोरिया चले गए। जहां रहकर उन्हें अब्दुल्ला सेठ का मुकदमा लड़ना था। अब्दुल्ला सेठ नटाल के सबसे धनी भारतीय व्यवारियों में गिने जाते थे।
डरबन से प्रिटोरिया जाते हुए रास्ते में जो कुछ गुजरा उसकी तुलना में डरबन वाली घटना कुछ नहीं थी। उन्हें पहले दर्जे की बोगी छोड़कर निचले दर्जे के आखिरी बोगी में जाने के लिए कहा गया। इनकार करने पर बड़ी बेहूदगी से उन्हें गाड़ी से उतार दिया गया। जहां वे ठिठुरती ठंड में रात गुजारते हुए उस शर्मनाक घटना पर सोचते रहे।
रंगभेद और अपमान की उस घटना ने गांधी के सामने सवाल खड़े कर दिए। क्या यहां से भाग जाएं? कब तक भागते रहेंगे? दूसरे सवाल ने उनके मन में निश्चय का भाव पैदा किया। डरबन से प्रिटोरिया की यात्रा पांच दिनों की थी। उसमें अपमान के पचासों झटके उन्हें लगे। जिससे वे दक्षिण अफ्रीका में भारतीय लोगों की अपमानजनक जिंदगी की एक झलक खुद देख सके। वहां ऐसी घटना आम थी। नई बात थी उन घटनाओं पर गांधीजी की प्रतिक्रिया और उसे समाप्त करने का संकल्प। उससे ही राजनीतिक गांधी का जन्म हुआ। वे तब 24 साल के थे। जो देखा उसके विरुद्ध संघर्ष छेड़ना सरल काम नहीं था।
उन्होंने लंबे समय से रंगभेद सहते आ रहे भारतीय समाज को संगठित किया। उन्हें संघर्ष में उतार दिया। पूरे भारतीय समाज को पहली बार एक सूत्र में बांधा। वहां मुंबई के मुस्लिम व्यापारी थे। उनके हिन्दू और पारसी क्लर्क थे। गिरमिटिया मजदूर थे। दक्षिण अफ्रीका में ही पैदा हुए भारतीय इसाई थे। दक्षिण अफ्रीका वे अब्दुल्ला सेठ के मुकदमे के सिलसिले में आए थे। पर उनकी इच्छा आपसी सुलह-सफाई से उनका मुकदमा समाप्त करवाना और उनमें समझौता करवा देना था। लंबी कोशिश के बाद वे इसमें सफल हुए, पंच समझौता अब्दुल्ला सेठ के पक्ष में गया। जो कठिनाइयां आईं, उन्हें दोनों ने साथ बैठकर सुलझा लिया।
यह काम निपटाकर उन्हें भारत लौटना था। अब्दुल्ला सेठ ने उनके लिए विदाई भोज का आयोजन किया। वहीं एक अखबार ‘नेटाल मर्करी’ में उन्होंने यह समाचार पढ़ा कि नेटाल की सरकार भारतीयों का मताधिकार समाप्त करने के लिए कानून बनाने जा रही है। उन्होंने सबको इस कानून के खतरों से अवगत कराया और उपस्थित लोगों के आग्रह पर भारतीय समाज की लड़ाई लड़ने के लिए वे एक महीने के लिए वहां रुक गए। गांधीजी का इसे चमत्कार ही कहेंगे कि उन्होंने विदाई समारोह को भारतीयों के विधेयक विरोधी आंदोलन की राजनैतिक समिति में परिवर्तित कर दिया।
भारतीयों की कानूनी स्थिति तो बुरी थी ही, लेकिन उन्हें रोज गोरों के हाथों जो अपमान सहने पड़ते थे वे तो और भी कष्टदायी थे। भारतीय कोई भी क्यों न हो, ‘कुली’ नाम से पुकारा जाता था। भारतीय स्कूल-मास्टर ‘कुली स्कूल मास्टर’ था,भारतीय स्टोर-कीपर ‘कुली स्टोर-कीपर’और भारतीय दुकानकार ‘कुली दुकानदार’। गांधीजी को ‘कुली बैरिस्टर’कहा जाता था। जिन जहाज कंपनियों के मालिक भारतीय थे उनके जहाजों को ‘कुली जहाज’कहा जाता था। भारतीयों का वर्णन आमतौर पर ‘गाली के योग्य एशियाई गंदगी, बुराइयों के भंडार,भातखोर और गंदे कीट-पंतग खानेवालों के रूप में किया जाता था।’उन विपरीत परिस्थितियों में गांधीजी ने जो संघर्ष छेड़ा वह एक सिद्धांत की स्थापना के लिए था। कानून के समक्ष समानता का सिद्धांत। साम्राज्यवाद के शोषण की समाप्ति का सिद्धांत।
भारतीय समाज की लड़ाई वहां लंबी चली। करीब 21 साल। उसके पहले चरण में सात साल लगे और दूसरे चरण में 12 साल। पहले चरण में जब गांधीजी को यह भरोसा हो गया कि भारतीयों को अधिकार मिल गए हैं तो वे 1901 में भारत वापस आ गए। उनकी वापसी से पहले कुछ दिलचस्प घटनाएं हुई। उन्हें पहले से ज्यादा महंगे उपहार विदाई में मिले। उनके लिए यह एक समस्या बन गई। पूरी रात सोचते हुए काटी। सुबह तय कर लिया कि उन उपहारों का निजी उपयोग नहीं करना है। इस निश्चय से एक नए गांधी का जन्म हुआ। जिससे ट्रस्टीशिप का विचार निकला। उपहार में मिले वस्तुओं को एक ट्रस्ट को सौंप दिया। इसमें उन्हें कस्तूरबा गांधी को सहमत कराना पड़ा, क्योंकि कुछ कीमती उपहार उनके लिए ही थे। यह ऐसा उदाहरण है जो सामाजिक-राजनीतिक नेताओं के लिए अनुकरणीय होना चाहिए। क्या उसका पालन नेतागण कर रहे हैं?
महात्मा गांधी 1901 के अंत में दक्षिण अफ्रीका से यह सोचकर भारत लौटे कि उनका काम समाप्त हो गया है। उन्हें दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों ने इस शर्त पर वापस आने दिया था कि अगर सालभर के भीतर उनकी जरूरत पड़ी तो वे पुन: आएंगे। उसी साल कलकत्ता में कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था। वे कलकत्ता अधिवेशन समाप्त होने के बाद एक महीने तक गोपालकृष्ण गोखले के साथ रहे। गोखले की इच्छा थी कि गांधीजी मुंबई में बस जाएं और वकालत करते हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के काम में उनकी मदद करें। लेकिन तभी दक्षिण अफ्रीका से उनके लिए एक तार आया, जिससे वे 1902 के दिसंबर में डरबन पहुंचे। इस बार वे छह माह के लिए दक्षिण अफ्रीका आए थे। भारत लौटने में 12 साल लग गए। इस अवधि में वे भारतीयों के संग्राम में पूरी तरह उतर चुके थे। बनवारी ने लिखा है कि ‘इस लड़ाई से उन्होंने वह नैतिक और आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त की जो आगे चलकर राष्ट्रीय संग्राम की पूंजी बनी।’
मोहम्मद रफी ने कभी ‘सुनो-सुनो ए दुनिया वालों, बापू की ये अमर कहानी’ गाया था। उसका मर्म बनवारी ने समझाया है-‘अन्याय से लड़ने का भारतीयों का एक चिर-परिचित तरीका रहा है। वे आत्म संयम बरतते हुए अन्याय करने वाले व्यक्ति पर अपनी निर्भरता समाप्त कर देते हैं। गांधीजी ने अपने जीवन को इसी रूप में ढालना आरंभ कर दिया।’दक्षिण अफ्रीका का संघर्ष उस बड़े स्वाधीनता संग्राम का पूर्वाभ्यास था, जिसे उन्हें भारत आकर छेड़ना था। वह संघर्ष असाधारण था।
उस संघर्ष में उन्होंने वह नैतिक और आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त की जो भविष्य में राष्ट्रीय संग्राम की पूंजी बनी। ‘एक शाम को गांधीजी अपने प्रिय शाकाहार रेस्टरां की मालकिन के ‘एट होम’में गए। वहां उनकी मुलाकात हेनरी एसएल. पोलक नामक एक युवक से हुई। कुछ महीने पहले, 1903 में, गांधीजी ने इंडियन ओपीनियन नामक साप्ताहिक पत्र शुरू किया था। पत्रिका पर कुछ कठिनाई आई, उसे दूर करने के लिए उन्हें डरबन जाना पड़ा,जहां से पत्रिका प्रकाशित होती थी। पोलक उन्हें स्टेशन पर पहुंचाने आए और लंबे रास्ते में पढ़ने के लिए उन्हें एक पुस्तक दे गए। वह जॉन रस्किल की ‘अंटू दिस लास्ट’थी। गांधीजी ने रस्किन की कोई रचना अभी तक नहीं पढ़ी थी।
उन्होंने जोहांसबर्ग से गाड़ी छूटते ही इस पुस्तक को पढ़ना शुरू किया और रात-भर पढ़ते रहे। अक्टूबर 1946 में गांधीजी ने कहा था कि ‘इस पुस्तक ने मेरे जीवन की धारा बदल दी।’ उनका कहना था कि यह पुस्तक रक्त और आंसुओं से लिखी गई है। गांधीजी ने बाद में उसका गुजराती में अनुवाद किया। जिसे ‘सर्वोदय’ के नाम से छापा गया। उसी पुस्तक का प्रभाव था कि उन्होंने उसके आदर्शों के अनुसार अपना जीवन बनाने का निश्चय कर लिया। उन्होंने सोच लिया कि अपने परिवार तथा सहयोगियों के साथ एक फार्म में जाकर रहेंगे। डरबन से कुछ किलोमीटर दूर फीनिक्स में एक फार्म खरीदा। वहां उन्होंने फीनिक्स आश्रम बनाया। गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है-‘जो चीज मुझमें गहराई से भरी हुई थी, उसका स्पष्ट प्रतिबिम्ब मुझे रस्किन के इस ग्रंथ रतन में दिखाई दिया।’यहां यह भी याद रखना चाहिए कि गांधीजी ने फीनिक्स आश्रम और टालस्टाय फार्म के लिए नाम भले ऐसे चुने हों जो यूरोपियन लोगों को परिचित से लगें, पर उनका आदर्श भारत का पुराना आश्रम जीवन ही था।
दक्षिण अफ्रीका में ही गांधीजी ने सत्याग्रह को खोजा और पाया। लोगों को प्रेरित किया कि वे अपने सत्य का आग्रह बनाए रखे। इसके लिए जो भी कष्ट सहना पड़े उसे सहें। लेकिन हिंसा पर न उतरें। दक्षिण अफ्रीका में ही मोहन दास महात्मा गांधी बने। इसके लिए उन्होंने बीस साल तपस्या की। उसी काल में उन्होंने अपने सत्याग्रह दर्शन को विकसित किया। एक बार उनका मनोबल गिराने के लिए खतरनाक अपराधियों के साथ जेल में रखा गया। अपने मन को शांत रखने के लिए गांधीजी सारी रात गीता के श्लोक बोलते रहे।
वहां प्राप्त सत्याग्रह और अहिंसा को ही उन्होंने भारत के स्वाधीनता संग्राम का मुख्य अस्त्र बनाया। ‘एक बार भगवान बुद्ध ने अपने शिष्य आनंद से कहा कि उन्होंने अब तक जो कहा है वे उससे बहुत अधिक जानते हैं। उन्होंने जो कहा है वह पेड़ से झरे हुए पत्तों के समान है। वे जो जानते हैं वह पेड़ पर लदे हुए पत्तों के समान है। यही बात गांधीजी के बारे में भी कही जा सकती है। उनकी सामाजिक सक्रियता तो लंदन में बैरिस्टरी की पढ़ाई पढ़ते हुए ही आरंभ हो गई थी। शाकाहार आंदोलन में उन्होंने बढ़-चढ़कर भाग लिया था। उन युवा समूहों के भी संपर्क में आए थे जो भारत में ब्रिटिश राज के विरोधी थे। लेकिन वास्तव में उनका राजनैतिक जीवन दक्षिण अफ्रीका से ही आरंभ हुआ। उनके इस राजनैतिक जीवन का आधार प्रचलित राजनैतिक विचार नहीं थे, बल्कि सभ्यतागत धारणाएं थीं।’वे चाहते थे कि भारत के लोग ब्रिटिशशासन के दौरान यूरोपीय सभ्यता के अपने ऊपर पड़े प्रभावों को पोंछ डालें। उनके लिए स्वाधीनता का यही अर्थ था।
महात्मा गांधी की महानता को समझ सकने वाले पहले भारतीय थे, गोपालकृष्ण गोखले। इसके अनेक उदाहरण हैं। दक्षिण अफ्रीका की जिम्मेदारी पूरी कर गांधीजी 18 जुलाई, 1914 को भारत के लिए प्रस्थान किया। जिस तरह थोड़े दिनों के लिए वे दक्षिण अफ्रीका गए थे, उसी तरह सिर्फ निलहे लोगों की दुर्दशा देखने चंपारण गए। दोनों जगह उन्हें सत्याग्रह में उतरना पड़ा। इससे उनके स्वभाव की एक विशेषता समझी जा सकती है। वह यह कि महात्मा गांधी जो काम हाथ में लेते थे, उसे जान की बाजी लगाकर पूरा करते थे। यही उन्होंने चंपारण में किया। हालांकि महात्मा गांधी की महानता को सबसे पहले गोपालकृष्ण गोखले ने ही पहचाना था। लेकिन उन्हें भी यह संदेह था कि गांधी की दक्षिण अफ्रीका की अनोखी राजनीतिक शैली भारत में नहीं चलेगी। इसलिए उन्हें गोखले ने सलाह दी कि एक साल सिर्फ देश भ्रमण करें। कुछ न बोलें। ऐसा सोचने वाले गोखले तब अकेले नहीं थे। देश के बड़े-बड़े राजनैतिक नेताओं को मानो यकीन था कि गांधी का सत्याग्रह भारत में नहीं चलेगा।
उस समय के बड़े नेताओं की उनके प्रयोगों के बारे में जो-जो आशंकाएं थीं, वे गलत साबित हुईं। लीक से हटकर जो-जो तरीके उन्होंने अपनाएं उन पर शोध चल ही रहा है। वह चलता रहेगा। एक निष्कर्ष यह निकला है कि गांधीजी ने जो राजनैतिक जीवन अपनाया और प्रयोग किए उसका आधार भारत की सभ्यतागत धारणाएं थी। उन्हें ही वे आत्मसात कर बड़े राजनैतिक नेताओं को गलत साबित कर सके। ‘भारतीय सभ्यता स्वार्थों के समाहार के लिए नहीं, आचरण की शुद्धि के लिए नियम बनाती है। इसलिए वह मनुष्य को उन्नयन की ओर ले जाती है। उसे आत्मबल प्रदान करती है। यह आत्मबल ही गांधीजी के सत्याग्रह का आधार बना था।
वे मानते थे कि आत्मबल से बड़ी से बड़ी हिंसक शक्ति को परास्त किया जा सकता है। उनके आश्रम जीवन का लक्ष्य यही आत्मबल पाना था। उन्होंने स्वयं को साक्षी माना।’ अपने मन की गवाही से गांधीजी ने अहिंसा को भारत के स्वाधीनता संग्राम का अस्त्र बनाया। अहिंसा को स्वाधीनता संग्राम के साधन के रूप में अपना कर गांधीजी ने असहाय और असमर्थ हुए साधारण भारतीयों को समर्थ बना दिया। अहिंसा ने उन्हें आंतरिक शक्ति दी,नैतिक बल दिया और ब्रिटिश बर्बरता के भय से मुक्त कर दिया।
जैसे गांधीजी अभय हुए, उसी तरह उनके एक वाक्य ने पूरे देश को भय मुक्त बना दिया। वायसराय लार्ड हार्डिंग के सुरक्षा ताम-झाम पर उन्होंने टिप्पणी की थी। ‘मत्यु की आशंका में इस तरह मृत्यु समान जीवन जीने से तो लार्ड हार्डिंग के लिए मर जाना बेहतर है।’ अपने गुरु गोखले की सलाह मानकर गांधीजी ने साल भर देश को देखा-समझा। वे 4 फरवरी, 1916को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के स्थापना समारोह में पहली बार बोले। महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के निमंत्रण पर वे वहां पहुंचे थे। जहां वायसराय लार्ड हार्डिंग सहित राजा-महाराजाओं का जमघट था। ऐनी बेसेंट भी थीं।
गांधीजी ने वहां जो देखा-समझा और अनुभव किया उसे सहज ढंग से व्यक्त कर दिया। वह उनका पहला ऐतिहासिक भाषण है। उसके बाद चंपारण सत्याग्रह की सफलता से वे भारतीय राजनीति के केंद्र में पहुंच गए। उन्होंने कांग्रेस का विधान बनाया। उसका काय-कल्प प्रारंभ हुआ। नागपुर अधिवेशन से गांधीजी देश के सबसे बड़े नेता बने। वहां उन्होंने घोषणा की कि ‘अगर उनके असहयोग कार्यक्रम को ठीक से लागू किया गया तो एक वर्ष में देश को स्वराज्य मिल जाएगा।’उन्होंने साल भर का एक कार्यक्रम दिया। उनके नेतृत्व में कांग्रेस उसे पूरा करने में लगी। कुछ लक्ष्य पूरे हुए और कुछ नहीं हो पाए। लेकिन उस छोटी सी अवधि में देश को जगा दिया। इससे स्वाधीनता पहुंच में दिखने लगी। ‘पूरे देश का यह राजनैतिक रूपांतरण गांधीजी की नैतिक शक्ति की विजय थी।’बनवारी ने लिखा है कि ‘अंग्रेजों के लिए गांधी सदा एक अबूझ पहेली बने रहे, क्योंकि वे कभी राजनीति को नैतिक दृष्टि से देख ही नहीं पाते थे। गांधीजी के लिए राजनैतिक,सामाजिक और धार्मिक प्रश्न एक-दूसरे से अलग नहीं थे। वे सबको एक ही नैतिक पैमाने पर कसकर देखते थे। यह दृष्टि गांधीजी की कोई अपनी ही दृष्टि नहीं थी। यह सदा व्यवहार में लाई जाती रही भारतीय दृष्टि थी, जिसे गांधीजी ने समग्रता से आत्मसात किया था। देश के साधारण लोग और साधु-संन्यासी तो अपने सीमित क्षेत्र में इस दृष्टि से जीवन जीने के आदी थे ही।’
उस महात्मा गांधी ने स्वाधीनता आंदोलन का नेतृत्व किया। उनकी मूल भावना थी कि ‘अगर भारत के लोग यूरोपीय सभ्यता के अधर्ममय स्वरूप को पहचान कर उससे नाता तोड़ लें तो स्वाधीनता उन्हें मिल ही जाएगी, वे अपनी सभ्यता को भी उत्कर्ष की ओर ले जा सकेंगे।’मगर वे अनुभव कर चुके थे कि ‘भारत की सभ्यता का परंपरागत तंत्र जड़ हो गया है।’इसलिए उन्होंने स्वाधीनता संग्राम के साथ-साथ भारतीय सभ्यता के पुनरुद्धार के मूल मंत्र खोजे। उसके लिए कार्यक्रम बनाया और प्रयोग किए। ‘वे मानते थे कि पंचायत भारतीय सभ्यता का आधार है। इसलिए जब भारत के भावी राजनैतिक स्वरूप पर बहस हुई तो उन्होंने पंचायत का ही उल्लेख किया।’
स्वाधीनता संग्राम में गांधीजी ने दस सत्याग्रह चलाए। नमक सत्याग्रह अनोखा था। लाहौर कांग्रेस ने पुन: सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाने का निर्णय किया। लेकिन वह किस पर हो,इसका निश्चय नहीं हो पा रहा था। कांग्रेस नेतृत्व ने यह भार गांधीजी पर डाला। उन्होंने नमक को चुना। इस पर अंग्रेज अफसर ही नहीं, बल्कि कांग्रेस के दिग्गज नेता मोतीलाल नेहरू आदि भी सुनकर चकित हुए क्योंकि उन्हें भरोसा नहीं हो रहा था कि नमक पर सत्याग्रह हो सकता है। जो देश-दुनिया में एक बड़े और अनोखे आंदोलन के लिए भविष्य में याद किया जाएगा। दुनिया जानती है कि गांधी सही थे। उन्होंने नमक इसलिए चुना था, क्योंकि उसका हर आदमी से नाता है। अंग्रेजों के नमक कर से हर कोई खिन्न भी था। विरोध का तरीका जो गांधीजी ने बताया, वह इतना सरल था कि कोई भी हाथ में नमक लेकर बागी हो सकता था। 12 मार्च, 1930 को गांधीजी अपने सहयोगियों के साथ साबरमती आश्रम से दांडी के लिए निकले। उस सत्याग्रह ने साबित किया कि गांधी एक अनोखे राजनीतिक नेता हैं।
वह सत्याग्रह तीन साल चला। कुछ दिनों तक व्यक्तिगत सत्याग्रह ही हुए। गांधीजी जहां ब्रिटिश सरकार से असहयोग के अपने विचार पर कायम थे, वहीं उनके सहयोगी कांग्रेस नेता चाहते थे कि संसदीय राजनीति में हिस्सा लें। उन्हें विधान परिषदों का चुनाव लड़ना था। गांधीजी यह भी देख रहे थे कि कांग्रेस में प्राण बचा नहीं है। संसदीय राजनीति से उसे प्राणवायु प्राप्त हो सकती है। यही सोचकर उन्होंने कांग्रेस नेताओं को छूट दी। कांग्रेस में वैचारिक दरार भी पैदा हो गई थी। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के गठन से बनी नई परिस्थिति में गांधीजी ने कांग्रेस छोड़ने का निर्णय किया। कांग्रेस को अपना स्वतंत्र मार्ग ढूंढ़ने के लिए अवसर दिया। ‘लगभग तीन वर्ष गांधीजी ने मुड़कर राजनीति की ओर नहीं देखा और पूरी तरह से अपने रचनात्मक कामों में डूब गए। वे जिस ग्राम स्वराज्य की बात करते थे, उसी को मूर्त रूप देकर भविष्य के भारत का उनका जो सपना था, उसका बोध वे कराना चाहते थे।’
लोग यह तो याद रखते हैं कि 1934 में गांधीजी ने कांग्रेस छोड़ दी थी। लेकिन अक्सर इसे विस्मृत कर दिया जाता है कि उन्होंने ‘1937 में कांग्रेस से अपना निर्वासन समाप्त कर लिया था।’उसके बाद वे कांग्रेस को अगले संग्राम के लिए तैयार करने लगे। उनके ही परामर्श पर एक गांव फैजपुर में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। अपने तरह का वह पहला प्रयास था।
तब से भारत छोड़ो आंदोलन तक की घटनाओं को देखें तो उसमें राजनीतिक गांधी स्पष्ट रूप से सामने आते हैं। उन्होंने पुन: कांग्रेस का नैतिक नेतृत्व भारत की स्वाधीनता के लिए संभाला। रामगढ़ कांग्रेस 1940 में हुई। विश्वयुद्ध छिड़ गया था। वहां कांग्रेस ने प्रस्ताव पारित किया कि ‘यह संघर्ष अनिवार्यत: गांधीजी के नेतृत्व में लड़ा जाएगा।’इस पर उन्होंने स्वीकृति दी। कहा-‘सैनिकों के रूप में हमें अपने सेनापति से आज्ञा लेनी होती है और उसका पूरी तरह पालन करना होता है। उसकी वाणी कानून मानी जाएगी। मैं तुम्हारा सेनापति हूं।’इसका अर्थ बताते हुए बनवारी ने लिखा है कि ‘इससे पहले के सत्याग्रहों में भी गांधीजी सेनापति के नाते अपनी अनुलंघनीयता की बात कहते आए थे। लेकिन इस बार उनका यह कहने के पीछे एक और भी प्रयोजन था। ’वह यह था-‘जवाहरलाल नेहरू और उनके समाजवादी मित्रों की सहानुभूति मित्र राष्ट्रों के साथ थी और इसलिए वे ब्रिटिश सरकार के लिए कोई परेशानी पैदा करना नहीं चाहते थे। गांधीजी विचारधारा के आधार पर इस तरह के निर्णयों को उचित नहीं समझते थे। उन्हें मित्र राष्ट्रों या धुरी राष्ट्रों में से कोई पक्ष वरण करने के योग्य नहीं दिखाई देता था।’यह थी महात्मा गांधी की विशेषता।
कैसे गांधीजी वैचारिक स्तर पर भिन्न और मौलिक थे? यह इस अंश से स्पष्ट है-‘गांधीजी की मूल दृष्टि यह थी कि भारत के लिए ब्रिटिश साम्राज्य और नाजियों में कोई भेद देखना व्यर्थ है। भारत को अपनी स्वतंत्रता और अपनी सभ्यता से सरोकार रखना चाहिए। उस समय अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के भौगोलिक और वैचारिक सभी तरह के विभाजनों को वे संदेह की दृष्टि से देखते थे। उन्हें पूंजीवादी और साम्यवादी विश्व का वर्गीकरण जितना निरर्थक लगता था, उतना ही यूरोप और एशिया का। उनका मानना था कि भारत को न पूंजीवादी आदर्शों से कोई मतलब है,न साम्यवादी आदर्शों से। उसे अपना रास्ता अपने स्वभाव और सभ्यता के अनुरूप स्वतंत्र रूप से तय करना है।’गांधीजी की समझ यथार्थपरक थी। इसे यह अंश बताता है-‘वे मानते थे कि एशिया के सभी देशों में सभ्यता संबंधी कोई एक-रूपता नहीं है। इसलिए यूरोप बनाम एशिया की बात करना उचित नहीं है।’
महात्मा गांधी में वैचारिक स्पष्टता, यथार्थ दृष्टि और दृढ़ता उस समय भी बनी रही जब उनके सहयोगी विचलित दिखते थे। दूसरे विश्व युद्ध में कांग्रेस के ज्यादातर नेता भारत पर जापान के नियंत्रण की आशंका से ग्रस्त थे। गांधीजी ही थे जो भविष्य को स्पष्ट देख रहे थे। इसलिए अविचलित थे। उन्हें नेहरू सहित उनके मित्रों को समझाने में बहुत समय लगा। गांधीजी ने अहिंसा को कैसे एक राजनीतिक अस्त्र बनाया इसे उस दौर की घटनाओं से जाना जा सकता है। ‘गांधीजी को यह स्पष्ट दिखाई दे रहा था कि भारत की स्वाधीनता के लिए दबाव बनाने का यही समय है। इसलिए उन्होंने ब्रिटिश सरकार से बातचीत की कमान भी अपने हाथ में ले ली।’ब्रिटेन ने भारत को भी युद्ध में घसीट लिया था। अहिंसक विरोध स्वरूप उन्होंने व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू कराया। विनोबा भावे को पहला सत्याग्रही चुना,नेहरू को नहीं, जबकि वे इसके लिए लालायित थे।
कांग्रेस नेतृत्व की उलझन लंबी चली। करीब दो साल। कांग्रेस के नेता तरह-तरह की आशंकाओं में फंसे होने के कारण ‘तत्काल कोई बड़ा आंदोलन छेड़ने के पक्षधर नहीं थे।’ गांधीजी अहिंसा पर अटल थे। लेकिन अध्यक्ष मौलाना आजाद ने कांग्रेस की एक बैठक में गांधीजी के सामने ही कहा-‘कांग्रेस विशुद्ध अहिंसा की शर्तों को,जो शायद किसी महात्मा के लिए ही संभव है, पूरा न कर सकेगी।’गांधीजी को यह बात तीर की तरह चुभी। वे बोले। अपने भाषण में उन्होंने स्पष्ट किया कि अहिंसा का उनके लिए अर्थ क्या है। यह बात 15 जनवरी, 1942 की है। जिसमें उन्होंने कहा कि ‘मैं राजनीतिक बुद्धिमानी की बात कहता हूं। यह राजनीतिक अंतर्दृष्टि है। भूतकाल में इससे हमें लाभ हुआ है, इसने हमें स्वतंत्रता के कई सोपान लांघने में सहायता दी है और मैं एक राजनीतिज्ञ की हैसियत से आपको सुझाव देता हूं कि इसे त्यागने का विचार करना गंभीर भूल होगी। राजनीतिज्ञ की हैसियत से ही मैं कांग्रेस को इन वर्षों में अपने साथ रख सका हूं। नई होने के कारण ही मेरी प्रणाली को धार्मिक बताना मेरे प्रति अन्याय होगा।’
विचारक बनवारी ने जहां यह बताया है, वहीं एक बड़े ऐतिहासिक भ्रम का निवारण भी किया है। ‘इसी बैठक में गांधीजी ने जवाहरलाल नेहरू को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी होने की बात कही थी। गांधीजी के इस कथन का यह अर्थ लगाया जाता रहा है कि उन्होंने स्वतंत्र भारत की सरकार का नेतृत्व करने के लिए जवाहरलाल को चुना था। लेकिन जिस बैठक में यह बात कही गई थी, उसमें ऐसा कोई प्रसंग ही नहीं था। अपने इसी भाषण में गांधीजी ने यह भी कहा था कि मेरे जीवनकाल में जवाहरलाल सदा मेरा विरोध करते रहे हैं, लेकिन मेरी मृत्यु के बाद वे मेरी ही भाषा बोलेंगे।
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान भी गांधीजी ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध आंदोलन छेड़ना चाहते थे, जबकि जवाहरलाल अपने वैचारिक कारणों से मित्र राष्ट्रों से सहयोग करने के पक्षधर थे और ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध कोई आंदोलन छेड़ना उन्हें ठीक नहीं लगता था। इन परिस्थितियों में अपने स्वभाव के अनुरूप गांधीजी ने अपने विरोधी को जिम्मेदारी देकर उसका सहयोग सुनिश्चित करने की कोशिश की थी। उनके राजनीतिक उत्तराधिकार का अर्थ उनकी अनुपस्थिति में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध आंदोलन का नेतृत्व करना ही हो सकता था। गांधीजी स्वतंत्र भारत की सरकार के बारे में कोई निर्णय लेने की उतावली में नहीं थे और न ही इस तरह की घोषणाएं करना उनके स्वभाव में था। जवाहरलाल नेहरू ने भी गांधीजी के इस कथन का यही अर्थ लिया था कि उनकी अनुपस्थिति में वे आंदोलन की कमान संभालेंगे। गांधीजी के उत्तराधिकारी के रूप में स्वतंत्र भारत का प्रधानमंत्री बनने की बात तब होती जब स्वयं गांधीजी की सत्ता में कोई रुचि होती और उसके लिए वे अपना उत्तराधिकारी घोषित करते।’
गांधीजी तो बहुत पहले ही विश्वयुद्ध के दौरान 1942 में अंग्रेजों ‘भारत छोड़ों’ का आंदोलन छेड़ देना चाहते थे। कांग्रेस को समझाने और चेतावनी देने में उन्हें करीब सात महीने लगे। अंतत: 7 जुलाई, 1942 को उन्होंने वर्धा में जब यह चेतावनी दी कि वे अकेले ही आंदोलन चलाएंगे, तब कांग्रेस को निर्णय करना पड़ा। उसने ‘भारत छोड़ो’ का प्रस्ताव स्वीकार किया। उसे ही कांगेस महासमिति ने 8 अगस्त, 1942 को स्वीकार किया। जिसके बाद रात में महात्मा गांधी सहित कांग्रेस के बड़े नेता गिरफ्तार कर लिए गए। उसके बाद जो कुछ हुआ वह हमारे इतिहास में ‘अगस्त क्रांति’ के रूप में अंकित है। उस आंदोलन की सफलता ने अंग्रेजों को समझा दिया कि सत्ता हस्तांतरण के सिवाय कोई दूसरा उपाय नहीं है।
गांधीजी जेल से छूटते ही भारत को अखंड रखने के मोर्चे पर सक्रिय हो गए। उन्होंने देख लिया था कि आजादी आ रही है, लेकिन अंग्रेज देश को बांटने पर तुले हैं। अंग्रेजों की चाल को वे विफल करने के प्रयास में लगे। सबसे पहले उन्होंने जिन्ना से बात की। हालांकि वे जानते थे कि भारत में सदियों पहले इस्लाम के आगमन से हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न भारतीय जनजीवन में एक स्थाई तत्व बना हुआ है। उसे समस्या की बजाए शक्ति में रूपांतरित करने के उन्होंने अनेक प्रयास किए। लेकिन विश्व युद्ध ने उनके प्रयासों पर पानी फेर दिया। हिटलर के पोलेंड पर हमले ने जिन्ना का हाथ मजबूत कर दिया। भारत में वायसराय ने जिन्ना को अपने जाल में फंसाया। कांग्रेस की सरकारों ने जब इस्तीफा दिया तो जिन्ना ने उसे अपने लिए मनचाहा उपहार माना। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी गांधीजी ने हिम्मत बनाए रखी।
ब्रिटिश सरकार ने स्वास्थ्य लाभ के लिए गांधीजी को 1944 में ही रिहा कर दिया था। इस अवसर का भी उन्होंने बड़े लक्ष्य के लिए उपयोग किया। वे खुद चलकर जिन्ना से मिले। 9 से 27 सितंबर, 1944 के बीच गांधीजी ने जिन्ना से चैदह बार बात की। वे बंबई के मालाबार पहाड़ियों के माउंट प्लेजेंट रोड पर ही ठहरे थे जहां जिन्ना का भी घर था। गांधी तब 75 के हो रहे थे और जिन्ना 67 साल के थे। शरीर से दोनों उस समय रोगी थे। उस अवस्था में भी गांधीजी ने जिन्ना को बहुत समझाया। लेकिन जिन्ना तब अपनी ताकत जानते थे। उससे दो दशक पहले मुस्लिम लीग के सदस्य डेढ़ हजार से ज्यादा नहीं थे। लेकिन 1944 में मुस्लिम लीग की सदस्यता बढ़कर बीस लाख से उपर हो गई थी। गांधीजी ने जिन्ना को अनेक प्रस्ताव दिए थे।
बनवारी ने लिखा है कि ‘पर उसका कोई परिणाम नहीं निकला। सिवाय इसके कि गांधीजी ने जिन्ना से मिलने जाकर मुसलमानों में उनकी प्रतिष्ठा और बढ़ा दी। असल में गांधीजी अपना सारा कौशल इस बात के लिए लगा रहे थे कि जिन्ना को शांत करके वे मुस्लिम लीग को एक संयुक्त अस्थायी सरकार बनाने के लिए मना लें और देश के बंटवारे का प्रश्न स्वाधीनता मिलने के बाद के समय पर छोड़ दिया जाए। इस बात को हंसी मजाक में मौलाना आजाद पहले निकाह फिर तलाक कहा करते थे। महात्मा गांधी की यह धारणा थी कि हिन्दू-मुस्लिम समस्या अंग्रेजों के कारण जटिल बनी हुई है। एक बार वे चले गए तो दोनों समुदाय साथ रहने का कोई तरीका निकाल लेंगे और देष के बटवारे की नौबत नहीं आएगी।’
गांधीजी भारत के बंटवारे को रोकने का हर संभव प्रयास करते रहे। इसका प्रामाणिक विवरण उपलब्ध है। ज्यादातर लेखकों ने उस समय की तेज गति से घटित हो रही घटनाओं में गांधीजी की कोशिशों का वर्णन किया है। उन सबका उल्लेख यहां स्थानाभाव के कारण संभव नहीं है। आचार्य जेबी. कृपलानी, सुधीर चंद्र,राजमोहन गांधी की पुस्तकों में महात्मा गांधी के प्रयासों का अपने-अपने ढंग से विवरण है। राजमोहन गांधी ने अपनी नई पुस्तक ‘ह्वाई गांधी स्टिल्ल मैटर्स’ में माना है कि ‘तीन दशक पुराने सहयोगियों नेहरू, पटेल, आजाद, राजगोपालाचारी, प्रसाद आदि भविष्य के बारे में स्पष्टता की अपेक्षा अधिक रुचि जल्दी सत्ता पाने में थी।’बनवारी ने उस समय के इतिहास को जितनी स्पष्टता से उकेरा है, वैसा किसी पुस्तक में नहीं मिलता।
यह तो सभी मानते हैं कि गांधीजी विफल हो गए। क्यों हो गए? इसका उत्तर बनवारी के शब्दों में इस तरह है-‘उस समय गांधीजी की विवशता न ब्रिटिश सरकार थी,न माउंटबेटन,न मुस्लिम लीग। उनकी विवशता थी कांग्रेस का नेतृत्व। जिस नेतृत्व को स्वाधीनता के लंबे संघर्ष में उन्होंने तैयार किया था, वही मंजिल पर पहुंचकर उन्हें निराश कर रहा था।’उस समय गांधीजी की मनोदशा का एक वर्णन इस तरह है-‘आज मैं अपने को अकेला पाता हूं। यहां तक कि सरदार और जवाहरलाल भी समझते हैं कि मैं परिस्थिति को गलत समझता हूं और हमारे विभाजन पर सहमत होते ही शांति फिर से स्थापित हो जाएगी।…उन्हें वायसराय से मेरा यह कहना भी पसंद नहीं आया कि यदि विभाजन होना ही है तो यह न अंग्रेजों के हस्तक्षेप से हो और न अंग्रेजों के शासन में हो। वे सोचते हैं कि वृद्धावस्था के कारण कहीं मैं सठियाने तो नहीं लगा हूं। चाहे जो हो, मुझे जो सही जंचता है,मैं वही कहूंगा,यदि मुझे अपना यह दावा सिद्ध करना है कि मैं कांग्रेस और ब्रिटिश जनता का सच्चा मित्र हूं।…मैं साफ देख रहा हूं कि हम लोग यह सारा काम गलत ढंग से कर रहे हैं। भले ही इसका पूरा प्रभाव अभी न मालूम पड़े, परंतु मैं स्पष्ट देख सकता हूं कि इस कीमत पर प्राप्त की गई स्वतंत्रता का भविष्य अंधकारमय होगा।’
भारत विभाजन पर कांग्रेस नेतृत्व की सहमति के बाद स्वतंत्रता तो आई,लेकिन शांति की बजाए कलह, हिंसा और मारकाट मचा। इसे गांधीजी ने भांप लिया था। यह भी कारण था कि वे चाहते थे कि कांग्रेस जिन्ना के नेतृत्व में मंत्रिमंडल को स्वीकार कर लें। लार्ड माउंटबैटन को यह सलाह उन्होंने दी भी थी। लेकिन जब देख लिया कि भारत का बंटवारा टल नहीं सकता तो उन्होंने कांग्रेस कार्यसमिति में उपस्थित होकर कहा कि ‘बंटवारे से तो हम बच नहीं सकते, चाहे वह हमें कितना ही नापंसद हो।’भारत विभाजन के बाद जो हिंसा का तांडव मचा, उसे रोकने के लिए गांधीजी ने इरादा बनाया। वे 7 सितंबर, 1947 को दिल्ली पहुंचे। शाहदरा स्टेशन पर सरदार पटेल ने उनकी आगवानी की। वे पंजाब जाना चाहते थे। भंगी बस्ती में पुन: ठहरना चाहते थे। लेकिन उन्हें बिड़ला भवन में सरदार पटेल ने ठहराया। वे पंजाब भी नहीं जा सके। बिड़ला भवन में रहकर उन्होंने शांति और सौहार्द के प्रयास किए। उसी क्रम में ‘उन्होंने अपने अंतिम अस्त्र का सहारा लिया। उन्होंने 13 जनवरी, 1948 से उपवास आरंभ किया और कहा कि जब तक पूरी तरह शांति स्थापित नहीं हो जाती, वे उपवास नहीं तोड़ेंगे।’
गांधीजी के उपवास का एक बड़ा कारण पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए दिलवाना भी था। बंटवारे के समय पाकिस्तान के हिस्से में नगदी के 75 करोड़ रुपए आए। भारत सरकार ने बीस करोड़ रुपए 14 अगस्त, 1947 को ही दे दिए। शेष 55 करोड़ रुपए भी दे दिया जाता, अगर पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला न कर दिया होता। गांधीजी के उपवास के तीसरे दिन 15 जनवरी की रात को नेहरू मंत्रिमंडल ने पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए देने का निर्णय कर लिया। 18 जनवरी, 1948 को सौ से ज्यादा लोग गांधीजी के चारों तरफ एकत्र हुए। वे विभिन्न समूहों,समुदायों और पंथों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। उन लोगों ने शांति कायम करने का अपनी ओर से भरोसा दिया। डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने वह प्रतिज्ञा पढ़कर सुनाई। गांधीजी ने अपना अनशन तोड़ा। जिन्होंने उस समय उन्हें देखा तो पाया कि उनके चेहरे पर चमक है। मौलाना आजाद ने संतरे के रस का गिलास देकर अनशन तुड़वाया।
महात्मा गांधी का जीवन बच गया। लेकिन सिर्फ 12 दिन ही वे रह पाए। उन चंद दिनों में गांधीजी ने जो सोचा,जो सलाह दी और जो-जो योजनाएं बनाई, उनमें ही स्वाधीन भारत के महात्मा गांधी का दर्शन करना चाहिए। ‘सबसे पहले उन्होंने कांग्रेस के भविष्य के बारे में विचार करना आरंभ किया। कांग्रेस देश को स्वाधीनता दिलाने के लिए बनाई गयी थी। यह दायित्व अब पूरा हो गया था। इसलिए गांधीजी चाहते थे कि अब कांग्रेस को भंग कर दिया जाना चाहिए। वे देश के जीवन में सरकार की केंद्रीय भूमिका नहीं देखते थे। वे चाहते थे कि राज्य केंद्रित राजनीति को वैचारिक दलों के लिए छोड़ दिया जाए।’गांधीजी ने 29 जनवरी, 1948 की रात को अपनी वसीयत लिखी। जिसमें कांग्रेस को भंग करने के अलावा अखिल भारत चरखा संघ, अखिल भारत ग्रामोद्योग संघ, हिन्दुस्तानी तालीमी संघ, हरिजन सेवक संघ और गोसेवा संघ बनाने का विचार था। इन संगठनों के कार्य की रूपरेखा भी उन्होंने दी।
वे अपने विचार पर अमल करते। उसे साकार करने के प्रयोग करते। कैसा वह प्रयोग होता, इस बारे में बनवारी ने लिखा है-‘अपने रचनात्मक आंदोलन से गांधीजी ग्राम स्वराज्य स्थापित करना चाहते थे। भारत के अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों में आज भी भारत के गांवों का कार्ल मार्क्स द्वारा उकेरा हुआ चित्र अधिक लोकप्रिय है। कार्ल मार्क्स कभी भारत नहीं आए। वे यूरोप में बैठे-बैठे भारत की घटनाओं पर प्राप्त रिपोर्टों के आधार पर टिप्पणी करते रहे।’इस भ्रम को दूर करने के लिए उन्होंने वर्धा में रचनात्मक कार्यकतार्ओं के सम्मेलन की योजना बनाई थी। अपने सपने का स्वराज्य स्थापित करने के लिए वे नया प्रयोग करना चाहते थे। पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए दिलवाने में भी उनकी एक योजना थी। जिसे गांधीजी के जीवन पर नजर दौड़ाकर समझा जा सकता है। जब भी उनकी बात नेताओं ने नहीं मानी तो वे सीधे जनता को संबोधित करते थे। उसे जगाते थे। एक आंदोलन का रूप दे देते थे। जिससे वे जनता के बल पर लक्ष्य प्राप्त करने में सफल हो जाते थे। इस आधार पर माना जा सकता है कि वे पाकिस्तान जाते। वहां सीधे पाकिस्तानियों से भारत विभाजन की भूल पर बात करते। वे हिन्द स्वराज को अपने प्रयोगों का आधार बनाते। उसे राज्य व्यवस्था में परिवर्तन का आधार बनाते। हिन्द स्वराज के सौ साल पर दिल्ली विश्वविद्यालय की एक गोष्ठी में एंथोनी परेल ने गांधी विचार के विद्वानों को ‘हिन्द स्वराज’ पर नई दृष्टि दी। उन्होंने कहा कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जो चार पुरुषार्थ हैं, उनका राजनीतिक दर्शन इस पुस्तक में है। बनवारी ने हिन्द स्वराज्य को ‘भारतीय सभ्यता की श्रेष्ठता का उद्घोष’ बताया है।
‘स्वतंत्र भारत अपने राष्ट्रपिता को महज साढ़े पांच महीने-169 दिन-सुरक्षित रख पाया।’एक निष्ठुर और पैशाचिक कृत्य ने गांधीजी को उठा लिया। वह उनका बलिदान था। भारत पर बज्रपात था। उसे कभी भुलाया नहीं जाना चाहिए। महात्मा गांधी को उनके कार्यों और भावी योजनाओं से याद किया जाना चाहिए। सबसे पहले उनके अधूरे कार्य को आत्मसात करने की जरूरत है। उनका एक विचार उस पत्र में झांकता है, जिसे उन्होंने 5 अक्टूबर, 1945 को जवाहरलाल नेहरू को लिखा था। पत्र लंबा है। उसके ये अंश बहुत कुछ कहते हैं-‘मैं यह मानता हूं कि अगर हिन्दुस्तान को सच्ची आजादी पानी है और हिन्दुस्तान के मारफत दुनिया को भी, तब आज नहीं तो कल देहातों में ही रहना होगा-झोपड़ियों में, महलों में नहीं।’ इसी का भाष्य इस अंश में है-‘अगर ऐसा समझोगे कि मैं आज के देहातों की बात करता हूं तो मेरी बात नहीं समझोगे। मेरा देहात आज मेरी कल्पना में ही है। आखिर में तो हर एक मनुष्य अपनी कल्पना की दुनिया में ही रहता है। इस काल्पनिक देहात में देहाती जड़ नहीं होगा- शुद्ध चैतन्य होगा।’
आज भी भारत को गांधीजी की खोज है। यह स्वयं की खोज भी है। इसमें समय-समय पर कौन नहीं लगा। जवाहरलाल नेहरू ने गांधी को मार्क्सवादी नजरिए से खोजा। विनोबा ने भूदान में ढूंढ़ा। आचार्य जेबी. कृपलानी कहते थे कि ‘गांधी के प्रति निष्ठा से मैं कभी डिगा नहीं। मेरी यह निष्ठा व्यक्तिगत नहीं राजनैतिक है।’वे राजनीतिक गांधी के व्याख्याता थे। उनकी बात तब नहीं सुनी गई। दलीय राजनीति त्यागकर भूदान और बाद में आंदोलन के जरिए राज्य व्यवस्था की पुनर्रचना के अपने प्रयासों में जेपी. गांधी को तलाशते रहे। उनके बाद जो गांधीजन हैं, उनमें ज्यादातर भटक रहे हैं। दिशाहीन हैं। अपनी पुस्तक के कथ्य से विचारक बनवारी ने एक राह दिखाई है। यह समझाया है कि गांधीजी ने ‘अपना लक्ष्य केवल राजनीतिक स्वाधीनता नहीं रखा था। राजनीतिक स्वाधीनता का लक्ष्य तो उनकी हर सांस में बसा था। पर भारतीय सभ्यता को क्षीण करने वाली इन दूसरी शक्तियों और प्रवृत्तियों को देखते हुए उन्होंने अपना लक्ष्य भारतीय सभ्यता का पुनरूद्धार बना लिया था।’ भारतीय सभ्यता के सामने जिन चुनौतियों को गांधीजी ने रेखांकित किया था उनका वर्णन कर बनवारी लिखते हैं कि ‘स्वाधीनता आंदोलन की मुख्य विधि के रूप में सत्याग्रह का उपयोग सुनिष्चित कर लेने के बाद उन्होंने अपना सारा ध्यान भारतीयों की भौतिक असमर्थता दूर करने की ओर लगाया।… वे भारत को उस स्थिति पर लौटा देना चाहते थे, जिस पर वह अंग्रेजों के भारत आते समय था।’…‘गांधीजी चाहते थे कि भारत के लोग आर्थिक और सामाजिक रूप से फिर अपनी सभ्यता की परिधि में पहुंच जाएं और वहां से वे देशकाल के अनुरूप जो आवश्यक हों वैसे निर्णय लें।’
स्वतंत्र भारत की राज्य व्यवस्था के बारे में गांधीजी की कल्पना और उनके विचारों को जिस स्पष्टता से बनवारी ने रखा है, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। हालांकि ऐसी कोशिश अनेक विद्वानों ने की है। जैसे ‘विलक्षण दार्शनिक’बसंत कुमार मल्लिक का नाम ले सकते हैं। उनकी पुस्तक है-‘गांधी: एक भविष्यवाणी।’ यह बहुत उलझी हुई है, जबकि बनवारी की पुस्तक में कहीं उलझाव नहीं है। गांधीजी की राजनीति को आचार्य जेबी. कृपलानी ने आजीवन समझाया। वे जहां रुक गए, वहां से बनवारी की पुस्तक प्रारंभ होती है।
विलक्षण बात तो यह है कि इस पुस्तक में गांधी विचार को मार्क्सवादियों की मिथ्या नजर से देखने की चली आ रही रीति पर बड़ा प्रश्न खड़ा किया गया है। एक नई दृष्टि दी गई है। नए तथ्य हैं और अकाट्य तर्क हैं। उसी क्रम में बनवारी ने समझाया है कि गांधीजी ने ‘ब्रिटेन की संसद को वेश्या और बांझ’ क्यों कहा। इसलिए कहा जिससे भारतीय नेताओं का ब्रिटिश की संसद में आदर्श राजनीतिक व्यवस्था देखने का भ्रम टूट जाए। इसी से यह स्पष्ट हो जाता है कि गांधीजी जैसी राज्य व्यवस्था स्वतंत्र भारत में बनाना चाहते थे, उसका आधार ग्राम स्वराज्य था। जिसमें पंचायत प्रणाली का नवीनीकरण होता। गांधीजी के बाद देश उल्टी दिशा में चल पड़ा। उसे पटरी पर लाना संभव है।
इसमें बनवारी की पुस्तक से मदद ली जा सकती है। इससे यह समझ बनती है कि गांधीजी ने मार्क्सवाद को खारिज किया। लेकिन उनका नाम लेने वाले एक विडंबना के शिकार हैं। वे उन्हें मार्क्सवादी नजरिए से देखते रहे हैं। अफसोस यह है कि उनमें कोई बदलाव नहीं आया है। इस तरह वे गांधीजी के साथ अन्याय कर रहे हैं। इसमें गांधी संस्थाएं और उनके पदाधिकारी भी शामिल हैं। उन्हें मैं मठी कहने से परहेज कर रहा हूं। लेकिन आशाजनक बात यह है कि समाज में गांधी विचार को समझने की ललक पैदा हुई है।
ऐसे लोग बनवारी के इन शब्दों से नई रोशनी और ऊर्जा प्राप्त कर सकते हैं- ‘गांधीजी का महत्व यह है कि जब हमारे सार्वजनिक जीवन के अधिकांश अग्रणी नेता आत्मविस्मृत पड़े हुए थे,यूरोपीय विचारों और संस्थाओं से अभिभूत होकर अपने मार्ग से भटक गए थे,उन्होंने देश को उसके अपने धर्म का स्मरण कराया।’आज उसे पुन: अगर स्मरण किया जा सके तो ‘भारत के लोग अपनी सभ्यता के दायरे में’लौट आ सकते हैं। ‘गांधीजी को पूरा विश्वास था कि अपने इस मार्ग पर भारत लौट आएगा।’ कैसे और किस तरह यह संभव है?इसका ही यह सूत्र है-‘देश-काल बदलता है। अभी भी बदल रहा है और आने वाले समय में और भी बदलेगा। देश-काल में परिवर्तन के साथ हमें अपनी सभ्यता की विधियों में कुछ परिवर्तन करने होते हैं। भारत के लोग इतने कुशल हैं कि वे देश-काल को समझकर अपनी विधियों को उसके अनुरूप ढाल लें।’ अंत में यह संदेश है-‘हमें इस लंबी अवधि के अनुरूप पुरुषार्थ में लगे रहना है। ठीक उसी तरह जैसे गांधीजी अपने पुरुषार्थ में लगे रहे थे।’मेरा निष्कर्ष है कि जिस तरह रस्किन की पुस्तक से मोहन दास में नई समझ और नया संकल्प पैदा हुआ, वैसा ही प्रभाव बनवारी की पुस्तक-‘भारत का स्वराज्य और महात्मा गांधी’ पैदा करने में समर्थ है।
Country has paid dearly for these congi leaders who were British stooge, Hindu haters and Jihadi supporters. Country still continues pay dearly for their self serving attitude and sins. We suffer from personality cult and refuse to analyze people and incidents objectively. No wonder we are in the throes of anarchy, lawlessness, corruption and visible poverty. Please do not place them on a pedestal where they cannot be judged. I am sure you will delete this comment but it is important to make you aware of the fact that not everybody agrees with your tunnel vision where you only see what pleases you. We will be different country if we stop engaging in personality cult which has got even worse now. Country is above any person.