कुछ दिनों बाद बोफोर्स तोप सौदे का मामला स्वीडन रेडियो की खबर से सामने आया। यही तब भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा मुदद बना। जनसत्ता की उस आंदोलन में एक खास तरह की भूमिका थी। उसकी साख से आंदोलन को बढ़ाने में मदद मिली। जनसत्ता की ख़बरों का असर था कि पूरे उत्तर भारत में हिंदी अख़बारों ने उसका अनुसरण किया जो आंदोलन खड़ा हुआ उसके नायक विश्वनाथ प्रताप सिंह बनें।
उन्ही दिनों जनसत्ता का चंडीगढ़ संस्करण निकला। थोड़े दिनों बाद हरियाणा विधानसभा के चुनाव हुए। देवीलाल ने चुनावों से पहले न्याय यात्रा निकाली। वह भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे आंदोलन का हिस्सा बन गई जिसे जनसत्ता के चंडीगढ़ संस्करण ने विस्तार से छापा। तब हिंदी ट्रिब्यून और पंजाब केसरी को भी उसी रास्ते जाना पड़ा। 1987 का वह साल कई मायने में याद किया जायेगा। उसी साल राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह विवाद के एक केंद्र बने। उनकी एक चिटठी से धमाका हुआ।
उन्होंने राजीव गांधी पर परम्पराएं तोड़ने और राष्ट्रपति को अहम् मामलों में अंधेरे में रखने का आरोप लगाया। उस चिटठी को जनसत्ता ने भी छापा। उससे बौखलाए राजीव गांधी ने कार्रवाई की। सी.बी.आई. ने एक्सप्रेस के ठिकानों पर 13 मार्च, 1987 को छापे मारे। एस. गुरुमूर्ति चेन्नई से गिरफ्तार करके दिल्ली लाए गए। सी.बी.आई. ने उनसे पूछताछ की। उन्हें गिरफ्तार करने का एक कारण यह बताया गया कि वे ही रामनाथ गोयनका के प्रतिनिधि होकर राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह से मिले थे और चिटठी लिखने का सुझाव दिया था।
कुछ दिनों बाद कांग्रेस के उकसावे पर यूनियन के नेता टी. नागराजन ने प्रभाष जोशी पर हमला कराया। यह 19 मार्च, 1987 की घटना है। कुछ महिने बाद इंडियन एक्सप्रेस में बोनस के सवाल पर हड़ताल हुई .वह लम्बी चली। जिस दिन समझौता हो रहा था कि भाड़े के लोगों ने जनसता के पत्रकारों पर तेजाब फेंका जिससे प्रदीप सिंह, कुमार संजय सिंह और महादेव चौहान आदि घायल हुए। उन्हें ईलाज के लिए अस्पताल में भर्ती कराया गया। इसके प्रमाण मिले कि वह हड़ताल कांग्रेस के सांसद केदारनाथ सिंह के घर से संचालित होती थी।
कांग्रेस बौखला गई थी। यह बहुत अस्वाभाविक नहीं था क्योंकि 1947 से ही कांग्रेस ऐसे अख़बारों की आदी हो गई थी जो उसके सामने दुम हिलाते थे। उस समय कांग्रेस को विपरीत अनुभव हो रहा था। जनसत्ता विश्वनाथ प्रताप सिंह को उभार रहा था। यह बेवजह नहीं था। उन्हें लोग ईमानदारी का प्रतीक मानते थे। नारा भी लगता था कि राजा नहीं फ़क़ीर है लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह कांग्रेस को तोड़ नहीं सके। इक्के दुक्के लोग ही उनके साथ आए जो राजीव गांधी से अपनी पटरी
नहीं बैठा पाए। ऊंचे पदों पर बैठे लोगों के भ्रष्टाचार के खिलाफ चले विश्वनाथ प्रताप सिंह के आंदोलन का जन दबाव था कि विपक्षी दल पिघले और कामकाजी एकता का तरीका निकाला, जो असंभव दिख रहा था उसे संभव कर दिखाया। इसका एक कारण तो रामनाथ गोयनका का पृष्ठभूमि में रहकर चलाया गया अभियान था। जनसत्ता उस अभियान का हिंदी क्षेत्र में ध्वज वाहक था। बोफोर्स मसले पर जनसत्ता ने विश्वनाथ प्रताप सिंह के आंदोलन को जिस तरह उठाया उससे हिंदी पत्रकारिता का स्वभाव बदला। उसका जुझारू चरित्र निखरा। सत्ता से बेपरवाह होकर अपनी बात कहने का साहस आया। जरुरत पड़ने पर सत्ता से लड़ने का स्वभाव विकसित हुआ। उससे जनमत बना।
विश्वनाथ प्रताप सिंह के कहने और सुनाने में हकीकत तो थी ही अख़बारों ने उसकों लोगों तक पहुंचाया। देश में एक भावना पैदा हुई कि भ्रष्टाचार को मिटाया जा सकता है। जनसत्ता की इस आक्रामक भूमिका का सीधा असर नवभारत टाइम्स पर पड़ा। उसने अपनी ख़बरों में आंदोलन को भरपूर जगह दी। यह जानते हुए भी कि वे ख़बरें कांग्रेस का बेड़ा गर्क कर देंगी। नवभारत टाइम्स जनमत के दबाव में जितना झुका उससे ज्यादा अपने नेतृत्व के कारण भी बदलाव राजेन्द्र माथुर ख़बरें छापने वाले संपादक थे। तब उनके सहयोगी सुरेन्द्र प्रताप सिंह थे। इनके नेतृत्व में नवभारत टाइम्स की पत्रकारिता जनाभिमुख बनी रही।
लेकिन नव भारत टाइम्स का पटना संस्करण कांग्रेस का बाजा बना हुआ था। उसने एक सर्वे छापा जिसमें बिहार की 54 सीटों में से कांग्रेस को 53 सीटों पर जीत मिलने का दावा किया गया था। इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ा। क्योंकि दिल्ली के दो बड़े अख़बार जब एक ही सुर में सुर मिला रहे थे तो उसका असर हिंदी पत्रकारिता पर पड़ना ही था।यह भी एक बड़ा कारण था कि 29 महीने में देश की राजनीति का नक्शा बदल गया। साफ सुथरी छवि की पहचान पाए राजीव गांधी लोगों की नजरों में भ्रष्ट हो गए। जो विपक्ष बिखरा हुआ था और जिसमें मेल जोल बहुत कठिन दिखता था वह एक साथ हुआ था एक नया प्रयोग विपक्ष की एकता का लोगों ने देखा। जिसमें विचारों के विसर्जन का दिखावा नही था। विचारधाराओं को बनाए रखते हुए विपक्षी एकता की नई तजबीज की गई।
जब विश्वनाथ प्रताप सिंह 2 दिसंबर, 1989 को प्रधानमंत्री बने तो वह प्रयोग सफलता के कदम चूम रहा था। उससे पहली बार हिंदी और भाषायी पत्रकारिता को अपनी ताकत का अहसास हुआ। उनमें वह ताकत पहले भी थी पर सोई हुई थी। सत्ता के प्रति समर्पण या समझौता जो उनकी नसों में भरा हुआ था वह निकला। उन्हें समझ में आया कि वे सत्ता को बदल सकते हैं। गैर कांग्रेस वाद के जो जो प्रयोग पहले हुए उनमें अख़बारों की भूमिका सत्ता के अनुरूप चलने की रही थी। 1967 रहा हो या 1977 हर बार अख़बारों ने सरकारों की गाई।
1989 में जो राजनीतिक परिवर्तन हुआ उसमें अखबारों के बनाए जनमत का बड़ा योगदान था। इस अर्थ में लोकतंत्र मजबूत हुआ। आम आदमी को अपने वोट की ताकत समझ आई। 1977 और 1989 में एक समानता भी दिखती है। पहले में जेपी का नायकत्व था तो दूसरे में रामनाथ गोयनका भी कुछ वैसी ही परिस्थितियों के गवाह बने और इस दुनिया से चले गए……………….जारी
सर,
आप ने पत्रकारिता को नई दिशा देने के उद्देश्य से अच्छा प्रशंग उठाया है।आप के प्रति नई पीढ़ी का आभार