सर्वोदय विचार के गांधीवादी परिवार में श्री अभय बंग का जन्म हुआ। वर्धा, महाराष्ट्र में ठाकुरदास और सुमन बंग के घर सन् 1950 में वे जन्में। सर्वोदय आंदोलन से जुड़े माता-पिता से उन्होंने ‘सबका उदय, सबका विकास’ के जमीनी संस्कार पाये। समाज के सबसे कमजोर पायदान पर खड़े ग्रामवासी के साथ खड़े रहने की सीख भी उन्हें पारिवारिक संस्कार से ही मिली। शुरूआती दिनों में उन्हें नई तालीम में शिक्षा गांधीजी के सेवाग्राम आश्रम में ही मिली। वहीं आचार्य विनोबा भावे का सानिध्य भी मिला। वहीं नई तालीम से नया भारत बनाने का सपने अभय बंग ने भी देखा।
नागपुर के गवर्मेंट मेडीकल कॉलेज से डॉक्टरी की पढ़ाई की। वहीं जीवन संगनी डॉक्टर रानी बंग से मिलना हुआ। डॉक्टर होने के बाद दोनों ने विवाह किया। इनके दो पुत्र हैं आनंद और अमृत। दोनों का ही निश्चय था कि गांव में रह कर ही चिकित्सा सेवा करेंगे। चिकित्सा सेवा के साथ साथ स्वास्थ्य विषयों पर शोध भी करते रहे। उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण और उपयोगी शोधपत्र लिखे। तैयार किए। समाज के स्वास्थ्य और ग्रामीण लोगों के जीवन यापन से जुड़े पहलूओं पर शोध लिखे। विचारों को जमीन पर उतार कर चलाने के अनेक काम किए। खेती मजदूर की आमदनी बढ़ाने का शोधपत्र महाराष्ट्र सरकार ने माना। लागू किया। इससे उनमें समस्याएं सुलझाने की, ज्यादा जानने व शोध करने की लगन लगी।
इसी लगन के कारण सन् 1984 में दम्पत्ति अमेरिका के जॉन हॉपकिन्स् विश्वविद्यालय से सामुदायिक स्वास्थ्य की शिक्षा ली। गांधी विचार से प्रभावित डॉक्टर दम्पत्ति ने तय किया की समाज के सबसे कमजोर वर्ग के लोगों के स्वास्थ्य सुधार पर काम करेंगे। लौटने के बाद महाराष्ट्र के आदिवासी इलाके घढ़चिरौली में काम करने लगे। सन् 1985 में ‘सर्च’ – सोसाईटी फॉर एजुकेशन, एक्शन एंड रिसर्च इन कॉमुनिटी हैल्थ – नाम की संस्था शुरू की। जो आज भी वहां के लोगों के स्वास्थ्य सुधार के काम में महत्वपूर्ण योगदान दे रही है। पैंतीस सालों से घड़चिरौली के आदिवासी और ग्रामीण इलाकों में रहते हुए सामुहिक स्वास्थ्य समस्याओं के उपचार और निधान में लगे हैं। ‘सर्च’ संस्था के सहारे उन्होंने स्वास्थ्य की व्यवहारिक व्यवस्था बनाई जिसको व्यवहारिकता की सफलता से चला रहे हैं। वहीं उन्होंने उपचार के प्राथमिक चिकित्सालय और एक अस्पताल भी बनाया हैं।
इन्हीं आदिवासी व ग्रामीण इलाकों में उन्होंने स्वास्थ संसद का प्रयोग चलाया। बातचीत और आपसी समझ की चिकित्सा से स्वास्थ्य सेवा चला रहे हैं। स्वास्थ सेवा के दौरान उन्होंने देखा कि इस इलाके में नवजात शिशु की मृत्यु दर सबसे भयंकर समस्या है। उस पर उन्होंने गहन शोध किया। जो शोधपत्र लिखे वो आज भारत के अलावा कई विकासशील और गरीब देशों में लागू किए गए है। इस शोधपत्र को विश्व स्वास्थ संगठन और यूनीसेफ ने भी मान्यता दी और अपनाया। भारत सरकार ने भी राष्ट्रीय योजना में उनके सुझाए कार्यक्रम को सम्मलित किया। उनके प्रयोजन और शोध संग्रह से आज घढ़चिरौली में नवजात शिशु की मृत्यु दर प्रति 1000 बच्चों में 121 से घट कर 30 रह गयी है। चिकित्सा शोध की मशहूर पत्रिका ‘लैंस्लेट’ ने बंग दम्पत्ति को सम्मानित करते हुए उनके शोधपत्र को नवजात शिशु की देखरेख के लिए 180 सालों में सबसे महत्वपूर्ण योगदान माना। मैग्जीन ने उनको ‘ग्रामीण भारत की स्वास्थ्य सेवा के पुरोधा’ के रूप में भी याद किया।
आज ‘आशा’ संस्था की कार्यकर्ता बंग दम्पत्ति के बनाए शोधपत्र के आधार पर ही स्वास्थ्य सेवा के काम में जुटी हैं। अनेक राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त डॉक्टर अभय बंग को सन् 2018 में भारत सरकार ने ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ की सराहनीय सेवा के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया। उनके आज के व्याख्यान का विषय है ‘अगर आज गांधी होते तो क्या करते : नौ सुत्री कार्यक्रम’।