अफ़गानिस्तान में जो चल रहा है वह तो सभी के सामने है। आज का मीडिया वहां की राजनीति, कूटनीति और खौफनीति से लगातार अवगत करा रहा है। लेकिन जो नीति पारंपरिक तौर पर व्यवहारिक रहती है उस पर भी समाज का ध्यान जाना चाहिए। देखनi यह भी चाहिए आखिर अफ़गानिस्तान में बीस साल से भी ज्यादा चली अमेरिकी, अफ़गानीऔर तालिबानी कोशिशें व्यवहारिकता में कहां टिकती है? बंदुक के बल पर लड़ाई तो जीतीजा सकती है मगर क्या बंदुक के बल पर सरकार चलायी जा सकती हैं? क्योंकि अपनी हीजनता का दिल बंदुक तान कर नहीं जीता जा सकता। अफ़गानिस्तान में बंदूक के बल परजीती गई सत्ताएं बदलती रही हैं। डर को कायम कर खौफ की सरकार कब तक चलाई जा सकती है?
पिछले पचास सालों से अफ़गानिस्तान इन्हीं सर्वसत्ता के घुसपैठियों के कारण झुलसतारहा है। आखिर अफ़गानी लोग क्यों सरकार चलाने वाले अपने सेवक नहीं चुन पाए? क्योंअफ़गानिस्तान में अपनी राजनीति के प्रति व्यवहारिकता का समाज नहीं पनपपाया? क्यों सामाजिक शांति के लिए अफ़गानिस्तान की राजनीति में बंदुक का ही सहारा गया? सीधे तौर पर इसको ज़रिया और मक़सद का मतभेद मानना होगा। साधन-साध्यचुना या ज़रिया-मक़सद का सिद्धांत राजनीति और समाज के सामने महात्मा गांधी ने रखा था।राजनीति अगर खुदगर्ज न होने का दावा करती है, तो उसको जांचने का व्यवहारिक सिद्धांतभी उसके साध्य को पाने के साधनों से समझा जा सकता है। अफ़गानिस्तान में घुसपैठकरने वाली सत्ताओं का मक़सद क्या रहा है? अफ़गानिस्तान को सर्वसत्ता के लिएवैश्विक अड्डा बनाया गया। सैन्य हथियार और बंदूकें बेचने का बाज़ार बनाया गया।अफ़गान लोगों का अपने ही घर में रहना हराम हुआ है।
महात्मा गांधी के आखिरी सालों का दस्तावेज़ तैयार करने वाले उनके सहायक प्यारेलालने किताब ‘पूर्णाहूति’ में विस्तार से लिखा है। सन 1945 और दूसरे विश्व युद्ध का समयहै। जापान पर अमेरिका के अणुबम गिराए जाने की भयावता के बाद युद्ध समाप्ती कीआशा लगाई गयी। पत्रिका ‘कोलियर्स् विकली’ के रॉल्फ कोनिस्टन ने एक अनौपचारिक भेंटमें गांधीजी से पूछा, ‘’धुरी राष्ट्रों की हार में से उत्पन्न होने वाली संधि के स्थायी होनेके बारे में आपको इतनी शंका क्यों होती है? गांधीजी ने उत्तर दिया ‘’कारण बहुत स्पष्टहै। हिंसा का तो आगे-पीछे अंत होने ही वाला है। परन्तु ऐसे अंत से शांति का जन्म नहींहो सकता। मैं निश्चित रूप से कह सकता हूं कि यदि फिर से संसार सयानपन की दिशा मेंनहीं मुड़ा तो हिंसक मनुष्यों का पृथ्वी पर से सफाया हो जाएगा। ….. जिनके हाथ खून सेगहरे रंगे हुए हैं वे लोग संसार के लिए अहिंसक व्यवस्था का निर्माण नहीं कर सकते।‘
फिर बातचीत में वे आगे पूछते हैं ‘’तो क्या आप नहीं मानते की पांच बड़ी सत्ताएं या तीनसत्ताएं शांति की गारंटी दे सकती हैं?’’गांधीजी बोले ‘’मैं निश्चय ही ऐसा नहीं मानता। अगर वे अहंकारवश यह सोचती हों किरंगीन और तथाकथित पिछड़ी हुई जातियों का शोषण जारी रहते हुए भी वे स्थायी शांतिस्थापित कर सकते हैं, तो वे मुर्खो के स्वर्ग में रहती हैं।‘’
‘’क्या आपके विचार से वे जल्दी ही आपस में लड़ पड़ेंगी?आप तो ठीक मेरी ही भाषा बोल रहे हैं। रूस के साथ तो झगड़ा अभी से शुरू हो गया है।प्रश्न यही है कि अन्य दो – यानी इंग्लैंड और अमेरिका कब झगड़ना शुरू करते हैं। संभव
है, शुद्ध स्वार्थ उन्हें सयाना बना दे और जो लोग सॉन फ्रांसिस्को में एकत्र होंगे वे यहकहें – ‘गिरी हुई लाश के लिए हमें आपस में नहीं लड़ना चाहिए’। साधारण मनुष्य को इससेकोई लाभ नहीं होगा। इससे विपरीत अहिंसा मार्ग से भारत की स्वतंत्रता आएगी तो वहसंसार की शोषित जातियों के लिए सबसे बड़ी बात होगी। इसलिए मैं उसी पर संपूर्ण ध्यानकेन्द्रित करने का प्रयत्न कर रहा हूं। यदि भारत अपनी बारी आने पर न्याय का मार्गग्रहन करेगा, तो वह शांति-परिषद में अपनी शर्त नहीं रखेगा। परन्तु शांति और स्वतंत्रताउसकी घरती पर उतर आएगी – एक भंयकर प्रचंड धारा के रूप में नहीं बल्कि ‘स्वर्ग सेबरसने वाली कोमल वर्षा’ के रूप में। अहिंसा द्वारा प्राप्त स्वतंत्रता भारत के छोटे से छोटेआदमी के लिए भी होगी। जब वह यह कह सकेगा कि ‘मुझे मेरी स्वतंत्रता मिल गई’ तभीमैं कह सकता हूं कि मुझे भी स्वतंत्रता मिल गई है।‘’
सितंबर 2001 में हुए आतंकी हमले का बदला लेने के लिए अमेरिका ने अफ़गानिस्तान मेंयुद्ध छेड़ा था। बीस साल, और अरबों खरबों डॉलर खर्च कर उन्हीं आतंकियों कोअफ़गानिस्तान सौंप कर अमेरिका अब बाहर निकल आया है। यह कहते हुए कीअफ़गानिस्तान के गृह युद्ध में अब उनको नहीं पड़ना है। तो दुनिया की सत्ताओं सेपूछना चाहिए कि बीस साल में अमेरिका ने अफ़गानिस्तान में हासिल क्या किया? सिवाएवहां के सभी गुटों को सेन्य हथियार बेचने और वहां के साधारण लोगों की बदहाली केअलावा कुछ हासिल नहीं हुआ है। ढाक के तीन पात ही हैं। अमेरिका के तीन राष्ट्रपतियों केबदले की भावना को चौथे राष्ट्रपति बाइडन सुधारने में लगे हैं।
इसके बाद बातचीत आक्रमणकारी राष्ट्रों के साथ युद्ध के बाद कैसा व्यवहार किया जाएइस विषय पर चल पड़ी। गांधीजी बोले ‘‘एक अहिंसक मनुष्य के नाते में व्यक्तियों को दंडदेने में विश्वास नहीं रखता। किसी समुचे राष्ट्र को दंड देने की बात तो मुझे और भी कमबरदाश्त हो सकती है।‘’ फिर वार्ताकार ने उनसे पूछा ‘’युद्ध के अपराधियों का क्याहोगा? गांधीजी ने तुरन्त तीखे स्वर में पूछा, ‘’युद्ध का अपराधी क्या होता है? क्यायुद्ध स्वयं ईश्वर और मानवता के विरूद्ध एक अपराध नहीं है? और इसलिए जिन लोगोंने युद्ध की स्वीकृति दी, उसकी योजना बनाई और उसका संचालन किया वे सब क्यायुद्ध के अपराधी नहीं हैं? युद्ध के अपराधी केवल धुरी राष्ट्रों में ही नहीं हैं। रूज़वेल्ट औरचर्चिल, हिटलर और मुसोलिनी से युद्ध के कम अपराधी नहीं हैं।‘’
आगे एक दूसरे सज्जन के साधन और साध्य के सिद्धांत पर उठाए गए सवाल परगांधीजी बोलते हैं, ‘’हमारे पास अहिंसा पालन के सिवा मानव-संबंधों में सत्य की साधन काकोई और उपाय नहीं है। क्योंकि अहिंसा साधन है, इसलिए स्वभाविक रूप में हमारे दैनिकजीवन में अहिंसा का ज्यादा संबन्ध रहता है। इस कारण हमें अपने यहां के आम लोगों कोअहिंसा की ही शिक्षा देनी चाहिए। यदि हम साधनों को विशुद्ध रख सकें तो साध्य अपनेआप विशुद्ध हो जाएगा।‘’
आखिर अफ़गानिस्तान में पहले सोवियत संघ और फिर अमेरिकी घुसपैठ का मक़सद क्यारहा है? दोनों कहते रहे हैं कि यह उनकी आतंक के खिलाफ लड़ाई है। मगर क्या अमेरिका,और सोवियत संघ दुनिया से आतंकवाद को मिटा पाए हैं? क्योंकि उनके साधन सच्चे नहींथे इसलिए उनके साध्य भी सफल नहीं हुए। दुनिया तो आतंकवाद से छुटकारा चाहिए तोबंदूक के बजाए बातचीत के व्यवहार से ही निकालने की कोशिश करनी होगी। लेकिन फिरवैभव संपन्न देशों के हथियार के बाज़ार का क्या होगा? साधन और साध्य का घालमेलइसी स्वार्थ के अर्थ की वैश्विक नीति है।