क्या जब देश आजादी की 75 वीं वर्षगांठ मना रहा होगा,तब तक किसानों  की आमदनी दुगनी ह़ो जायेगी?

खरीफ फसल के लिए उम्मीदें जगाती बरसात। भारत में समय पर अच्छी बरसात किसानों के लिए जहां कई सौगात लेकर आती हैं, वही अतिवृष्टि कई बार किसानों के लिए मुसीबतें खड़ी कर देती  है। पूर्वी उत्तर प्रदेश और  सटे बिहार के जिलों में खरीफ के इस सत्र में कुछ ऐसे ही हालात पैदा हो गए हैं। उत्तर प्रदेश के 75 जिलों में 21 जिलें छिटपुट बरसात अथवा सूखे की चपेट में है।वहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ हिस्से में अतिवृष्टि की  वजह से बाढ़ की स्थिति पैदा हो गई है।  

दूसरी फसल की बुवाई नहीं कर पा रहे हैं।  किसानों ने अपने अनुभव के आधार पर खरीफ के लिए तीन दिन  और रबी की फसल के लिए 13 दिन का समय मुकर्रर किया है। इस वक्त वह 3 दिन भी किसानों को कायदे से नसीब नहीं हो पा रहा हैं। मक्का ज्वार, बाजरा और अरहर की खेती की बुवाई पर इसका खासा असर पड़ा हैं। कृषि मंत्रालय के एक सूचना के मुताबिक 17 जुलाई तक इस साल पिछले साल के तुलना में इस अवधि के दौरान 142.6 लाख हेक्टेयर क्षेत्र के मुकाबले 108. 479 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में धान की बुवाई हो चुकी है। खरीफ फसल के कुल रकबे में इस साल इसी अवधि के दौरान लगभग 21 फीसद की बृद्धि हुई  है। मौसम विभाग के एक अनुमान के मुताबिक जुलाई के दूसरे सप्ताह तक पिछले साल के मुकाबले इस साल लगभग 14% ज्यादा बरसात हुई है।  इस साल मानसुन की अनुकूलता के अलावा खरीफ के रकबे में  वृद्धि दर्ज की कुछ खास  वजहें हैं। 

ठीक समय पर बरसात का आगाज, बहुप्रतीक्षित कृषि सुधारों की घोषणा, सरकार के प्रयासों से  रवी फसलों की कोरोना कॉल में रिकॉर्ड खरीदारी और अधिकतर गांव लौटें कामगारों का खेती के काम में नए सिरे से लगना भी शामिल हैं। लॉकडाउन के दौरान सरकार ने करीब 2 .6अरब रुपये का पूंजी प्रवाह गांवों के लिए सुनिश्चित किया।इससे गांवों में मांग तेज हुई और किसानों ने इस दौरान खेती के संसाधन जुटाने के लिए जमकर निवेश किया।नतीजतन  ट्रैक्टरों,  दुपहिया वाहनों और रसायनिक खादों की बिक्री में अभूतपूर्व वृद्धि दर्ज हुई। बता दें कि भारत के सकल घरेलू उत्पाद में ग्रामीण अर्थव्यवस्था की भागीदारी लगभग 4 8% है और ग्रामीण आबादी का 70 फीसद हिस्सा इस अर्थव्यवस्था पर निर्भर हैं।

देश की कुल श्रम शक्ति का लगभग 50 फीसद खेती और उससे संबंधित कामों में लगा हैं। गौरतलब है कि सन 1991 के आर्थिक सुधारों का लाभ विनिर्माण और सेवा क्षेत्र को मिला। कृषि क्षेत्र इन सुधारों से  लगभग वंचित रहा। इस दौरान सेवा क्षेत्र में उल्लेखनीय 50 फीसद की  वृद्धि हुई।खेती उन्नत तो हुई ।

बेहतर तकनीक और उन्नत किस्म के बीजों का इस्तेमाल खेती में बढ़ा। पर उसका लाभ किसानों को मिलने के बजाय  किसानों का नुकसान  ज्यादा हुआ। खासकर उन किसानों जो  नगदी खेती में लगे हुए थे।वे न सिर्फ कर्ज के बोझ तले दबते चले गए बल्कि ज्यादातर आत्महत्या करने के लिए विवश हुए।  ऐसी ही वक्त जरूरत थी, किसानों के साथ सरकार के खड़े होने की उनके हाथ थामने की। निदान के रूप में कर्ज माफी का  नुस्खा सामने आया। पर अब महसूस किया जाने लगा है कि कर्ज माफी किसानों की समस्याओं का एकमात्र  समाधान नहीं है।

यह किसानों को एक तरह से मुफ्त खोर बना रहा हैं और किसानों के अपने परिश्रम के बजाय सरकारों पर ज्यादा निर्भर होने और लालच ओर की ओर प्रेरित कर रहा हैं।किसानों की आमदनी बढ़ाकर उन्हें समृद्ध करने की कोशिशें मोदी सरकार के सत्ता आने के बाद से लगातार हो रही  हैं। सबसे अहम सवाल यह कि क्या सन 2022 तक जब देश आजादी की 75 वीं वर्षगांठ मना रहा होगा,तब तक किसानों  की आमदनी दुगनी ह़ो जायेगी? फिलहाल तो निर्धारित समयावधि के भीतर इस लक्ष्य को हासिल करने में कई मुश्किलें आ रही हैं।एक तो अब समय  महज  दो साल ही बचा हैं।दूसरा यह कि कृषि की मौजूदा विकास दर से उस लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता, जिनकी  सिफारशें दलवई समीति ने की है।गौरतलब है कि सन 2016 में अशोक हलवाई के नेतृत्व में एक अंतर।मंत्रालयी समिति का गठन किसानों की आय दोगुनी करने के बाबत गठित की गई थी। इस समिति की आज तक की सिफारिशों के मुताबिक  कृषि क्षेत्र में सालाना 10.4% की वृद्धि दर हासिल करनी होगी। जो अब तक कभी हासिल नहीं हुआ है। जनवरी सन 2020 में एन एस एस ओ की रिपोर्ट बताती है कि कृषि क्षेत्र में मौजूदा विकास दर 2.8% है। समिति यह भी सुझाव देती है कि सन 2022 तक कृषि क्षेत्र में लगातार 6.4 लाख करोड़ रुपए निवेश की जरूरत होगी।जबकि सन2014से 2019तक कुल 211694.61लाख करोड़ रुपये का बजटीय प्रावधान सरकार के जरिए किया गया है।ऐसा देखा गया है कि कई जरूरी सुधार और कठोर निर्णय आपात स्थिति में ही लिए जाते हैं।

कोरोना  काल ने सरकार के लिए कृषि क्षेत्र में एक अरसे से लंबित सुधारों के लिए वह अवसर प्रदान कर दिया। पिछले 15 जून को कृषि सुधारों के बाबत एक अध्यादेश के जरिए सरकार ने इसकी घोषणा की।जिसके तहत कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य अध्यादेश को अधिसूचित किया गया है।अब किसान अपनी उपज जहां चाहें, ज्यादा कीमत पर बेच सकते हैं।सरकार को उम्मीद है कि किसानों अब अपनी उपज का   पहले से ज्यादा कीमत मिलेगी।दूसरा सुधार मूल्य आश्वासन पर किसान समझौता और कृषि सेवा अध्यादेश 2020 के तहत किसानों को अब एक राष्ट्रीय ढांचा उपलब्ध होगा। इससे कृषि व्यवसाय से जुड़ी कंपनियां थोक व्यापारी और निर्यातक तथा किसानों के बीच पहले से तय कीमतों के आधार पर समझौते की छूट होगी। एक तरह से इस अधिनियम से कांट्रैक्ट फार्मिंग को बढ़ावा मिलेगा

दरअसल सरकार ने मई 2018 से ही किसानों को उनके उत्पादों की कीमत निर्धारित करने और प्रायोजकों के साथ मोल भाव तय करने के लिए अनुबंध कृषि मॉडल अधिनियम की शुरुआत कर दिया था। एक अन्य संशोधन के जरिये कहा गया है कि थोक व्यापारी कुछ विशेष परिस्थितियों, मसलन, युद्ध और अकाल को छोड़कर अब अनाज का मन माफिक भंडारण कर सकते हैं। आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 इस मकसद से पास किया गया था कि उत्पादन आपूर्ति और वितरण  को नियंत्रित किया जा सकें। इन सुधारों के जरिए उम्मीद की जा रही है कि खेती निवेश के लिए एक आकर्षक क्षेत्र के रूप में उभरेगा और किसानों की आमदनी बढ़ाने में इससे मदद मिलेगी। फिलहाल तो अतिवृष्टि की वजह से मोटे अनाजों  मसलन, मक्का, ज्वार, बाजरा और दलहनी फसलों, उड़द, मूंग 

अरहर की  बुआई में दिक्कत आ रही है फिर भी सरकार को खेती और ग्रामीण अर्थव्यवस्था से नई उम्मीदें जगी है। क्रिसिल की एक हालिया रिसर्च रिपोर्ट बताती है कि कोरोना महामारी से कृषि ही एक ऐसा क्षेत्र है, जो प्रभावित नहीं है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि कृषि क्षेत्र में वर्ष 2020/21 के दौरान 2.5 फीसद वृद्धि की संभावना है। कृषि से जुड़े एक जोखिम के बारे में  इस  रिपोर्ट में आगाह किया गया है। कहा गया है कि लॉकडाउन के दौरान बागवानी के उत्पादों पर टिड्डियों का हमला हो सकता है ।गौरतलब हैं कि खाद्यान्न उत्पादन की तुलना में बागवानी की उपज सन 2012/13  से लगातार ज्यादा हो रहा हैं।इसके बावजूद जिन तेइस खरीफ फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा सरकार ने हाल में किया हैं, उसमें  एक भी बागवानी के उत्पाद शामिल नहीं हैं।

खरीफ सीजन में मक्का की बुवाई करने का अवसर किसानों को नहीं मिल पा रहा हैं। इस वजह से पूर्वी उत्तर प्रदेश और सटे बिहार के जिलों में  मक्का, ज्वार बाजरा और दलहनी फसलें मसलन उड़द मूंग और अरहर की बुवाई  पर खासा असर पड़ा हैं। भारत में मक्के की करीब 70 फीसद पैदावार खरीफ के सीजन में होती है। इसका 60 फीसद उपयोग पशुओं और मुर्गी के दाने तैयार करने के काम आता हैं। पर इस साल को लॉकडाउन के दौरान आवाजाही पर लगी रोक और इस अफवाह की वजह से कि मुर्गा खाने से कोरोना संक्रमण तेजी से फैलता है,  मुर्गी पालकों और मक्का उत्पादक किसानों का सबसे अधिक  नुकसान हुआ हैं।

पिछले साल दो हजार  रुपए से बाईस रुपये प्रति कुंतल के मुकाबले इस साल किसानों को मक्के का दाम ₹1000 प्रति कुंतल  मिलने में भी मुश्किलें आ रही हैं।यहीं नहीं सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य अट्ठारह सौ पचास रूपये  प्रति कुंतल कीमत किसानों को  नहीं मिल पा रहा हैं।इस वजह से मक्का उत्पादक किसान अपने हालात पर रो रहे हैं। जाहिर है कि कृषि क्षेत्र में सुधारों के अलावा न्यूनतम समर्थन मूल्य और बाजार मूल्य के  इस फर्क को मिटाने के लिए सरकार को अभी कई ठोस उपाय करने होंगे।एक जरूरी सवाल यह भी है कि अगर खेती की लागत क्षेत्र दर क्षेत्र अलग अलग हैं, तो न्यूनतम समर्थन मूल्य सार्वभौमिक रूप से पूरे देश में एक जैसा होना    कहां तक मुनासिब है?

खेती किसानी संबंधित ऐसे कई और सवाल  हैं, जिनसे सरकार को अभी रूबरू होना हैं। दरअसल अपने देश में जलवायु की विविधता की तरह खेती के क्षेत्र में कई इलाकाई विविधता भी हैं, जिसकी वजह से खेती में एकमुश्त एक सरीखा समाधान संभव नहीं है। खेती एक निरंतर विकास मान प्रक्रिया हैं, जिसमें किसान अपने अनुभवों से निरंतर सीखता हैं और सरकार को भी चाहिए कि वह किसानों के लाभ हानि और लागत के अनुभवों सबक लेते हुए  नीतिगत परिवर्तन करने की दिशा लगातार प्रयत्न करती रहें। 

 

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