मानस के सूक्ष्म लोक का हवनकुंड

राजेन्द्र पांडे

मानस के सूक्ष्म लोक का हवनकुंड

अयोध्या को लेकर पुराणों में जगह-जगह उद्धरण मिलते हैं। मनु से बसाई गई अयोध्या को विश्व की पहली राजधानी के रूप में कहा गया है, जहां से धर्म, संस्कृति, संस्कार, ज्ञान व वैराग्य का प्रसार जंबू द्वीप के साथ पूरे विश्व में हुआ। रुद्रयामल ग्रंथ में कहा गया है कि- 

 

विष्णोस्ससुदर्शने चक्रेस्थिता पुण्यांकुरा सदा।

यत्र साक्षात् स्वयं देवो विष्णुर्वसति सर्वदा।।

सहस्रधारामारभ्य योजनं पूर्वतो दिशि।

पश्चिमे च यथा देवि योजनं संमतोवधि।।

मत्स्याकृतरियं भद्रे पुरी विष्णो रुदिरिता।

पश्चिमेतस्य मूर्धा तू गोप्रताराश्रता प्रिये।।

पूर्वत: पुच्छभागो हि दक्षिणोत्तर मध्यमा।।

एतत् क्षेत्रस्य संस्थानम् हरेरंतगृहम स्मृतम।

अर्थात अयोध्या में श्रीहरि विष्णु के सुदर्शन चक्र पर स्थित है। यहां सदैव पुण्य का वास रहता है। वह स्वयं सदैव यहां् विराजमान रहते हैं। अयोध्या का निर्धारण करते हुए पुराण में कहा गया है कि सहस्रधारा (लक्ष्मण घाट) इसका मध्य स्थल है। इससे एक योजन पूरब इसका पुच्छ भाग तो एक योजन पश्चिम इसका सिर भाग है। इसकी आकृति मत्स्याकार है। साथ ही इसका मध्य भाग उत्तर से दक्षिण है। भौगोलिक परिवर्तनों के बावजूद अयोध्या आज भी मनु से बसाई गई अयोध्या के स्वरूप में है। पश्चिम में गुप्तारघाट तो पूरब में बिल्वहरिघाट को यहां के लोग सिर व पुच्छ भाग मानते हैं। सहस्रधारा आज भी अयोध्या के मध्य भाग में स्थित है। प्राचीन अयोध्या को कोसल देश, साकेत, इच्छवाकु भूमि और रामपुरी आदि के नाम से भी जाना जाता है। इक्ष्वाकु वैवस्वत मनु के सबसे बड़े पुत्र थे। धरती का दूसरा नाम पृथ्वी इस वंश के छठे राजा पृथु के नाम पर पड़ा। गंगा को पृथ्वी पर लाने वाले इसी वंश परंपरा के भगीरथ थे। बाद में अयोध्या का इतिहास रघुवंश के नाम से आगे बढ़ा। अर्थववेद में कोसलदेश की राजधानी को अयोध्या बताया गया है। इसे देवताओं से निर्मित स्वर्ग की भांति समृद्धिशाली कहा गया है। 

रूद्रयामल ग्रंथ के आधार पर अयोध्या और उसकी ८४ कोसी सांस्कृतिक परिधि में तीर्थो की एक लंबी सूची तैयार की गई थी। पत्थर के स्तंभ १४८ स्थानों पर लगाए गए। कुछ स्थानों के शिलालेख गायब हो गए है। यह शिलालेख ब्रिटिश काल में गठित एडवर्ड अयोध्या तीर्थ विवेचनी सभा के द्वारा सन १९०२ में रुदयामल ग्रंथ को आधार मानकर लगवाए गए थे। 

अयोध्या में प्रतिदिन दर्शन किए जाने वाले दस तीर्थो का वर्णन है। इनमें श्रीरामजन्मभूमि, लोमश जी, सीताकूप, सुमित्रा भवन, सीता रसोई, कैकेई भवन, रत्न सिंहासन, कनक भवन, रामकोट, हनुमानगढ़ी शामिल है। श्रीरामजन्मभूमि मुक्ति आंदोलन में समतलीकरण के दौरान यहां के कई शिलालेख इधर- उधर हो गए लेकिन श्रीरामजन्मभूमि के साथ हनुमानगढ़ी, कनकभवन, रामकोट, सीता कूप, सीता रसोई आदि स्थल वर्तमान में भी मौजूद हैं। 

अयोध्या नगर के साथ ही गोंडा, बस्ती जिले तक ये शिलालेख वर्तमान समय में भी ज्यादातर स्थानों पर मिलते है। इन्हीं को आधार मानकर अयोध्या की चौरासी कोसी परिक्रमा की जाती है। ऐसे ८३ स्थल है जो अयोध्या की पंचकोसी परिक्रमा के भीतर पड़ते है। इनमें क्रमांक एक से क्रमश: श्रीरामजन्मभूमि, लोमश, सीताकूप, सुमित्राभवन, सीता रसोई, कैकेई भवन, रत्नसिंहासन, कनकभवन, छोटी देवकाली, रामकोट, हनुमानगढ़ी, रामसभा, दंतधावन कुंड, सुग्रीव किला, क्षीरसागर, क्षीरेश्वरनाथ, रूक्मिणीकुंड, अंगद, नल, नील, सुखेन, नवरत्न पत्थर, वशिष्ठ कुंड, वामदेव, सागरकुंड, गवाक्ष, दधिमुख, दुर्गेश्वर भगवान, शतबलि, गंधमादन, ऋषभ, पनस, विभीषण मंदिर, शर्मा जी, विघ्नेष, विभीषण कुंड, पिंडालक, मातगैड़, दुविध जी, सप्तसागर, मयंक जी, जामवंत, केशरी, प्रमोदवन, रामघाट, सुग्रीव कुंड, हनुमानकुंड, स्वर्णखनि, यद्यवेदी, सरयू तिलोदकी संगम, अशोक वाटिका, सीताकुंड, अग्निकुंड, विद्याकुंड, विद्या देवी, खजुहा कुंड, मणिपर्वत, गणेश कुंड, दशरथ कुंड, कौशिल्या कुंड, सुमित्रा कुंड, कैकेई कुंड, दुर्भषर कुंड, महाभरस कुंड, वृहस्पति कुंड, धनयक्ष कुंड, उर्वशी कुंड, चुटकी देवी, विष्णुहरि, चक्रहरि, ब्रह्मकुंड, सुमित्रा घाट, कौशिल्या घाट, कैकेई घाट, ऋणमोचन, पापमोचन, लक्ष्मणघाट, स्वर्गद्वारा, चंद्रहरि, नागेश्वरनाथ, धर्महरि, जानकीघाट है। अयोध्या का चौरासी कोस सूक्ष्म लोक के हवन कुंड सदृश्य है। अयोध्या दर्पण के लेखक ने भी कहा है कि जिस किसी स्थल पर निरंतर भगवद ् आराधन होता है और पूर्णत: अर्पित भगवद् जन जहां निवास करते हैं उस स्थल या आश्रम के चारों ओर की भूमि तीन-तीन योजना तक दिव्य परमाणुओं से ओत-प्रोत हो जाती है और वहां तक की भूमि तीर्थ का स्वरूप धारण कर लेती है। यहां पहुंचने वाला हर व्यक्ति ईश्वर के प्रति नतमस्तक हो जाता है। इस हवनकुंड सदृश्य क्षेत्र से निकलने वाली आध्यात्मिक ऊर्जा मानस पटल में नए सृजन का मार्ग प्रशस्त करती है। 

श्रीराम जन्मभूमि:-श्रीराम जन्मभूमि इस सृष्टि का प्राण तत्व है। रामलला की यह जन्मस्थली है। श्रीरामलला के जन्मस्थान को लेकर विवाद नाहक रहा। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में इसी स्थल को श्रीराम का जन्मस्थान माना है, जहां वर्ष १९०२ में ही श्रीराम जन्मस्थान नाम का शिलालेख लगाया गया था, जिसकी संख्या एक थी। यही स्थान रामलला की आराध्य स्थली है। गोस्वामी तुलसीदास ने उस क्षण को भए प्रगट कृपाल दीनदयाला…..के रूप में कालजयी रचना श्रीरामचरित मानस में लिखा है। इसी परिसर में रामलला के दर्शन स्थल से दक्षिण की ओर सुमित्रा भवन में लक्ष्मण और शत्रुघ्न की जन्मभूमि मानी जाती है। परिसर में ही रंगमल, कोपभवन, कोहबर भवन, श्रीराम कोषागार जैसे महत्वपूर्ण स्थल माने जाते हैं। रामलला के जन्मस्थान के पूरब सीताकूप आज भी स्थित है। अब भी मूल नक्षत्र में जन्मे शिशुओं के लिए होने वाले मूल शांति पूजन में सीताकूप के जल के लिए लोग दूर-दूर से यहां पहुंचते हैं। परिसर में ही दशरथ यज्ञभवन की चर्चा आती है। आर्ष ग्रंथों में ऋषियों गर्ग, गौतम, शांडिल्य, अंगिरा व विश्वामित्र आदि के स्थान भी यहां बताए गए हैं। श्रीराम जन्मभूमि गर्भगृह से उत्तर दिशा में सीता पाक (सीता रसोई) स्थान मौजूद है। श्रीराम के जन्मस्थान के पूरब दिशा में भरत जी का जन्मस्थान माना जाता है। 

रामकोट:-श्रीरामलला के जन्मस्थान के ईर्द-गिर्द कुछ दूर की परिधि को यहां के लोग रामकोट के रूप में मानते हैं। इसकी चर्चा ग्रंथों में भी आती है। रामकोट श्रीराम जन्मस्थान के ईर्द-गिर्द के क्षेत्र को कहा जाता है। इसी रामकोट की सुरक्षा में रामराज्य के दौरान श्रीहनुमान जी, केशरी, जाम्बवान, सुग्रीव, अंगद, नल-नील चारों दिशाओं में सुरक्षा का दायित्व निभाते थे। इन्हें उस समय पार्षद के रूप में माना जाता था। अयोध्या के लोगों का कहना है कि रामकोट से पूरब की ओर रामसभा का स्थान माना जाता है। वर्तमान में इस स्थान को राजसभा मंदिर के आसपास कहा जाता है। 

अंशावतार देवताओं के स्थल:-अयोध्या नगर के इन तीर्थो में ज्यादातर नाम श्रीराम के साथ रक्ष संस्कृति को विनष्ट करने में उनके सहयोगी रहे योद्वाओं के नाम पर भी है। वास्तव में ये योद्वा रक्ष संस्कृति को समाप्त करने के लिए देवताओं के अंशावतार है। चाहे वह हनुमान जी हो या सुग्रीव, अंगद, नल, नील, जामवंत सहित दूसरे योद्वा हो। ये सभी किसी न किसी देवता के अंश माने जाते हैं। हनुमान जी को भगवान भोले का ग्यारहवां रूद्र कहा जाता है तो जामवंत को ब्रह्मा का पुत्र। अयोध्या का मार्गदर्शन करने वाले कुलगुरू ऋषि वशिष्ठ सप्त ऋषियों में अग्रणी माने जाते हैं। लोमश ऋषि, ऋषि वामदेव जैसे दूसरे ऋषि व मुनि मानवता के कल्याण के लिए नए सृजन के वाहक कहे जाते हैं। अयोध्या में श्रीहरि विष्णु के साथ सभी देवों और शक्तियों की मौजूदगी एक साथ थी। मानव कल्याण के लिए इनकी समग्र ऊर्जा यहां घनीभूत रही, जिसका परिणाम रहा कि संसार में समस्त आदर्श मानवीय गुणों के साथ धर्म और अध्यात्म की पृष्ठभूमि अयोध्या में तैयार होने का क्रम बना। अयोध्या की नाभिकेंद्र में समस्त देव शक्तियों की मौजूदगी के कारण ही भूलोक पर अयोध्या मानवता के सृजन का केंद्र बन गई। इसके केंद्र बनने में उन ऋषि, महर्षियों, मुनियों और साधकों की ऊर्जा भी शामिल रही जिनका आगे भ्रमण किया जाएगा। श्रीरामलला के रामकोट से बाहर अनगिनत तीर्थ स्थल अयोध्या में माने गए हैं। इनमें कुछ का वर्णन किया जा रहा है। 

क्षीरोदक तीर्थ:-स्कंदपुराण, रूदयामल और अयोध्या दर्पण में क्षीरोदक तीर्थ कहे जाने वाले क्षीरसागर को महत्वपूर्ण तीर्थ माना गया है लेकिन यह स्थल विलुप्त होने के कगार पर है। ग्रंथ में कहा गया है कि इसी स्थान पर महाराज दशरथ से कराए गए पुत्रयेष्टि यज्ञ की पुर्णाहुति कराई गई थी। इसके बाद अग्रिदेवता यहीं पर वह दिव्य पायस लेकर प्रकट हुए थे जिसे महाराज दशरथ ने तीनों रानियों को प्रदान किया था और इसी के बाद दशरथ को चार पुत्रों की प्राप्ति हुई थी। ग्रंथ में एक अन्य तीर्थ श्री क्षीरेश्वर का वर्णन हुआ है, वह भी अयोध्या नगर में क्षीरेश्वरनाथ मंदिर के रूप में मौजूद है। श्री क्षीरेश्वरनाथ महादेव की स्थापना महाराज दशरथ द्वारा कराई गई थी। 

वामदेव आश्रम:-वाल्मीकीय रामायण और श्रीरामचरित मानस में श्री वामदेव ऋषि की चर्चा आती है। वामदेव जी वशिष्ठ ऋषि की तरह समर्थ ऋषि थे। वामदेव जी ने पवित्रीकरण मंत्र – 

अपवित्रा पवित्रों वा ……की रचना की थी। यह स्थान अयोध्या में श्रीवामदेव आश्रम के रूप में चर्चित है। श्री वामदेव ऋषि का एक आश्रम अयोध्या जिले के कुमारगंज के पास ग्रामसभा बवां में भी माना जाता है। आसपास के लोगों का कहना है कि ऋषि वामदेव ने यहां पर तपस्या की थी। हालांकि कुमारगंज स्थित इस स्थल को ८४ कोस के तीर्थ स्थलों में स्थान नहीं मिला है। 

ब्रह्मकुंड:-अयोध्या में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी से स्थापित एक मंदिर है। इस तीर्थ को ब्रह्मकुंड तीर्थ कहते हैं। यहां पर पहलें ब्रह्मा जी का मंदिर और सरयू का घाट था। इस मंदिर में ब्र्हमा जी की र्मूिर्त स्थापित थी लेकिन सरयू की धारा की कटान में मंदिर ढह गया। इसी स्थल पर सिक्ख समुदाय के गुरु श्री गुरूनानक देव, गुरू तेग बहादुर और गुरू गोविंद सिंह ने साधना की धूनी रमाई थी। यहां गुरूद्वारा बना हुआ है। 

नागेश्वरनाथ मंदिर:-सरयू तट पर स्थित नागेश्वरनाथ शिव मंदिर है। इसे श्रीराम के पुत्र महाराज कुश ने बनवाया था। यहां पर प्राचीन शिवलिंग स्थापित है। अयोध्या दर्पण के पृष्ठ ४४ में इसके स्थापना की अतंतर्कथा में भगवान शिव ने कथा बताई है। कहा कि अयोध्या देवी के महाराज कुश से कहने पर उन्होंने इसकी स्थापना की। अयोध्या आने वाले श्रद्धालुओं के लिए यह महत्वपूर्ण तीर्थस्थलों में से एक है। 

यज्ञवेदी:-अयोध्या के दक्षिण पूर्वी किनारे पर यज्ञवेदी नामक स्थान है। अयोध्या दर्पण के पृष्ठ ९० पर इसे श्रीराम से किए जाने वाले अनंत यज्ञों का वर्णन है। 

कनक भवन-कनक भवन माता सीता का अंत:पुर है। जहां दिव्य शयनागार है। यह दर्शनीय स्थल है। महराजा विक्रमादित्य ने अयोध्या के सांस्कृतिक स्थानों का पुनरूद्धार करते हुए कनक भवन पर विशेष ध्यान दिया था लेकिन समय के थपेड़ों से यह जर्जर हो गया था। बाद में टीकमगढ़ मध्य प्रदेश की महरानी वृषभानु कुंवरि ने इसका जीर्णोद्धार कर राजभवन के रूप में इसका नवनिर्माण कराया। द्वापर युग में भी इसकी एक प्रेरक कथा मिलती है। जरासंध का वध करने के बाद श्रीकृष्ण रूक्मिणी के साथ यहां पहुंचे थे। उन्होंने यहां कई दिनों तक निवास भी किया। 

छोटी देवकाली-यह नगर की अधिष्ठात्री देवी हैं। सप्तसागर के पूर्वी भाग में इनका मंदिर है। नवरात्रि में पूजन-अर्चन का विधान है। छोटी देवकाली समिति से जुड़े महंत धनुषधारी शुक्ल बताते हैं कि जनकपुर में विवाह के बाद भगवान श्रीराम के साथ अयोध्या आईं माता सीता अपने साथ कुलदेवी की पूजित प्रतिमा भी साथ लेकर आईं थी। प्रतिदिन कुलदेवी की पूजा-आराधना के लिए उन्होंने प्रतिमा की स्थापना इसी स्थल पर की थी। सैंकड़ों वर्षों से अयोध्यावासी व श्रद्धालु इस स्थल को छोटी देवकाली स्थल को माता सीता से पूजित प्रतिमा मानकर पूजन-अर्चन करते हैं। 

स्वर्गद्वार-अयोध्या का स्वर्गद्वार मुक्ति का द्वार भी कहलाता है। भगवान शंकर ने अयोध्या के बारे में जानकारी देते समय इसका वर्णन किया है। उन्होंने पार्वती जी को बताया था कि अयोध्या में सबसे पहला तीर्थ स्वर्गद्वार ही प्रकट हुआ था। पुराणों में इसे अयोध्या के सहस्रधारा से पूर्व दिशा में ६३६ धनुष लंबाई में इस तीर्थ को बताया गया है। ऋणमोचन घाट-ब्रहम कुंड से सात सौ धनुष की दूरी पर पूर्व और उत्तर दिशा में ऋणमोचन तीर्थ स्थित है। अयोध्या में मान्यता है कि इस घाट पर स्नान करने से व्यक्ति को ऋण से मुक्ति मिलती है। 

पापमोचन तीर्थ-ऋणमोचन तीर्थ से पूरब दिशा में सटा पापमोचन तीर्थ है। इसमें स्नान करने से कुसंगवश होने वाले पाप समूल रूप से नष्ट हो जाते हैं। इसीलिए इसका नाम पाप मोचन तीर्थ पड़ा। सहस्रधारा-सरयू तट पर पापमोचन तीर्थ से सौ धनुष की दूरी पर सहस्रधारा नामक तीर्थ है। यह वही स्थान है जहां रामावतार की लीला के बाद लक्ष्मण जी ने इहलीला का संवरण कर लिया था। इसे लक्ष्मण घाट भी कहते हैं। यही स्थल लक्ष्मण जी के महाप्रयाण का स्मृति स्थल है। मान्यता है कि नागपंचमी को यहां का दर्शन करने से साल भर सर्पजनित विष भय दूर रहता है। जानकी घाट-जानकी जी सरयू में स्नान करने के लिए इसी स्थान पर आती थी। उनकी स्मृति के रूप में भक्तों के बीच यह स्थान जानकी घाट के रूप में प्रसिद्ध है। रसिक संप्रदाय के संतों का बाहुल्य इस क्षेत्र मेंं ज्यादा है। 

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