मैं सिंध के एक वैष्णव परिवार से संबंधित हूं। हम लोग वल्लभ संप्रदाय के पुष्टि मार्ग के हैं। संप्रदाय के सबसे बड़े पुजारी को ‘महाराज’ कहा जाता था। महाराज अपने अनुयायियों से दक्षिणा एकत्र करने आया करते थे। वे जब भी शहर आते, मेरे पिता उन्हें घर पर आमंत्रित करते। लेकिन इसके लिए महाराज को काफी मोटी दक्षिणा देनी पड़ती थी। पिताजी स्वयं मोटी दक्षिणा तो अर्पित करते ही थे, साथ ही आस-पड़ोस के लोगों को भी बुला लेते थे। आदमी, औरत, बच्चे सभी महाराज के ‘दर्शन’ करने आते। दर्शन पाने के लिए हरेक सोने या चांदी से बनी चीजों का चढ़ावा देता था। बच्चे तक बिना चवन्नी चढ़ाए (वह भी चांदी की होती थी) महाराज का दर्शन नहीं कर सकते थे। उन दिनों के लिहाज से चवन्नी भी खासी बड़ी रकम हुआ करती थी। चढ़ावा चढ़ाने वालों को प्रसाद के रूप में कपड़े का एक टुकड़ा जरूर मिला करता था।
जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ, मैंने इन ‘महाराजों’ के चरित्र के बारे में तरह-तरह के किस्से सुने। मेरी बाल-सुलभ आस्था डगमगा गई। मेरे भाइयों का विश्वास भी इन सब महाराजों से उठ गया। पिताजी ने इस परिस्थिति को भांप लिया। इसलिए श्रद्धालु पिता ने अपनी जमीन का एक कीमती टुकड़ा बेच दिया और उस आमदनी को नाथद्वारा के हमारे मुख्य मंदिर को दान में दे दिया, ताकि उससे आने वाले कई वर्षों तक महाराजों को हमारे परिवार की ओर से दक्षिणा मिलती रहे।
मैं पिछले कोई साठ वर्षों से उत्तर प्रदेश और दिल्ली में रह रहा हूं। मेरी इच्छा जन्माष्टमी के अवसर पर वृंदावन और मथुरा देखने की बनी रही है क्योंकि उस रात को सद्यः जात बाल-कृष्ण का दर्शन मिलता है। लेकिन मुझे हमेशा लोगों ने यही कह कर निरुत्साहित किया है कि मथुरा के मंदिर में उस रात बहुत भीड़ होती है और मैं उस धक्का-मुक्की में बाल-कृष्ण का दर्शन हीं कर सकूंगा।
कुछ वर्ष पहले मेरे एक मित्र ने मुझे जन्माष्टमी के अवसर पर अपने साथ वृंदावन और मथुरा चलने का आग्रह किया। उन्होंने मुझे यह भरोसा भी दिलाया कि वे मुझे भक्तों की अपार भीड़ में दबने नहीं देंगे और कृष्ण-जन्म दर्शन आराम से हो जाएगा। मैंने उनका यह स्नेह और आग्रह भरी बात स्वीकार कर ली। हम लोग जन्माष्टमी से एक दिन पहले ही वृंदावन पहुंच गए। उस दिन वहां कृष्ण-सुदामा मिलन का नाटक भी खेला गया। कृष्ण द्वारकाधीश थे उस समय। सब जानते ही हैं कि सुदामा कृष्ण के बचपन के सखा थे! नाटक बहुत अच्छा था। फिर एक नाच हुआ जिसे आयोजक अंग्रेजी शब्द का इस्तेमाल करते हुए पी-काक डांस कह रहे थे! यह भी कोई नाच था भला? एक लड़के ने मोर पंख पहन लिए थे और वह स्टेज पर यहां से वहां कूद-फांद रहा था- दर्शक अलबत्ता बहुत मजा ले रहे थे। और शायद नाच में मजा आए तो उसका मतलब पूरा हो जाता हो!
जन्माष्टमी के दिन हम वृंदावन में मथुरा आए। हम लोग दिन भर उन प्रसिद्ध स्थलों में घूमते रहे, जिनका संबंध कृष्ण के बचपन और युवावस्था से है, जहां उनकी बाल-लीलाएं हुईं और जहां वे गोपी-ग्वालों के संग खेलते रहे थे।
रात को हम मुख्य मंदिर में पहुंचे। हम जरा पहले ही चले आए थे। फिर ‘विशिष्ट अतिथि’ होने के नाते हमें मंदिर के गर्भगृह (भीतरी हिस्से) में प्रवेश भी मिल गया। जैसे-जैसे दर्शन के लिए कपाट खुलने का समय पास आता गया, भीड़ बढ़ती ही चली गई। क्या जवान, क्या बूढ़े, क्या आदमी, क्या औरतें-ठसाठस भर गए। हम लोग नवजात कृष्ण की बस एक झलक ही देख पाए होंगे कि भीड़ के धक्के में मेरे साथी भी गायब हो गए। मैं तो ऐसा फंस गया कि उसमें से बाहर निकल पाना असंभव-सा लगने लगा। सौभाग्य से राजस्थान के मुख्यमंत्री श्री शेखावत भी वहां दर्शन के लिए आए थे। उन्होंने मेरी दयनीय हालत देखी और अपनी मजबूत राजस्थानी बांहों से मुझे घेरे में लेकर भीड़ से सही सलामत बाहर ले आए।
अगले दिन मैं मथुरा के खुले मैदान में जो मेला लगा था, उसे देखने गया। तरह-तरह की दुकानें। गायकों और मुख्य अतिथियों आदि के ख्याल से एक मंच भी बनाया गया। हम लोग इस मंच पर बिठाए गए। पहले कुछ भजन गाए गए फिर कोई दर्जन-भर लड़के-लड़कियां मंच पर चढ़ आए। ये कृष्ण के गोपी-गोपियां थीं! पर इनकी पोशाकें कोई गांव के ग्वालों जैसी नहीं थीं। ये सब भड़कीली रेशमी पोशाकें पहने थे।
यह चलन तो बन ही गया है कि नेता किस्म के आदमी से ऐसे आयोजन में ‘दो’ शब्द कहने का आग्रह किया जाता है। न जाने क्यों, उस आयोजन में लोगों ने मेरे साथी संसद सदस्य के बदले मुझे मुख्य अतिथि मान लिया और मुझसे ‘दो शब्द’ कहने को कहा। मुझे ठीक से याद नहीं आता कि उस मौके पर मैंने क्या कहा था। पर बाद में एक आयोजक का पत्र आया था। उससे मुझे पता चला कि मैंने उस दिन जन्माष्टमी आयेाजन के प्रबंध की आलोचना की थी। मैंने उन्हें जवाब देते हुए लिखा कि मुझे आयोजन और प्रबंध ठीक ही लगा था। हां, मैं यह जरूर नहीं समझ पाया था कि मेले में लगी दुकानों को ‘मीनाबाजार’ क्यों कहा गया था! मैंने उस दिन यह भी कहा था कि ऐसे आयोजन यथासंभव सहज और स्वभाविक ही होने चाहिए। उसमें बनावट से बचना चाहिए।
उससे पहले मुझे बताया गया था कि कृष्ण का जन्म स्थान खोज निकाला गया है। मैं इसे कोई पुरातत्व की खोज मानकर वहां जाने के लिए बहुत ही उत्सुक हो उठा। पर लोग मुझे एक बड़े मंदिर में ले आए। तब मैंने सोचा कि हो सकता है इस मंदिर के गर्भगृह में उनका जन्म हुआ होगा और बाद में इसी जगह पर इतना विशाल मंदिर बना दिया गया हो। लेकिन भीतर जाने पर मुझे वहां राधा-कृष्ण की सामान्य मूर्तियों के अलावा और कोई खास बात नहीं दिखी। मंदिर के प्रवेश द्वार पर एक बहुत मोटे पुजारी बैठे थे। वे सभी को चरणामृत बांट रहे थे, बेशक बिना दक्षिणा के नहीं! उनने मुझे भी चरणामृत दे दिया। पर मेरे पास उन्हें देने के लिए पैसा कहां था। घर से बाहर निकलते हुए भी मुझे अपने साथ पैसा रखने की आदत नहीं है। वह बेचारा मोटा पंडित निश्चित ही बहुत उदास हुआ होगा।
आयोजन के दिन उस भाषण में मैंने यह जरूर कहा था कि यूरोप में ऐसे मंदिरों को या ऐसे धार्मिक स्थलों को यथासंभव उनके वास्तविक रूप में ही रखा जाता है। मैंने उस खनौटे का उदाहरण भी दिया था, जिसमें जनम के बाद सराय की भीड़भाड़ से बचने के लिए ईसामसीह को रखा गया था। आज जो नांद-नुमा खनौटा वहां रखा है, वह निश्चित ही ईसा के जन्म के काफी बाद बनाया गया होगा, पर उसका रूप मूल खनौटे की तरह ही रखा गया है। यही सब मैंने उस दिन के भाषण में कहा था। भला यह उस दिन के आयोजन की आलोचना कैसे हो गई?
खैर छोड़िए इन बातों को। मैं यहां कृष्ण भक्तों के सामने एक प्रस्ताव रखना चाहता हं। पूरे देश में, खासतौर पर गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान और बंगाल में बहुत ही संपंन वैष्णव हैं। मैं चाहता हूं कि ये लोग यमुना के किनारे वृंदावन और मथुरा के बीच कहीं सौ-डेढ़-सौ एकड़ जमीन खरीद लें। फिर उस पर एक अच्छा घना जंगल लगाएं। बाद में इस जंगल में कुछ गायें और हिरण छोड़ दिए जाएं और इन्हें उन्मुक्त घूमते रहने दिया जाए। एक किशोर जो बांसुरी बजा सकता हो, इस जंगल में ग्वाले की तरह रहा करे। घने जंगल के बीचों-बीच कुछ जगह खाली छोड़ दी जाए- यहां कभी-कभी युवक-युवतियां आकर गा-नाच सकें। इस खाली जगह में ही एक छोटा-सा मंदिर बनाया जाए। मंदिर में बस एक जेल की कोठरी हो। उसमें सींकचे लगे हों। जंमाष्टमी के दिन यहां पर कृष्ण जन्म की झांकी दिखाई जाए। इस तरह यहां सैकड़ों श्रद्धालु भक्त जन्माष्टमी के दिन आसानी से कृष्ण जन्म देख सकेंगे और उन्हें आज की तरह मथुरा शहर के संकरे मंदिर में इस दर्शन के लिए धक्के नहीं खाने पड़ेंगे।
मेरे इस सुझाव को कृष्ण के धनवान भक्त स्वीकार कर लें तो बहुत अच्छा होगा। कृष्ण का ऐसा स्मारक आज के महंगे कृष्ण मंदिरों से कहीं बेहतर होगा। यों भी मथुरा में मंदिरों की कोई कमी नहीं है।