भारत में पंचायतों की परंपरा अत्यंत प्राचीन रही है.भारतीय इतिहास के हर दौर में पंचायतों का अस्तित्व रहा है. प्राण जी के शब्दों में कहें तो पंचायतें संवाद, सहमति, सहयोग, सहभाग और सहकार जैसे पांच तत्वों पर आधारित जीवन शैली का प्रतिनिधित्व करती हैं. आजाद भारत की संविधान सभा में गाँधीवाद की बातें तों बहुत हुईं परन्तु उन्हें पूरे मन से स्वीकार नहीं किया गया था. जिस गाँधीवाद में पंचायतों को ‘सच्चा लोकतंत्र’ एवं ‘स्वतंत्रता का प्रारंभिक बिंदु’ माना गया, उसी को संसाधनों और समयाभाव के बहाने नीति निदेशक तत्वों के अधीन राज्य सरकारों के विवेक पर छोड़ दिया गया.
जयप्रकाश नारायण ने एक बार कहा था कि यदि हमारे राजनीतिक जीवन को पुनर्वासित होना है तो गाँव को एक बहुत ही वास्तविक अर्थ में पुनः एक बार स्वशासी इकाई बनना होगा. 73वें संविधान संशोधन अधिनियम (1992) के जरिये इस ऐतिहासिक भूल को सुधारते हुए पंचायतों को संवैधानिक स्थिति तथा सुरक्षा प्रदान किया गया. लेकिन इसके बावजूद पंचायतें संतोषजनक परिणाम नहीं दे पाई. पंचायतों की इस दुर्दशा की जिम्मेदारी कई सम्मिलित कारकों पर आधारित हैं. लेकिन इनमें भी कुछ अधिक मुखर हैं.
पंचायतों की पहली बड़ी समस्या उनकी खुली बैठक का ना होना है. सही तरीका तो ये है कि हर बार गाँव की पूरी बैठक होनी चाहिए तथा जो भी निर्णय हो वो खुली बैठक में लिए जाए. प्रधान, सेक्रेटरी का यह कहना की कोरम पूरा नहीं हो पा रहा, सिरे से एक गलत बात है क्योंकि ग्रामीण तो गाँवों में ही रहते हैं तब उनके सभा में उपस्थित ना होने की बात समझ से परे है. वास्तविकता यह है कि लोगों को सूचना ही नहीं दी जाती ताकि पदाधिकारी अपने अनुकूल निर्णय लें और उन निर्णयों पर आपत्ति करने वाला कोई ना हो. ये सब प्रशासन के शह के बिना संभव नहीं है. इसके लिए उचित उपाय हैं कि बैठक से पूर्व मोबाइल या अन्य संचार माध्यमों से इस सम्बन्ध में सूचना का प्रसारण अनिवार्य कर देना चाहिए. साथ ही आवश्यक हो तो इन सभाओं की वीडियोग्राफ़ी सरकार करवा सकती है.
दूसरा जरुरी तथ्य यह हैं कि आज भी पंचायतों का सुधार राज्य सरकारों कि प्राथमिकता सूची में नहीं हैं. राज्यों को लगता हैं कि पंचायतों का सुचारु विकास उनके अधिकार क्षेत्र में कटौती करेंगे. पंचायतों को नियंत्रित करने का सबसे बड़ा माध्यम राज्य सरकारों के कर्मचारी ही बनते हैं. ग्राम स्तर पर राज्य सरकारों ने प्राथमिक शिक्षक, पंचायत सचिव, सफाई कर्मी, ट्यूबवेल ऑपरेटर, आंगनबाडी, आशा बहू जैसे 27- 28 कर्मचारी नियुक्त कर रखें हैं. लेकिन ये खुद को ग्रामीण जनता के प्रति जवाबदेह नहीं मानते. ग्रामीण जनता की सहूलियत के बजाय ये उन्हें परेशान करने के लिए अधिक कुख्यात हैं. अब पंचायत सचिव को ही लें तो अधिकांश नवनिर्वाचित प्रधानों की यही शिकायत रहती हैं कि वे कोई भी अच्छा काम करना चाहें तों पंचायत सेक्रेटरी उसमें अड़ंगेबाज़ी करते रहते हैं. काम भी वें तभी करने देते हैं जब उन्हें धन का चढ़ावा मिल जाए. सही कहें तो ये खुद तो भ्रष्टाचार करते ही हैं साथ ही दूसरों को भी सिखाते हैं. ऊपर से एक पंचायत सचिव को दो से तीन तक गाँवों का प्रभार मिला हुआ होता हैं. इससे इनका भ्रष्ट आचरण कई गाँवों को संदूषित करता है साथ ही अलग गाँवो में व्यस्तता का बहाना बनाकर ये मौके पर उपस्थित नहीं होते.
भारत में संवैधानिक रूप से तीन सरकारों को मान्यता प्राप्त है, केंद्र सरकार, राज्य सरकार और पंचायत सरकार. जब केंद्र और राज्य सरकारों के अपने कर्मचारियों का संवर्ग है तो ग्रामीण सेवाओं के एक अलग संवर्ग का निर्माण होना चाहिए. ऐसा सेवा वर्ग जो ग्राम स्तर पर ही कार्य करने को विशेषीकृत हो किंतु साथ ही इनकी नियुक्ति स्थानीय आबादी से ही होनी चाहिए. आज आंध्रप्रदेश, हरियाणा, झारखण्ड जैसे राज्यों ने निजी संस्थानों की नौकरियों में अपनी स्थानीय जनता को 70 से 75 फीसदी तक आरक्षण देने की घोषणा कर रखी है. फिर ग्रामीण सेवा संवर्ग के लिए स्थानीय लोगों के चुनाव में क्या समस्या होगी? ग्रामीण कैडर का चुनाव भले ही राज्य, जिला या क्षेत्र स्तर पर हो लेकिन ये कर्मचारी गाँव में ही रहेंगे जिससे इनकी सरलता से उपलब्धता सुनिश्चित होगी. ये सेवा संवर्ग अपने गाँवों के लिए विश्वसनीय साबित होगा. इनकी मॉनिटरिंग का कार्य सरकारी एजेंसी, कोई थर्ड पार्टी या सिविल सोसाइटी कर सकती है.
इसके अतिरिक्त ग्राम सभाओं का सशक्तिकरण, वंचित समूहों की भागीदारी, जवाबदेही, पारदर्शिता एवं सुचिता के मसले में एक सशक्त हथियार है.किंतु आज तक कई राज्यों ने अपने यहाँ ग्राम सभा के अधिकारों को स्पष्ट ही नहीं किया है, और ना ही इन सभाओं के प्रकार्यों की निर्दिष्ट कार्यविधियों के बारे में स्पष्ट किया है.कई राज्यों में पंचायतों की स्थिति अधीनस्थ की है, अतः ग्राम प्रधानों को फंड और अन्य तकनीकी अनुमोदन हेतु प्रखंड कार्यालयों में चक्कर काटते नियमित रूप से देखा जा सकता है. सिर्फ यही नहीं तृणमूल स्तर की संस्थाओं में फैले भ्रष्टाचार पर सरकारों का उदासीन रवैया चिंताजनक रहा है. स्थिति ये है कि आज तक इन पदाधिकारियों को दंडित करने के नियमों में भी स्पष्टता नहीं है.
पंचायतों की तीसरी बड़ी समस्या नौकरशाही है जो ग्रामीण स्तर की समस्याओं को हेय दृष्टि से देखता है एवं उसके प्रति अरुचिपूर्ण रवैया अपनाता है.योजना आयोग द्वारा 1985 में गठित जी. वी. के. राव समिति का निष्कर्ष था कि विकास प्रक्रिया दफ़्तरशाही युक्त होकर पंचायत राज से विच्छेदित हो गई हैं एवं नौकरशाही की इस प्रक्रिया के कारण पंचायती संस्थाएं कमजोर हो गयी हैं. एक तो अशिक्षा और जागरूकता की कमी के कारण ग्रामीण समाज पहले से अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं हैं ऊपर से नौकरशाही का असहयोग एवं अहंकारपूर्ण रवैया उनके और जनता के बीच दूरियां और अविश्वास बढ़ाता हैं जो सहयोगी लोकतंत्र के लिए घातक है.
चौथा जरुरी मुद्दा है कि, अब समय आ गया है कि पंचायतों को वास्तविक न्यायिक शक्तियां प्रदान कर दी जानी चाहिए. तमाम न्यायविद भी ये मानते रहे हैं कि आम तौर पर दस- बीस साल मुकदमा लड़ने और दस -बीस लाख रुपये खर्च करने के बाद भी न्यायालय जो अंतिम फैसले करते हैं उससे दुश्मनी ख़त्म नहीं होती बल्कि ज्यों कि त्यों बरकरार रहती है एवं कई पीढ़ियों तक चलती है. लेकिन पंचायतों से जो फैसले होते हैं और लोग एक -दूसरे के गले मिलकर इसे स्वीकार करतें हैं उससे शत्रुता हमेशा के लिए समाप्त हो जाती है. इससे लोगों के धन की बचत होती है और न्यायालय एवं पुलिस- प्रशासन के समय व ऊर्जा की बचत होती है, साथ ही गाँव की समरसता भी बनी रहती है.
किसी भी विचार और उसके व्यावहारिक पहलू के बीच विसंगति होना एक स्वाभाविक सी प्रक्रिया है, किंतु लक्ष्य की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि इस अंतराल को न्यूनतम किया जाए. यह वक्तव्य पंचायतों की वर्तमान स्थिति का सटीक वर्णन करता है. आत्मा की प्रबलता के बिना शरीर का विकास संभव नहीं है. गांधी जी का मानना था कि भारत की आत्मा गाँवो में बसती हैं. अगर हम एक नये भारत के निर्माण का स्वप्न देख रहें हैं तो इसकी शुरुआत गाँवो के विकास से होनी चाहिए. इस विकास का माध्यम तीसरी सरकार यानि पंचायतें ही बन सकती हैं. अतः पंचायतों के विकास की अनदेखी नये भारत के निर्माण के लिए घातक साबित होगा.
[जनसत्ता से साभार]