रघु कथा

रामबहादुर राय

रघु ठाकुर राजनीतिक नेताओं में सबसे अलग हैं। वे कई मायने में श्रेष्ठ भी हैं। लगातार भ्रमण और अभियान के बावजूद लिखते-पढ़ते रहते हैं। जितना वे यात्रा करते हैं उससे ज्यादा बौद्धिक चिंतन में रमे रहते हैं। लेकिन दूसरे नेताओं से भिन्न वे स्वछंद लेखन के लिए भी विख्यात हैं। यहां स्वछंद से आशय स्पष्ट करना जरूरी है। आजकल राजनीतिक नेता जो लिखते हैं और अखबारों में छपते हैं, उनमें उनका पक्ष होता है लेकिन वे कुछ बातों से बचते हैं। रघु ठाकुर की कलम पर दूसरे नेताओं की तरह कोई बोझ नहीं है। इसलिए उनकी लेखनी से वही प्रकट होता है जो वे सोचते हैं और बोलते हैं। उनके लेखन से अनेक पुस्तकें बनी हैं। यह काम उनके चाहने वालों और मानने वालों ने किया है।

उनकी नई पुस्तक है, स्वप्न, विकल्प और मार्ग। यह वृहदाकार है। इसमें इन विशयों के खंड हैं, समाजवाद, राष्ट्रीय, राजनीति, अंतरराष्ट्रीय, गांधी, लोहिया, अंबेडकर, जेपी, आपातकाल, सांप्रदायिकता, व्यवस्था , न्यायपालिका, आधुनिक तकनीकी के खतरे, चुनाव सुधार, सामाजिक, स्वास्थ्य शिक्षा , भाषा, पर्यावरण, किसान, वैश्वीकरण और विविध। जो पढ़-लिखकर राजनीतिक अभियान चलाता है, उसे देश  रघु ठाकुर के नाम से जानता है। कुछ साल पहले रघु जी ने एक पुस्तक लिखी, गांधी-अंबेडकर कितने दूर कितने पास। यह अरूधंति राय की सरारतपूर्ण पुस्तक का प्रामाणिक उत्तर थी। जिसका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ। उससे गांधी-अंबेडकर के संबंधों की सच्चाई सामने आई। वे विचारों में नजदीक भी थे और दूर भी थे। अरूधंति राय ने उन्हें एक-दूसरे का दुश्मन बना दिया था। रघु जी की नई पुस्तक का सही शीर्षक होना चाहिए, ‘रघु कथा।’

क्या यह पुस्तक उनकी आत्मकथा है? ऐसा बिल्कुल नहीं है। तो फिर ‘रघु कथा’ क्यों? इसलिए कि इस पुस्तक में एक अध्याय है-‘आपातकाल की यादें।’ इसे पढ़ते हुए लोग यह जानकर चकित हुए बिना नहीं रहेंगे कि रघु ठाकुर उन दिनों एक जेल से दूसरी जेल और फिर तीसरी जेल में भेजे जाते रहे। इसलिए क्योंकि वे जेल में आराम करने नहीं गए थे, लोकतंत्र के लिए लड़ने गए थे। इसकी उन्हें यातना झेलनी पड़ी। वह कहानी पहली बार उनकी किसी पुस्तक में आई है। इसी तरह दूसरा अध्याय है-‘संपूर्ण क्रांति के पचास वर्ष के बाद की राजनीति।’ इसमें अपने गहन और लंबे विश्लेषण का अंत वे इस तरह करते हैं।

असलियत तो यह है कि यह वर्ष संपूर्ण क्रांति की 47वीं पुण्यतिथि है।’ यह लेख पहले का है। इसमें वे बता रहे हैं कि जो संपूर्ण क्रांति शुरू हुई वह जल्दी ही समाप्त भी हो गई। इसलिए अगर मनाना हो तो हम उसकी पुण्यतिथि मनाएं। इसी पुस्तक के पहले लेख में अपना एक उदाहरण दिया है। वह ऐसा आदर्श है जिसका निर्वाह रघु ठाकुर आज भी कर रहे हैं। जब वे स्वयं उम्मीदवार हो सकते थे तब उनहोंने न होने की घोषणा की। इसका वर्णन कर वे ‘परिवारवाद लोकतंत्र के लिए घातक’ का अर्थ समझाते हैं। राजनीति, विचार और जीवन की संगति कोई कैसे बैठाए अगर उसे यह जानना हो तो इस पुस्तक में तथ्य, दृष्टि और आगेकी राह उपलब्ध है। जो रघु ठाकुर के जीवन के अध्ययन-अनुभव से निकली है। इसीलिए मेरी समझ से यह ‘रघु कथा’ है।

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