अपनी नादानी भरी राजनीति के कारण राहुल गांधी लगातार भूलें कर रहे हैं। एक भूल से उनकी लोकसभा सदस्यता गई। तो दूसरी भूल वे कर बैठे। यह तो राहुल गांधी ही बताएंगे कि क्या हर भूल के बाद उनके मन में पछतावा होता है या नहीं। लेकिन उन्हें पछतावा होना चाहिए। उनका कोई भी शुभचिंतक यही चाहेगा कि वे अपनी अनीति छोड़ दें । अर्थात पाखंड त्यागें। राजनीति की सही समझ विकसित करने का सचमुच प्रयास करें। इससे वे अपना और कांग्रेस का जितना भला करेंगे उतना ही संसदीय लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करने में उनका योगदान भी हो सकेगा। यह भविष्य की बात है। आज वे जहां खड़े हैं वहां से वे यात्रा आगे की प्रारंभ करेंगे या अधोगति को प्राप्त होंगे, यह ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि अपनी सदस्यता खोने के बाद उन्होंने जो दूसरी बड़ी भूल की, वह क्या है?
राहुल गांधी की प्रेस कांफ्रेंस की खबरें अखबारों में छपी हैं। ज्यादातर ने उनके इस कथन का अपनी खबर में उल्लेख किया है। वह यह है कि ‘मेरा नाम सावरकर नहीं, गांधी है और गांधी कभी माफी नहीं मांगते।’ यह कहते हुए उनके चेहरे का जो भाव था वह उस गांधी का तो नहीं दिखता जिससे वे अपना नाता स्थापित करना चाहते हैं। क्या वे अपने कथन का अर्थ समझते हैं? वे वीर सावरकर को कितना जानते हैं? उनके इस कथन में तीन बातें हैं। पहली यह कि मेरा नाम सावरकर नहीं है। यहां तक तो ठीक है। यह तभी ठीक है जब वे इसे इस भाव से कह रहे हों कि मैं स्वातंत्र्यवीर सावरकर के चरणों की धूल भी नहीं हो सकता। वे तो महान क्रांतिकारी थे। इस अर्थ में अगर वे बोल रहे होते तो उनकी भावभंगिमा विनम्र होती। उसे गुनाह कबूल करना माना जाता। नहीं तो, यह कथन उनके राजनीतिक बचपना और नासमझी का ताजा उदाहरण है। उनके इस कथन पर दो प्रतिक्रियाएं आईं हैं। पहली प्रतिक्रिया बहुत स्वाभाविक है, वह उद्धव ठाकरे की है। उससे वह गठबंधन टूट सकता है, जिसमें कांग्रेस भी है, इसे राजनीति के भीष्मपितामह शरद पवार ने पहचाना। वे संभालने में जुट गए हैं। यह है, राहुल गांधी की राजनीति। जिस डाल पर बैठे हैं, उसी को काटते रहते हैं।
राजधानी के दो अखबारों में उद्धव ठाकरे की प्रतिक्रिया छपी है। जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस ने इसे छापा है। जिस दिन राहुल गांधी की प्रेस कांफ्रेंस थी, उसी दिन शिवसेना (उद्धव गुट) के नेता उद्धव ठाकरे की मालेगांव में एक रैली थी। उस रैली में उन्होंने कहा कि विनायक दामोदर सावरकर हमारे लिए ईश्वर तुल्य हैं। हमारे आदर्श हैं। उनका अपमान बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। यहां यह याद करने की जरूरत है कि राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में उद्धव ठाकरे शामिल हुए थे। अगर राहुल गांधी को राजनीति की थोड़ी भी समझ होती तो अपने एक सहयोगी दल को वे मर्मांतक चोट नहीं पहुंचाते। दूसरी प्रतिक्रिया भी अखबारों में तस्बीर सहित आई है। संसद के परिसर
में पूर्व केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावडे़कर सहित भाजपा के सांसदों ने वीर सावरकर की तस्वीर हाथ में लेकर अपना विरोध जताया है।
राहुल गांधी के कथन की दो अन्य बातों का भी अर्थ समझ लेना चाहिए। वे दो बातें गांधीजी से संबंधित है। जिन्होंने भी गांधीजी को जानने का प्रयास किया होगा, वे कम से कम यह तो जानते ही होंगे कि वे सम्यक जीवन जीते हुए महात्मा बने थे। अगर उनसे कोई जाने-अनजाने भूल हुई तो उसे उन्हें स्वीकार करने में एक क्षण की भी देर नहीं होती थी। इसके बहुत सारे उदाहरण हैं। इसीलिए जब किसी ने उनसे पूछा कि आपका संदेश क्या है। गांधीजी का साफ-सुथरा वाक्य है जिसमें उनका पूरा जीवन दर्शन समाया हुआ है। ‘मेरा जीवन ही मेरा संदेश है।’ राहुल गांधी अगर चाहते है कि उन्हें लोग महात्मा गांधी का अनुसरणकर्ता मानें तो उन्हें अपनी समझ थोड़ी बढ़ानी पड़ेगी। उस समझ का आधार यथार्थ निश्चय होगा। राहुल गांधी के बोली-बानी और आचरण से जो बात लोग समझ पाए हैं वह उनके विपरीत जाती है । ऐसा व्यक्ति कैसे महात्मा गांधी के रास्ते पर चलने का दावा कर सकता है जो न यथार्थ से परिचित है और न ही उसमें निश्चय भाव है। अनिष्चय के अंधेरे में भटकने वाला राजनेता अपने सामने उपस्थित अवसरों को पहचान नहीं पाता। अवसर निकल जाता है और उसे हाथ मलते लोग देखते हैं। ऐसी अवस्था में झुझलाहट, नफरत और निराशा जैसी एक साधारण व्यक्ति में होती है वैसी ही राहुल गांधी में अर्से से दिखाई पड़ रही है । भारत जोड़ो से जो उन्होंने अर्जित किया था उसे वे अपने दंभ से विसर्जित करते जा रहे हैं। जो उन्हें चाहते हैं वे उनकी तरफ दया भाव से देख रहे हैं और उन्हें अफसोस हो रहा है कि राहुल गांधी इतने दयनीय क्यों होते जा रहे हैं!
यह पहेली है। इसका संबंध इतिहास से है। इसको इस तरह भी कह सकते हैं कि कांग्रेस का ही अगर इतिहास राहुल गांधी जानते होते तो यह नहीं कहते कि मेरा नाम सावरकर नहीं है। एक तीर उन्होंने छोड़ा है। वह पलटकर उन्हें ही वेध गया है। वीर सावरकर पर जिसने भी आरोप मढें, मनगढ़ंत लांछन लगाए या उन्हें इतिहास के पन्नों में दोषी ठहराने के प्रयास किए वे आखिरकार मजाक के विषय बन गए हैं। ऐसा बहुत बार हुआ है। एक बार मणिशंकर अय्यर ने ऐसी ही धृष्टता की थी। उस समय उन्हें जिन लोगों ने जवाब दिए थे वे भारतीय राजनीति के ऊँचे नाम हैं। मणिशंकर अय्यर को यह असहनीय अनुभव हुआ कि वीर सावरकर के नाम पर अंडमान हवाई अड्डे का नामकरण क्यों किया गया? मणिशंकर अय्यर पढ़े-लिखे राजनीतिक नेताओं में हैं। भले ही वे उटपटांग बोलते हों, लेकिन उन्हें कोई बेपढ़ा नहीं कह सकता। क्या यही बात राहुल गांधी पर भी लागू होती है? इसका निर्णय कौन करें? बेहतर है कि लोग ही करें।
यह जरूर कहा जा सकता है कि राहुल गांधी ‘मणिशंकर अय्यर दुष्प्रभाव’ में हैं। राहुल गांधी को जानना चाहिए कि इंदिरा गांधी ने वीर सावरकर के निधन पर कहा था कि ‘वे एक महान विभूति थे। उनका नाम साहस और देशभक्ति का पर्याय है। वे एक आदर्श क्रांतिकारी के सांचे में ढले थे और अनगिनत लोगों ने उनके जीवन से प्रेरणा ली।’ इसी तरह महान नेता चक्रवर्ती राज गोपालाचारी ने तब कहा था कि ‘सावरकर मेरे जीवन के प्रथम क्रांतिकारी आदर्श थे जिन्होंने हमें भरपूर प्रेरित और प्रोत्साहित किया।’ एक बार लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि ‘मैं नौजवानों से हमेशा कहता हूं धार्मिक यात्रियों के लिए भले ही केदारनाथ, बद्रीनाथ, काशी, रामेश्वरम् तीर्थस्थान होंगे, पर देशभक्तों के लिए यदि कोई तीर्थस्थान है तो वह है अंडमान। अंडमान में भी पोर्ट ब्लेयर और उसमें भी सेल्युलर जेल और सेल्युलर जेल में भी वह कक्ष जहां सावरकर जी ने सजा काटी थी। छत्रपति शिवाजी के बाद यदि मुझे किसी के जीवन ने सबसे अधिक प्रभावित किया तो वे वीर सावरकर हैं।’
राहुल गांधी को यह भी जानना चाहिए कि 1937 में कांग्रेस के बड़े नेता वीर सावरकर से एक अनुरोध लेकर मिले थे। वे चाहते थे कि वीर सावरकर कांग्रेस में शामिल हो जाएं। इस समय इसकी कल्पना की जा सकती है कि इसका कारण क्या रहा होगा। कांग्रेस वीर सावरकर की लोकप्रियता को भुनाना चाहती थी। चुनाव होने वाले थे। वे बंदी जीवन से बाहर हो रहे थे। वीर सावरकर ने लगातार 27 साल जेल में गुजारे। जिसमें 14 साल कालापानी में काटा और 13 साल रत्नागिरि में उन्हें अंग्रेजों ने नजरबंद कर रखा था। स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में क्या ऐसा कोई दूसरा उदाहरण है ? अंडमान की जेल में उनका जो कठोर कारावास था उस पर उन्हीं की कलम से एक पुस्तक है। बहुत पहले वह छपी थी। वीर सावरकर के अपार साहित्य में वह पुस्तक सबसे ज्यादा पढ़ी जाती है। वह है, ‘मेरा आजीवन कारावास।’ काश! करीब पांच सौ पन्नों की यह पुस्तक राहुल गांधी ने पढ़ी होती। इस पुस्तक में एक प्रसंग है। वह वीर सावरकर के उदार मन का बढ़िया उदाहरण है। अंडमान जेल का जेलर अंग्रज था। वह वीर सावरकर के पास एक दिन आया। उसने कहा, ‘सावरकर, आप हमेशा कुछ समाचार प्राप्त करना चाहते रहते हैं न! तो लीजिए, समाचार यह है कि गोपाल कृष्ण गोखले स्वर्गवासी हो गए।’ उसे उम्मीद थी कि इससे सावरकर दुःखी तो नहीं ही होंगे, बल्कि प्रसन्न होंगे। लेकिन इसके विपरीत ‘मेरे मुख से दुःखोद्गार निकलते देख’ उसे इतना आश्चर्य हुआ कि वह बोल पड़ा, ‘वे आपके विरोधी थे न?’ सावरकर ने जवाब दिया, ‘ना-ना, मैंने उन्हीं के महाविद्यालय में शिक्षा पाई है। हां, मतभेद होंगे, विरोधी नहीं। हमारे हिंदुस्थान की इस पीढ़ी के वे एक निस्सीम देशप्रेमी तथा देशसेवक थे।’
वीर सावरकर की महानता अतुलनीय है। इसका इतिहास साक्षी है। कोई भी उंचा विशेषण उनके व्यक्तित्व की परिभाषा में छोटा पड़ जाता है। भारत में अनेक स्वतंत्रता सेनानी हुए हैं। लेकिन जीवित शहीद तो एक ही हुआ है। और कोई नहीं वे वीर सावरकर थे। उस जीवित शहीद पर अंग्रेजों से माफी मांगने का कीचड़ उछालना हर तरह से अपराध कहा जाएगा। उनके सारे पत्र प्रकाशित हैं। उनमें माफीनामा तो कहीं मिलता नहीं, हां, यह स्वर अवश्य उन पत्रों में है कि अंग्रेजों अन्याय बंद करो। वीर सावरकर ने पंडित जवाहरलाल नेहरू को भी माफ कर दिया था। अगर वे होते तो
राहुल गांधी की नादानी को हंसकर टाल जाते। इस नादानी को माफ कर देते।
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