रायपुर कांग्रेस का अधिवेशन 85वां था। लेकिन कांग्रेस के 137 साल हो गए हैं। इतनी पुरानी पार्टी का जब अधिवेशन हो तो प्रतीक के तौर पर उसके इतिहास की झलक देने के लिए जिन चेहरों को पोस्टर में शामिल किया गया, वे अपने आप में महत्वपूर्ण हैं। कांग्रेस के इतिहास से जो भी थोड़ा बहुत परिचित है वह इस पोस्टर पर चकित होगा। उसे मौलाना अबुल कलाम आजाद की पहले कतार से अनुपस्थिति न केवल खलेगी, बल्कि वह जानना चाहेगा कि ऐसा क्यों हुआ?
रायपुर कांग्रेस से दो बातें साफ हो गई हैं। पहली यह कि राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा लोकसभा के आगामी चुनाव के मद्देनजर थी। इसका भारत जोड़ो की संस्कृति से दूर-दूर का भी नाता नहीं है, बल्कि चुनावी राजनीति का महज यह एक दिखावटी नारा है। भारत जोड़ो एक सांस्कृतिक शब्द है। जिसका संबंध जीवन व्यवहार से है। इसीलिए इस शब्द का अपना बड़ा अर्थ होने के कारण महत्व है। यही कारण है कि इस शब्द से जो ध्वनि प्रकट होती है वह उम्मीदें जगाती हैं। लोगों ने भी राहुल गांधी की यात्रा के इस नारे से उम्मीदें की थी। उन उम्मीदों पर रायपुर कांग्रेस ने पानी फेर दिया है, क्योंकि उसके अनुरूप निर्णय के संकेत भी वहां से नहीं निकले।
दूसरी बात को अपने शब्द संकेतों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वहां समझाया जहां से वर्तमान कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे आते हैं। क्या ही गजब का संयोग है कि कांग्रेस अधिवेशन रायपुर में समाप्त हुआ और ठीक अगले दिन ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कर्नाटक के बेलगाम में थे। वहां उन्होंने कहा कि मल्लिकार्जुन खड़गे नाम मात्र के लिए कांग्रेस अध्यक्ष हैं, रिमोट कंट्रोल किसके हाथ में है, इसे सब जानते हैं। इस तरह उनका कहना था कि यह खड़गे का अपमान है। यहां दूसरा संयोग भी देखा जा सकता है। प्रधानमंत्री ने जब यह कहा कि यह खड़गे का अपमान है, तो वे टी. अंजैया के अपमान की याद दिला रहे थे। उनका अपमान बहुत पहले राजीव गांधी ने किया था। अंजैया आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। प्रधानमंत्री ने बेलगामी की सभा में जो कहा वह इस प्रकार था, ‘मैं मल्लिकार्जुन खड़गे जी का बहुत सम्मान करता हूं। अभी कांग्रेस का अधिवेशन चल रहा था। वह सबसे सीनियर हैं… धूप थी, लेकिन धूप में छतरी का सौभाग्य खड़गे जी को नसीब नहीं हुआ… छाता किसी और के लिए लगा था। यह देख कर जनता समझ रही है कि रिमोट कंट्रोल किसके हाथ में है। मैं लोगों को याद दिलाना चाहता हूं कि कांग्रेस किस तरह कर्नाटक से नफरत करती है, राज्य के नेताओं का अपमान करना इसकी पुरानी संस्कृति का हिस्सा है।’ इससे कांग्रेस की असलियत बेनकाब हो गई है।
कांग्रेसी भी इस बात से चकित हैं कि ऐसा क्यों हुआ? कांग्रेस के प्रवक्ता बचाव में उसे कैसे हुआ की ओर मोड़ने का उपाय कर रहे हैं। इसे पूरा समझने के लिए मीडिया में छपवाए गए उस पोस्टर को ध्यान से देखना चाहिए जो पूरी कहानी खुद कहता है। यह पोस्टर कांग्रेस ने जारी किया। जिसमें कांग्रेस का अतीत है और वर्तमान भी। कांग्रेस को भारत की सबसे पुरानी पार्टी होने का श्रेय है। रायपुर कांग्रेस का अधिवेशन 85वां था। लेकिन कांग्रेस के 137 साल हो गए हैं। इतनी पुरानी पार्टी का जब अधिवेशन हो तो प्रतीक के तौर पर उसके इतिहास की झलक देने के लिए जिन चेहरों को पोस्टर में शामिल किया गया, वे अपने आप में महत्वपूर्ण हैं। वे चेहरे हैं- महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभाई पटेल, डॉ. भीमराव अंबेडकर। इन्हें आज की कांग्रेस ने पहली कतार में रखा है। दूसरी कतार में हैं- नेताजी सुभाष चंद्र बोस, सरोजिनी नायडू, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, पी.वी. नरसिन्हा राव।
कांग्रेस के इतिहास से जो भी थोड़ा बहुत परिचित है वह इस पोस्टर पर चकित होगा। उसे मौलाना अबुल कलाम आजाद की पहले कतार से अनुपस्थिति न केवल खलेगी, बल्कि वह जानना चाहेगा कि ऐसा क्यों हुआ? यह इसलिए भी एक ऐतिहासिक भूल है क्योंकि डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी के निधन के बाद मुस्लिम समाज से संवाद के लिए गांधीजी मौलाना का ही सहारा लेते थे। उनके पत्रों में अनेक बार इसका उल्लेख आया है कि मैं पहले डॉ मुख्तार अहमद अंसारी की सलाह मानता था और अब जब वे नहीं हैं तो उनकी जगह मेरे लिए मौलाना अबुल कलाम आजाद हैं। दुर्योग ही इसे कहेंगे कि डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी 1936 के मई माह में इस दुनिया से चले गए। डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी भारतीय राष्ट्रुवाद के जीवंत प्रतीक थे। गांधी जी की नजर में उनके राजनीतिक उत्ताधिकारी बने, मौलाना अबुल कलाम आजाद। संभवत: वे पहले ऐसे राष्ट्री य नेता हैं, जिन्होंने परिस्थितिवश ही सही, पर लगातार 6 साल तक कांग्रेस अध्यक्ष बने रहने का रिकॉर्ड बनाया।
यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि उन दिनों कांग्रेस का अध्यक्ष हर साल बदल जाता था। वे अपवाद होते थे जिन्हें दूसरा कार्यकाल मिलता था। लेकिन मौलाना तो तीसरी श्रेणी में थे। वह सबसे ऊपर की श्रेणी है। वे उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष बने जब आजादी निकट दिख रही थी। लेकिन विश्व युद्ध के काले बादल भी मंडरा रहे थे। उन तूफानी दिनों में मौलाना ने कांग्रेस की अध्यक्षता संभाली। सत्ता के हस्तांतरण की हर मीटिंग में वे कांग्रेस का प्रतिनिधित्व करते रहे। ऐसे मौलाना को रायपुर कांग्रेस के पोस्टर में जगह नहीं दी गई। बसपा के सांसद दानिश अली ने सही सवाल उठाया है कि आखिर कांग्रेस मौलाना आजाद के योगदान को कैसे भूल सकती है? इसके बाद कांग्रेस के प्रवक्ता जयराम रमेश ने माफी मांगी। उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि यह ऐसी भूल है जिस पर माफी नहीं दी जा सकती। सफाई में उन्होंने कहा कि इसकी जिम्मेदारी तय की जा रही है। उस पोस्टर के लिए कांग्रेस में जो जिम्मेदार ठहराया जाएगा उसकी नैतिक जिम्मेदारी तो राहुल गांधी को लेनी पड़ेगी।
ऐसा भी हो सकता है कि कांग्रेस इसके लिए किसी व्यक्ति को जिम्मेदार न ठहराए। वह इसे न याद करने योग्य घटना मान लें। कांग्रेस की राजनीति में ऐसा बहुत बार हुआ है। इसका एक अर्थ यह है कि कांग्रेस आज किस टाइप की पार्टी है और उसे किस टाइप का होना चाहिए, इसमें बहुत गहरा असमंजस इस घटना में दिखता है। यहां कांग्रेस की मौलिकता का प्रश्नक सबसे प्रमुख हो जाता है। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि सोनिया गांधी रिटायर हो रही हैं या नहीं। महत्वपूर्ण यह है कि कांग्रेस क्या अपनी मौलिकता को खोज पा रही है?
कभी-कभी यह दिखता है कि कांग्रेस का नेतृत्व इस खोज में लगा है। उसने क्या खोजा? इसकी जब कोई छानवीन करता है तो उसे कांग्रेस के अपने अंतरद्वंद्व तुरंत दिखने लगते हैं। उदाहरण के लिए भारत जोड़ो अभियान को ही इस समय अगर आधार बनाएं तो बात समझ में आ सकती है। राहुल गांधी ने 2019 के चुनाव में पराजय के बाद जिम्मेदारी स्वीकार की और कांग्रेस की अध्यक्षता बहुत आग्रहों के बावजूद नहीं ली।
यह निर्णय लोगों के मन को छू सकता है। क्या राहुल गांधी इसकी पहली शर्त को पूरा करने का दम दिखाएंगे? इसका इंतजार किया जा रहा है। इसमें किसी तरह का संदेह नहीं है कि मल्लिकार्जुन खड़गे का कांग्रेस अध्यक्ष होना एक जहां सुयोग है वहीं संयोग भी है। संयोग इसलिए कि अगर अशोक गहलोत तैयार हो गए होते और मुख्यमंत्री पद छोड़कर कांग्रेस की अध्यक्षता संभालते तो खड़गे साहब का नंबर नहीं आता। उस घटना का मर्म वे लोग जानते हैं जो दस जनपथ की आंतरिक परिधि में हैं। वे लोग अशोक गहलोत के तर्क से अब सहमत हैं। अशोक गहलोत ने उस समय यह कहा था कि अध्यक्ष बनने के बाद वे मुख्यमंत्री पद छोड़ने के बारे में विचार करेंगे। अगर कांग्रेस में एक व्यक्ति और एक पद का सिद्धांत सचमुच चलता है तो खड़गे राज्यसभा में नेता नहीं हो सकते।
रायपुर कांग्रेस ने जो संदेश दिया है वह राहुल गांधी के निर्णय और निश्चय पर बड़ा सवाल है। वे अध्यक्ष नहीं हैं लेकिन 2024 के चुनाव में कांग्रेस के वे ही चेहरे हैं। इससे राहुल गांधी की ऐसी छवि बनती है जो अधिकार चाहता है, लेकिन जिम्मेदारी से भागता है। इसे जिन-जिन लोगों ने देखा और अनुभव किया, वे अपनी राजनीति को अंधेरे में भटकने के खतरे से सावधान हुए और अपनी राह ली। इसके दर्जनों उदाहरण हैं। उन नेताओं के नाम गिनाने की जरूरत नहीं है। उन्हें लोग बखूबी जानते हैं। इसमें से बात यह निकलती है कि सिर्फ भाजपा की नकल करके कांग्रेस अपना उद्धार करना चाहे तो उसका हश्र वही होगा जो 1989 में हुआ था। फर्क केवल इतना है कि इस समय कांग्रेस का जर्जर ढांचा है और जनाधार गायब है। उससे ज्यादा जनाधार की पार्टियां अस्तित्व में हैं। ऐसी पार्टियां कांग्रेस की परवाह क्यों करेंगी? अगर उनको यह भरोसा होता कि कांग्रेस उन्हें सत्ता में पहुंचा सकती है और हिस्सेदार बनने का मौका दे सकती है तो वे आनन-फानन में एक मोर्चा नहीं बनाते। रायपुर कांग्रेस का इंतजार करते।
रायपुर कांग्रेस से एक राजनीतिक दिशा अवश्य निकलती है। वह 2024 के लोकसभा चुनाव की दृष्टि से है। यह दिशा कांग्रेस ने मजबूरी में ली है। वह एक गठबंधन बनाने के बारे में सोचने लगी है। इसमें भी उसकी पहल नहीं है, परिस्थितियों की मजबूरी है। उन परिस्थितियों को अपने पक्ष में कांग्रेस कर सके, इसके लक्षण नहीं दिखते। उसका स्वर भरोसा नहीं पैदा करता। उसमें विपक्ष से शिकायत का भाव ज्यादा है। शिकायत इस बात की कि तीसरा मोर्चा नहीं बनना चाहिए। अगर बना तो उससे भाजपा को फायदा होगा। यह ऐसी दिशा है जिसकी कोई जानी-पहचानी मंजिल नहीं है। जिन्हें क्षेत्रीय पार्टी कहा जाता है वे अपने राज्य में कांग्रेस की परवाह क्यों करेंगे! इसीलिए तीसरा मोर्चा बना है।
इस साल 9 राज्यों के विधानसभा चुनाव हैं। उन चुनाव परिणामों से राष्ट्री य स्तर पर जो गठबंधन बनेगा वह आकार ले सकता है। उसमें कांग्रेस की जगह कहां होगी? फिलहाल कांग्रेस के रायपुर अधिवेशन से एक अर्थ यह निकलता है कि राहुल गांधी ने समझ लिया है कि 2024 में कांग्रेस का कोई भविष्यप नहीं है। इसलिए अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे की अगर पराजय होती है तो उसके जवाबदेह होंगे। यह इसलिए भी कहा जा सकता है क्योंकि कांग्रेस के इतिहास में आजादी के बाद प्रधानमंत्री पद की दावेदारी उसी की मानी जाती रही है जो कांग्रेस का अध्यक्ष होता था। पी.वी. नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बाद में बने और कांग्रेस अध्यक्ष पहले बने।
कांग्रेस के शुभचिंतकों और समर्थकों को रायपुर कांग्रेस ने निराश किया है। अधिवेशन से पहले मीडिया में अनुमान लगाए गए थे कि कांग्रेस में 1991 के बाद पहली बार कार्यसमिति के सदस्यों का निर्वाचन होगा। अगर निर्वाचन हुआ होता तो कांग्रेस में प्राण तत्व का संचार संभव था। कांग्रेस आंतरिक लोकतंत्र से जीवनी प्राप्त करती है। आंतरिक लोकतंत्र उसके लिए उसी तरह जीवंत होने का सहारा है जैसे किसी मनुष्यि की सांस चलती हो। सोनिया गांधी ने कभी चुनाव नहीं कराया। इस बार उम्मीद थी कि चुनाव होंगे। पी.वी. नरसिम्हा राव ने तिरूपति में कांग्रेस अधिवेशन करवाया और वहां चुनाव हुए। कांग्रेस कार्यसमिति के चुनाव का एक इतिहास है। उससे यही जाना जाता रहा है कि कांग्रेस में नया नेतृत्व आ रहा है तो उसका चेहरा क्या है। रायपुर कांग्रेस ने नए नेतृत्व का रास्ता बंद कर दिया। फिर वही चेहरे हैं जो पराजय के स्मारक बन गए हैं। इस कांग्रेस से जो उम्मीदें थी उनको जांचने की यह बड़ी कसौटी है। भले एक मात्र न हो।
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