भारतीय लोकतंत्र अपनी यात्रा के नए पड़ाव पर है। यह नयापन आशाप्रद है। इसमें सकारात्मकता है। लेकिन एक समूह ऐसा भी है जो 17वीं लोकसभा के चुनाव परिणाम की गलत व्याख्या अपनी पूर्वधारणाओं के आधार पर कर रहा है। इस समूह को अपने विचार और अपनी धारणाओं पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। ऐसा अगर वे कर सके तो स्वस्थ बहस की संभावना बढ़ेगी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने बोध वाक्य में एक शब्द जोड़ा है। ‘सबका साथ, सबका विकास’ में चुनाव परिणाम के बाद उन्होंने जो जोड़ा वह ‘सबका विश्वास’ है। इसे ही वे चुनाव परिणाम का निष्कर्ष बता रहे हैं। इसे न मानने का कोई कारण नहीं है।
हर आम चुनाव अपने आप में नया होता है। उसकी तुलना पिछले चुनाव से की तो जाती है, लेकिन सचमुच वह खींचतान ही होती है। एक चुनाव से दूसरे की समानता एक दो बातों में हो सकती है, पूरी तरह तो नहीं हो सकती। इसलिए 2019 के चुनाव को देखने के लिए पिछले चुनाव को आधार सिर्फ इसलिए बनाया जा सकता है कि उसमें जो जनादेश आया, वह एक नई शुरुआत थी। उस समय भी एक समूह था जो मानता था कि गुजरात छोटा राज्य था, देश बहुत बड़ा है, इसलिए स्पष्ट बहुमत के बावजूद नरेन्द्र मोदी संभाल नहीं पाएंगे। ऐसे लोग क्या अब अपनी भूल स्वीकार करेंगे? वे ही लोग आज चुनाव परिणाम पर लोगों को बरगलाने का प्रयास कर रहे हैं। उनकी नजर में यह चुनाव परिणाम सकारात्मक नहीं है। ऐसे लोग 2019 के चुनाव को समझ नहीं पाए हैं। उन्हें समय समझा देगा। ऐसे लोगों का क्या कहना है, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना यह जानना कि इस चुनाव परिणाम को किस रूप में देखें और समझें। इसके लिए उन प्रतिक्रियाओं को जानना जरूरी है जो बहस में कहीं सुनी गई हैं।
कुछ लोगों के कथन का जिक्र कर चुनाव परिणाम की व्यापकता का एक अनुमान लगाया जा सकता है। सबसे पहले अर्थशास्त्री सुरजीत एस भल्ला का जिक्र जरूरी है, क्योंकि 2019 के चुनाव को उन्होंने नारों से नहीं बल्कि लोगों की जिंदगी से जानने की कोशिश की। वे चुनाव से पहले लोगों का मन टटोल रहे थे। उस आधार पर उन्होंने तीन अनुमान लगाये थे। पहला कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में 2014 जैसा चुनाव परिणाम आ सकता है। दूसरा कि उसके आस-पास रह सकता है। तीसरा कि उससे बेहतर हो सकता है। उनके ये अनुमान लिखित हैं। उनकी पुस्तक में है। पुस्तक है- ‘सिटीजन राज’। यह हाल में ही छपी है। दूसरी प्रतिक्रिया पवन वर्मा की है। वे चुनाव परिणाम में नई राजनीति के बीज देख रहे हैं।
भूकंप से जो होता है वही 2019 के चुनाव परिणाम से भारतीय राजनीति में घटित होने की ज्यादा संभावना है। इस अर्थ में अर्थशास्त्री सुरजीत एस भल्ला सही हो सकते हैं। इस चुनाव ने वंशवाद और जातिवाद दोनों की नींव को हिला दिया है। इसे चुनाव परिणाम में जय-पराजय पर निगाह दौड़ाकर समझ सकते हैं।
सुरजीत एस भल्ला ने अपनी पुस्तक में बताया है कि उनका अनुमान 14 फरवरी 2019 की घटना से पहले का है। उस दिन पुलवामा में आतंकवादियों ने सीआरपीएफ के 40 जवानों को धमाके से उड़ा दिया था। उसके बाद भारत सरकार ने जो जवाबी कार्रवाई की, उसे एयर स्ट्राइक के रूप में हमेशा याद किया जाएगा। क्या इस घटना और आतंकवादियों पर की गई जवाबी कार्रवाई ने चुनाव परिणाम को अनुमान से परे बदल दिया? यह हमेशा एक प्रश्न चिह्न जैसा बना रहेगा। जो यथार्थ को देखना नहीं चाहते और चुनाव परिणाम को एक पूर्वाग्रह से ही समझने के लिए अभिशप्त हैं, वे यही मानेंगे कि पुलवामा का चुनाव परिणाम पर प्रभाव पड़ा। क्या ऐसा ही है? इसका उत्तर खोजना कठिन नहीं है, सरल है।
सुरजीत एस भल्ला ने 2019 के चुनाव परिणाम को राजनैतिक भूकंप जैसा माना है। जहां दूसरे लोग मोदी के असर को सुनामी, लहर और तूफान जैसा मान रहे हैं, वहां सुरजीत एस भल्ला इसे भूकंप क्यों कह रहे हैं? किसी के भी मन में यह प्रश्न उत्पन्न हो सकता है। इसका वे उत्तर भी दे रहे हैं। भूकंप से जो होता है वही 2019 के चुनाव परिणाम से भारतीय राजनीति में घटित होने की ज्यादा संभावना है। इस अर्थ में वे सही हो सकते हैं। भारतीय राजनीति में वंशवाद एक बड़ी बुराई बनी हुई है। इस चुनाव ने उसकी नींव को हिला दिया है। इसे चुनाव परिणाम में जय-पराजय पर निगाह दौड़ाकर समझ सकते हैं। कुछ उदाहरण से स्पष्ट हो जाएगा।
मीसा भारती इसलिए राजनीति में महत्वपूर्ण थीं क्योंकि उनके पिता लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री रहे और घोटाले में सजा काट रहे हैं। लेकिन वे राजद के अध्यक्ष बने हुए हैं। कोई राजनीतिक दल अपना अध्यक्ष किसे चुनता है, यह उसका अंदरूनी मामला नहीं हो सकता। राजनीति के पैमाने पर उसे जांचा-परखा जरूर जाएगा। इसी तरह राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष अपने राजनीतिक पुरुषार्थ से नहीं बने हैं। सोनिया गांधी और राजीव गांधी के पुत्र होने के कारण वे कांग्रेस के वारिस हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया भी वंशवाद के प्रतीक और प्रमाण हैं। डिंपल यादव भी वंशवादी और परिवारवादी राजनीति की प्रतिनिधि कही जा सकती हंै। इनका इस चुनाव में हारना ही वंशवादी राजनीति पर गहरी और मारक चोट है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। सपा-बसपा गठजोड़ को जनता ने नकार कर स्वार्थी और जातिवादी राजनीति की बुनियाद हिला दी है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वंशवादी और परिवारवादी राजनीति पर जनमत जगाया। वे लोगों को इसकी बुराइयों से सावधान करने में सफल हुए। एक बार की सफलता भी टिकाऊ हो सकती है। लेकिन उसे कुछ शर्तों को पूरा करना होता है। पहली शर्त यह होगी कि सत्तारूढ़ दल जो कहे उस पर आचरण करे। दूसरी शर्त ज्यादा महत्वपूर्ण है। वह यह कि लोग लोकतंत्र के हित में वंशवादी और परिवारवादी राजनीति को प्रश्रय न देने का फैसला करें। इस चुनाव से इसकी शुरुआत हो गई है। सबसे बड़ी बात जो इस चुनाव में हुई है, वह फेक न्यूज को नकारने की है। नरेन्द्र मोदी के विरोध में पिछले कई सालों से फर्जी खबरें और उसके आधार पर सोशल मीडिया के जरिए एक झूठा प्रचार किया जा रहा था। उस पर जनता ने भरोसा नहीं किया।
कांग्रेस अध्यक्ष ने राफेल सौदे को एक बड़े घोटाले की भांति प्रस्तुत किया। उसके लिए जो-जो मंच उपलब्ध हो सकते थे, उनका जायज-नाजायज उपयोग कर लोगों के मन में यह बात बैठाने का अभियान चलाया गया कि इस सौदे में भारी लेन देन हुई है। राहुल गांधी ने उस लेन-देन की रकम को कभी 250 करोड़ कहा तो कभी 30 हजार करोड़ बताया। इससे भी उनके कहे पर संदेह पैदा हुआ। कांग्रेस की राजनीति बहुत पहले से रक्षा घोटालों की आमदनी से चलती रही है। इसे एक रिवाज भी मान लिया गया था। लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ईमानदारी पर जो लोग भी दाग लगाने की हिमाकत करना चाहते थे,उन्हें जनता ने जवाब भी दे दिया है और एक सबक भी सिखाया है।
फेक न्यूज के जरिए केवल यही एक झूठ फैलाने की कोशिश नहीं हुई बल्कि यह तो एक उदाहरण है। ऐसे प्रयास हर रोज होते रहे। जो लोग इसमें लगे थे, वे नामी पत्रकार माने जाते हैं। अपनी साख और छवि को दांव पर लगाकर ऐसे डेढ़ दर्जन पत्रकार नरेन्द्र मोदी के खिलाफ झूठ फैलाने के काम में जुटे हुए थे। उन्हें दो तरह का भ्रम था। पहला यह कि वे जो कहेंगे उसे देववाणी माना जाएगा। लोग उस पर भरोसा करेंगे। दूसरा भ्रम उनको स्वयं के बारे में भी था। वह यह कि उनके लिखे पढ़े से ही देश चलेगा। यह आत्म छवि उन्होंने स्वयं बना ली थी। कोई पत्रकार ऐसी आत्म छवि अगर गढ़ ले और उसपर यकीन करता रहे तो वह जिस तरह मजाक का विषय हो सकता है, वैसा ही इस बार हुआ है। 2009 का चुनाव पेड न्यूज के लिए कलंकित हुआ। उसमें पत्रकारों की जो भूमिका थी, वह उनके संस्थान के भ्रष्ट हो जाने के कारण थी।
2019 के चुनाव में फेक न्यूज को चंद पत्रकारों ने चलाया। अपने मुनाफे के लिए। यह अफसोस की बात है। इस चुनाव परिणाम से स्पष्ट हुआ कि देश ने नरेन्द्र मोदी को उसी तरह स्वीकार किया है, जिस तरह 1957 में पंडित जवाहरलाल नेहरू को उनकी अनेक विफलताओं के बावजूद स्वीकार किया था। तब और अब में एक समानता है। तब विपक्ष भीड़ था। आज भी विपक्ष भीड़ में परिवर्तित हो गया है। उम्मीद जिस कांग्रेस से कर सकते हैं, वह उस भीड़ का हिस्सा बनने के लिए आतुर दिखी।
स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जरूरी है कि एक विपक्ष हो। जहां सरकार असावधानी बरते, वहां उसे सावधान करे। सरकार की गलतियों को वह निशान लगा कर बताए और जरूरत पड़ने पर सत्याग्रह करे। इसके विपरीत विपक्ष ने नकारात्मक राजनीति का जो उदाहरण बीते पांच सालों में पेश किया, उसे जनता ने नामंजूर कर दिया है। करीब तीन दशक पहले पी.वी. नरसिंह राव ने आर्थिक सुधारों का सिलसिला चलाया। उसे हर प्रधानमंत्री ने अपने कार्यकाल में बढ़ाने का प्रयास किया। लेकिन यह पहली बार है कि आर्थिक सुधारों पर जनता ने अपनी सहमति की मुहर लगाई है। ऐसा न होता तो नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को 2014 से ज्यादा सीटें नहीं मिलतीं और राजग का विस्तार भी नहीं होता। आर्थिक सुधार और लोकतंत्र साथ-साथ चल सकते हैं, इसे नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व ने कर दिखाया है। इसीलिए जनता का भरोसा न केवल नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बना हुआ है, बल्कि बढ़ा है। यह चुनाव परिणाम की व्यापकता और गहराई में भी झलकता है।
निसंदेह देश के इस चुनाव ने भारतीय राजनीति के जातिवादी स्वरूप पर एक गहरा आघात किया है और यह काबिले तारीफ है।ना देश की सरकार के पास कोई विसय थे और ना ही देश की जनता के पास कोई विकल्प। ऐसे में एक मजबूत सरकार की देश में बहुत जरूरत थी ।ईस्वर की इच्छा से वह पूरी हुई।हमारा मानना है कि यह जनाकांक्षाओं का जनादेश है।यह फूलों का ताज नही काँटों की सेज मिली है।स्वाभाविक है कि जनता की समझ के स्तर का विकास हुआ है ऐसे में सरकार के द्वारा लिए गए हर फैसले के ऊपर जनता की नज़र रहने वाली है।एक कमजोर और दिशाहीन विपक्ष से हमे कोई आशा नही है ऐसे में समाज के प्रबुद्ध जनो के ऊपर विपक्ष की भूमिका निभाने की एक बड़ी जिम्मेदारी आ गई है क्योकि बिना एक स्वस्थ विपक्ष के एक स्वस्थ लोकतंत्र की कल्पना नही की जा सकती।ऐसे में हमे आशा ही नही पूर्ण विस्वास है कि आप जैसे प्रबुद्ध जन सरकार का मार्गदर्शन करने का कार्य करेंगे।