सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तल्ख टिप्पणी के बाद पंजाब के राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित को पद छोड़ देना चाहिए। मर्यादा और नैतिकता का यही तकाजा है। प्रधान न्यायाधीश धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने पुरोहित के वकील तुषार मेहता से स्पष्ट कर दिया था कि : “यदि राज्य मंत्रिमंडल ने कहा कि बजट सत्र का आयोजन किया जाना है तो सत्र का आयोजन करना ही होगा। राज्यपाल इसके लिए बाध्य हैं और इस बारे में कानूनी सलाह नहीं मांग सकते।”
पुरोहित बनाम आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान में भिड़ंत का मामला एक अवांछनीय संवैधानिक विवाद का आकार ले रहा था। वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने पीठ को बताया : “राज्यपाल ने प्रदेश सरकार को विधानसभा सत्र बुलाने के लिए सुप्रीम कोर्ट आने को मजबूर किया है। उन्हें (राज्यपाल) संविधान के मुताबिक काम करना चाहिए। अगर राज्यपाल विरोध में आ जाएं तो बजट सत्र शुरू नहीं हो सकेगा। राज्यपाल संविधान का अपहरण कर रहे हैं। वह संवैधानिक प्रावधानों की अनदेखी कर रहे हैं।” सिंघवी ने पूछा, “क्या वे बजट सत्र का मतलब समझते हैं ? क्या उन्हें ऐसा करना चाहिए ?”
विवाद की शुरुआत पुरोहित के 21 सितंबर 2022 के पत्र से हुआ था। मुख्यमंत्री के आग्रह पर राज्यपाल ने पंजाब की सोलहवीं विधान सभा के विशेष सत्र के लिए आदेश जारी कर दिए थे। सरकार “विश्वास मत” पाने हेतु यह विशेष सत्र चाहती थी। फिर अकस्मात पुरोहित ने नया आदेश जारी कर अपने एक दिन पूर्व के निर्णय को निरस्त कर दिया। राज्यपाल का कारण था कि “विश्वास मत” का ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। इस पर मसला उच्चतम न्यायालय पहुंचा। जो कुछ खंडपीठ ने कहा वह पंजाब की संवैधानिक स्थिति को हास्यास्पद और असंवैधानिक बनाता है। मसलन उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी थी कि राज्यपाल और मुख्यमंत्री को “दिमागी परिपक्वता” दर्शानी चाहिए थी। दोनों मे अधोपतन के लिए दौड़ लग गई थी। संवैधानिक मर्यादा भयावह स्थिति मे पड़ गई थी। दोनों में मर्यादा तथा गरिमा की सीमा के तहत पारस्परिक संवाद होना चाहिए। मुक्केबाजी जैसी टक्कर नहीं होनी चाहिए। अंततः राज्यपाल ने अगले शुक्रवार (3 मार्च 2023) के दिन विधान सभा को आहूत करने की बात स्वीकार कर ली। आदेश जारी कर दिया। यह सारी स्थिति टाली जा सकती थी। न्यायिक आलोचना से बचा जा सकता था।
राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित राजनीति में पत्रकारिता से आए हैं। पत्रकार स्वभावतः दुस्साहसी, अक्खड़ प्रवृत्ति के होते हैं। मगर सत्ता पर सवार होने वाले से जनता की अपेक्षाएं बढ़ जाती है। मूलतः बनवारीलाल पुरोहित शुरू में घी के व्यापारी थे। फिर सियासत में प्रवेश किया है। अशोक घी नामक विक्रेता संस्थान उनका पैतृक व्यवसाय था। प्रारंभ में वे इंदिरा-कांग्रेस के सदस्य थे। दो बार सांसद रहे। (दल बदलकर भाजपा में आए)। उसके पूर्व विदर्भ के समर्थन में पृथकतावादी सियासत करते रहे। फिर राम मंदिर के मसले पर भाजपा में आ गये। दल पलटते रहे। लाभार्थी भी रहे। तमिलनाडु के राज्यपाल रहे तो उनका आरोप था कि चालीस से पचास करोड़ की रिश्वत लेकर विश्वविद्यालयों के कुलपति नामित किये जा रहे हैं। विवादों के चलते पुरोहित तीन प्रमुख चुनाव में पराजित हो गए थे। भाजपा के सांसद रहने के बाद वे 1991 में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की दत्ता मेघे से हारे। फिर 1999 में वे रामटेक से लोकसभा चुनाव हारे। तब उनका प्रभावी भाजपा नेता प्रमोद महाजन से मतभेद हो गया था और 1999 में हार गए। अपनी विदर्भ राज्य पार्टी से 2003 में नागपुर से लड़े और 2004 में हारे। फिर 2009 में कांग्रेस के विलास मुत्तमवार से हारे।
पत्रकारिता में पुरोहित जी का प्रवेश भी एक घटना है ही। कहां घी का व्यापार कहां बुद्धिकर्म ! उन्होंने गोपाल कृष्ण गोखले की सर्वेंटस ऑफ इंडियन सोसाइटी 1979 दैनिक पत्रिका की “हितवाद” लेकर उसके प्रबंध संपादक बने।
हालांकि कांग्रेसी सांसद तथा वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी का आरोप था कि राज्यपाल के पद पर रहते अपनी हरकत से पुरोहित ने संविधान का हाईजैक किया है। छला है। फिर भी अब तक उन्होंने राजभवन नहीं छोड़ा। सर्वोच्च न्यायालय की नुक्ताचीनी भी झेल ली। राज्यपाल का अत्यधिक सम्मानित और मर्यादित पद होता है। यूपी में मोतीलाल वोरा राज्यपाल थे। उनकी हवाला कांड में संलिप्तता उजागर होते ही वोरा जी ने राजभवन छोड़ दिया था। अतः अब सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राज्यपाल को उनके कर्तव्यों तथा आचरण संबंधी सिद्धांतों का उल्लेख कर फटकार लगाने पर यह नैतिक दायित्व होगा कि बनवारीलाल पुरोहित अपनी अतिवादिता के फलस्वरूप राज्यपाल पद छोड़ें। वापस घी के व्यापार अथवा पत्रकारिता के प्रबंधन में लौटें।
[उपरोक्त लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं]