दिल को बहुत नीक लगा। बड़ा मनभावन भी। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का दिल्ली में ओजस्वी बयान था : “आतंकी को पाकिस्तान में घुसकर मारेंगे।” उसी वक्त करीब बारह सौ किलोमीटर दूर जमुई (बिहार) में नरेंद्र मोदी ने भी इसी तर्ज पर उसी रौद्र भाव को शब्द दिए। बालाकोट पर भारतीय वायु सैनिकों के हवाई हमले (26 फरवरी 2019) किए थे। मकसद वही था जो दशकों पूर्व कवि रामधारी सिंह दिनकर ने पांडव दूत श्रीकृष्ण द्वारा दुर्योधन को कहलवाया था : “याचना नहीं, अब रण होगा।” हालांकि लंदन दैनिक “दि गार्डियन” ने आरोप लगाया था कि भारत की गुप्तचर संस्था “रॉ” ने पाकिस्तान के भीतर हमला किया था। भारत की नीति इस इस्लामिक पड़ोसी पर अब काफी सख्त हो गई है। कांग्रेस की ढुलमुल जैसी नहीं। राजनाथ सिंह का बयान है : “भारत हमेशा पड़ोसी देशों के साथ अच्छे संबंध रखना चाहता है। भारत ने कभी किसी देश पर हमला नहीं किया। किसी की भूमि पर कब्जा नहीं किया।”
मगर अब मोदी सरकार निर्भय होकर भर्त्सना करती है। नेहरू सरकार वाली नीति और धारणा नहीं कि “जरा आंख में भर लो पानी” (कवि प्रदीप की पंक्ति जिस पर जवाहरलाल नेहरू रोए थे)। इसीलिए राजनाथ सिंह के बयान के संदर्भ में 13 दिसंबर 2001 को भारतीय संसद पर पाकिस्तानी सियासी डकैतों द्वारा हुए हमले की याद आती है। हमला स्थल वही था मोदी ने माथा टेका था। जहां (हाईजैक करने वाले पाकिस्तानी) आराम से आकर अमृतसर से निर्बाध तेल भराकर कांधार तक उड़ते चले। यूं भी सलाहकार बृजेश मिश्र शाम ढले आदतन अवचेतन अवस्था में ही रहे होंगे।
जिस कीमत पर आतंकी हाफिज की अदला—बदली हुयी उससे ज्यादा शर्मनाक हादसा शायद ही कभी भारत में घटा हो। फिर भी 75—वर्षीय कनौजिया विप्र अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने से तीन साल तीन माह छोटे सजातीय सुरक्षा सलाहकार मिश्र जी को बर्खास्त तक नहीं किया। भले ही आरएसएस और भाजपाई ऐड़ी चोटी तक कोशिश कर चुके थे। इस अनुभव की शृंखला में ही संसद पर हमले का हो जाना खाज में खुजली जैसा लगा था। प्रधानमंत्री के आदेश पर तब फौज दिनरात अरसे तक सीमा पर खड़ी रहीं। अटलजी स्थितप्रज्ञ रहे। हमले का आदेश तक नहीं दिया। अटलजी के हलकेपन का ही अंजाम था कि 2008 में फिर पाकिस्तानी आतंकियों ने कसाब के साथ मुम्बई के ताज होटल पर भयावह हमला किया था।
अर्थात यदि बीस साल पहले पाकिस्तान की सेना को पाठ सिखा देते तो दस साल में चार बार हुये आक्रमणों पर निरीह भारतीय नागरिकों के प्राण बच जाते। यह तारीखें सब हमें मुहर्रम जैसी याद रखनी चाहिये। भले ही पाकिस्तानी उन अवसरों को ईद का पर्व मानें।
कभी लोकसभा में अटलजी ने जवाहरलाल नेहरु को संसद में भयभीत ब्रिटिश प्रधानमंत्री नेविल चैम्बरलेन जैसा बताया था। इस प्रधानमंत्री ने एडोल्फ हिटलर को बहलाने, फुसलाने, तुष्टिकरण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। ऐसी अकर्मण्यता, भय, झिझक, हिचक असमंजसपना अटलजी के व्यक्तित्व में खूब झलकी थी। वहीं मानसिकता जो बौद्ध अशोक से जवाहरलाल नेहरु की कायरता का प्रतीक रही। केवल इन्दिरा गांधी (बांग्लादेश) और नरेन्द्र दामोदरदास मोदी (बालाकोट) रहे जो शत्रु के घर में घुसकर मारते थे। एक पुराना फिल्मी डायलाग याद आया। हीरो राज कुमार दुश्मन से कहता है : ”मैं मारुंगा, गोली हमारी होगी, बंदूक भी हमारी होगी (सिनेमा सौदागर—1991)। फिर वह वक्त और स्थल खुद तय करता है। डायलॉग पर श्रोताओं ने ताली बजायी थी। मगर अटलजी के संदर्भ में न बन्दूक रही। न गोली चली। न मुहूर्त आया। न पाकिस्तान से जमीन ही वापस मिली, और न ही कोई वाह वाही। बस इतिहास उन्हें याद रखेगा कि नेविल चैंबरलेन और उनके प्रणेता जवाहरलाल नेहरु जैसे ही अटलजी भी रहे। कापुरुष।
तनिक मुकाबला कीजिये परस्पर इन दो भाजपायी प्रधानमंत्रियों का। पुलवामा के शहीदों के लहू का प्रतिशोध लिया गया, बालाकोट पर बम्बारी कर। वडनगर कस्बे के एक चायवाले दामोदरदास की छह संतानों में तीसरे, यह 70—वर्षीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र भारत के शासकों में पृथ्वीराज, राणा प्रताप और शिवाजी से भी आगे बढ़ गये, दुश्मनों को ठिकाने लगाने में। कामयाब रहे। सोच में लिबलिबा, निर्णय में लिजलिजा और क्रिया में कायर नहीं थे। शायद यही कारण था कि अपनी लाहौर यात्रा पर कांग्रेसी मणिशंकर अय्यर को पाकिस्तानियों से अनुरोध करना पड़ा कि, ” मोदीवाली भाजपा को हराने में सोनिया—कांग्रेस की मदद करें।”
उदाहरण मिला कन्नौज नरेश राजा जयचन्द की प्रार्थना का शाहबद्दीन मोहम्मद गोरी (1192) से। जयचन्द ने अपने जामाता अजमेर राजा पृथ्वीराज चौहान को मार डालने का निमंत्रण गोरी को भेजा था। तराईं के दूसरे युद्ध में गोरी और जयचन्द ने मिलकर भारतीय सम्राट को मारा था। सोनिया—कांग्रेसी इसी घटना को 832 वर्षों बाद शायद दोहराना चाहती है।