जाहिलों की जाहिलियत जारी है। जाहिलियत एक सोच है। अगर यह सोच किसी मजहब का आधार ही बन जाए तो समझो कि खतरा आपके सबसे करीब है। इससे निपटने के उपाय खोजने होंगे। क्योंकि इनकी जाहिलियत नई नहीं है। हमने कब नही देखा इनकी जाहिलियत। हमने कब नही भुगता इनकी जाहिलियत। हमने इनकी जाहिलियत से व्यथित गांधी को देखा। बलूचिस्तान के कोहाट में इन्हीं जाहिलों की जाहिलियत से व्यथित गांधी जी को आधी रात को अपने आश्रमवासियों को जगा कर कहना पड़ा ‘हो सकता है कि किसी दिन आपको भी ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ जाए। यदि आश्रम से किसी बच्चे, लड़के या लड़की का अपहरण हो तो आप मेरी अहिंसा का लगत अर्थ लगाकर मूकदर्शक मत बने रहना।’
इन जाहिलों को मुनव्वर राना और नसीरूद्दीन जैसे लोगों को कवर फायर करते हुए आज ही नहीं देख रहे। बस नाम बदले हैं। हर समय ये थे, ये तो बस उनके शुरू किए गए किस्से को पूरा करने की कोशिश कर रहे है। पहले मौलाना मोहम्मद अली और शौकत अली जैसे थे। अब मुनव्वर और नसीर जैसे हैं। हमें सीखने के लिए तो गांधी जी ही सब कुछ सिखा देंगे। क्योंकि ‘हिन्द स्वराज’ लिखने वाले गांधी जी को 29 मई 1924 में ‘यंग इंडिया’ में लिखना पड़ता है कि “मै मुसलमानों की हिंसा पर नाराज होने से अधिक एक हिन्दू होने के नाते, हिन्दुओं की कायरता पर अधिक शर्मिंदा हूं” इसे विस्तार से समझने की जरूरत है। इसके लिए गांधी जी से अच्छा कोई हमें समझा नहीं सकता। हम बात शुरू करते हैं जब गांधी जी भारत नही आए थे। बात 1909 की है।
गांधी जी ने हिन्द स्वराज भी 1909 में ही लिखी। तब वह भारत नहीं आए थे। उस दौर के भारत की तासीर को वह अफ्रीका में बैठकर समझ रहे थे। नब्ज पकड़ने में वो काफी कुछ सफल भी रहे। लेकिन ऐसा नही कि पूरी तरह से सफल रहे। जिस ‘हिन्द स्वराज’ को उनका जीवन दर्शन माना जाता है, बाद में चलकर उस विचार में काफी कुछ बदलता है। लेकिन उस बदलाव को लोग अपनी सुविधा के अनुसार छुपाते हैं।
‘हिन्द स्वराज’ लिखने के छह साल बाद 1915 में वह भारत आए। 1915 से अपने जीवन के अंतिम समय 1948 तक वह भारत मे ही रहे। कुछ अपवादों को छोडकर। इस दौरान उन्होंने ‘हिन्द स्वराज’ की अपनी सोच के मुताबिक रणनीति बनाते रहे। ‘हिन्द स्वराज’ मे पाठक के एक सवाल के जवाब में गांधी जी कहते हैं कि यहां बहुत से हिन्दुओ और मुसलमानों के बाप दादा एक ही थे। उनकी धमनियों में एक ही रक्त बह रहा है। धर्म बदलने से क्या हम एक दूसरे के दुश्मन हो गए।
हिन्द स्वराज में आगे गांधी जी गोरक्षा के सवाल पर कहते हैं “..जैसे गाय उपयोगी है वैसे ही मनुष्य भी उपयोगी है, फिर वह हिन्दू हो या मुसलमान। तब क्या गाय को बचाने के लिए मै मुसलमान से लड़ूगा, उसकी हत्या करूंगा? ऐसा करके तो मै गाय और मुसलमान दोनो का दुश्मन बनूंगा….” आगे वह कहते हैं “मेरा सगा भाई गाय को मारने दौड़े तो मेरा कर्तव्य क्या होगा। मै उसे कत्ल कर दूं या उसके पैर पड़ू…” दरअसल यहां गांधी जी हिन्दुओं को बडा भाई मानते है और मुसलमानो को छोटा। इसी ‘हिन्द स्वराज’ में वह मुसलमानों को छोटा भाई मान रहे हैं, वहीं अंग्रेजों की सभ्यता, राज करने का तरीका, उनकी सोच को भारत के अनुकूल नहीं मान रहे, या फिर अफ्रीका में रहते हुए वह ठीक से समझ नहीं पा रहे थे। लेकिन भारत का इतिहास तो मुस्लिम आक्रांताओं से भरा पड़ा था, फिर वह उनकी सोच को क्यों नहीं समझ पाए? अंग्रेजों की सभ्यता और सोच आतताई थी तो मुसलमानों की कौन सी सभ्यता शालीन और शांत थी? या यह गांधी जी की रणनीति थी? भारत आने की तैयारी?
लेकिन बाद की घटनाएं बहुत कुछ बयां करती है। जो बताता है कि वह छोटा भाई नही वह तो एक क्रूर सोच की सभ्यता है। यह आगे चलकर गांधी जी को दिखाई भी दिया। महात्मा गांधी ने खिलाफत आंदोलन को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़कर एक बड़ा आंदोलन खड़ा किया था। पर परिणाम में दंगा मिला। इस पर 1924 में गांधी जी ने “यंग इंडिया”में एक लेख लिखा। उस पर कई पत्र उन्हें मिले। उन्हीं पत्रों में से एक भगवान दास का भी पत्र था। उसका गांधी जी ने उत्तर दिया। पत्र में सवाल था कि अगर उनका हमारा खून एक है तो व्यवहार में अंतर क्यों?
गांधी जी ने उत्तर दिया उनका और हमारा खून एक है, लेकिन मजहब और इतिहास ने प्रवृति और प्रकृति बदल दी है। मतलब मजहब से व्यवहार निर्धारित होता है। यह गांधी जी मान रहे है। दरअसल ये आज की समस्या नहीं है। यह आजादी के आंदोलन के समय से ही मुस्लिम नेता इसे मजहबी नजरिए से देखते आ रहे। चाहे वह मौलाना अब्दुल लतीफ, जस्टिस अमीर अली या फिर सर सैयद अहमद खां क्यों न हो। यह समस्या उम्मा की संकल्पना से संचालित हो रही थी।
दरअसल पाकिस्तान बनाने का ख्वाब भी शुरू से मुस्लिम नेताओं ने देखा था। 1933 में पाकिस्तान का नारा रहमतुल्ला ने दिया था। वह कोई मौलाना नही था, वह कैंब्रिज विश्वविद्यालय में पढ़ता था। वह पहला शख्स था जिसने पाकिस्तान का नारा दिया था। मतलब उम्मा का मुसलमानों में चक्कर हर जगह था, चाहे कैंब्रिज हो या फिर दिल्ली, और तो और मोहम्मद इकबाल ने 1905 में लिखा ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ बाद में लिखते है ‘मुसलिम हैं हम, वतन है सारा जहां हमारा, हिन्दुस्तां हमारा, चीनो-अरब हमारा’। जबकि तीन पीढी पहले इकबाल के पूर्वज धर्म परिवर्तन किए थे। वह कश्मीरी ब्राम्हण थे। उन्होंने ही कहा अपने भाषण में इसलाम के प्राण शरियत में हैं। जहां पर शरियत लागू नहीं हो सकती, वहां पर इसलाम जिन्दा नहीं रह सकता।
मुसलिम सोच पूरे आंदोलन में देखने को मिलती है। गांधी जी मुसलमानों को अपने साथ लेकर चलने की रणनीति पर काम कर रहे थे, लेकिन मुसलमान और उनका नेतृत्व अपने उद्देश्य में जुटा था। इसके नतीजे धीरे धीरे सामने आने लगे थे। 21,22,13 अगस्त 1921 को उत्तरी केरल के मालाबार इलाके में मोपला हत्याकांड हुआ। केरल के मजहबी उन्मादियों को बताया गया था कि 21 अगस्त को खिलाफत राज स्थापित हो जाएगा। तब काफिरों का इस्लामीकरण करना होगा। इसलिए इन जाहिलों ने तीन दिन तक अपने हिन्दू पड़ोसियों पर जुल्म ढ़ाए। एनी बेसेंट, सर शंकरन नायर जैसे अनेक जिम्मेदार लोगों के विवरण में इस क्रूरतम घटना के तथ्य मौजूद है। जानेमाने इतिहासकार आर.सी.मजूमदार ने इस घटना का तथ्यातमक विवरण दिया है।
गांधी जी चौरी चौरा की घटना के बाद असहयोग आंदोलन को स्थगित कर दिया। आंदोलन के शिथिल पड़ते ही पूरे उत्तर भारत में कोहाट से लेकर ढाका तक हिन्दू मस्लिम दंगे शुरू हो गए। यहां गांधी जी को नए सिरे से विचार करने को विवश किया। अब गांधी जी जो सोचते हैं, वह महत्वपूर्ण है। 29 मई 1924 को अपने ‘यंग इंडिया’ पत्र में एक लेख लिखा। शीर्षक था ‘हिन्दू मुस्लिम एकता’ इस लेख में गांधी जी ने लिखा कि मुल्ला मौलवी बार बार कहते थे कि हमारे समाज को आपका अहिंसा का सिद्धांत स्वीकार्य नहीं है। आगे गांधी जी ने लिखा कि “मै मुसलमानों की हिंसा पर नाराज होने से अधिक एक हिन्दू होने के नाते, हिन्दुओं की कायरता पर अधिक शर्मिंदा हूं” इसी लेख में उन्होने माना कि ‘मुझे तनिक भी संदेह नहीं है कि अधिकांश झगड़ों में हिन्दू ही मार खाते हैं। मेरा अपना अनुभव कहता है कि मुसलमान आम तौर पर आक्रांता होता है और हिन्दू आम तौर पर कायर। इस सच्चाई को मैने रेलगाड़ियों में, सार्वजनिक रास्तों पर और ऐसे झगड़ों में, जिन्हें निपटाने का मुझे मौका मिला, अपनी आंखों से देखा है। क्या हिन्दू अपनी कायरता का दोष हिन्दुओं को देगा? जहां कायर होंगे वहां आततायी भी हमेशा होंगे।’ ये गांधी जी के विचार है। ये बरतने के बाद बने विचार हैं।
गांधी जी आगे अपने विचार को विस्तार देते हैं। 19 जून, 1924 के ‘यंग इंडिया’ में ‘हिन्दू क्या करे?’ शीर्षक से लिखे गए लेख में गांधी जी लिखते हैं ‘हिन्दू लोगों की सभ्यता बहुत प्राचीन है और उसमें अहिंसा समाई हुई है। यह अहिंसा भाव की प्रधानता होने के कारण शस्त्रास्त्रों का प्रयोग कुछ ही जातियों तक सीमित रह गया और इन जातियों ने भी उच्च कोटि के अध्यात्मवाद विद्वान और त्यागी लोगों के अनुशासन से चलना सदा अपना धर्म माना। इसलिए समाज के रूप में हिन्दुओं के पास वे मानसिक उपकरण नहीं हैं, जो लड़ने-भिड़ने के लिए आवश्यक होते हैं…’ इधर गांधी जी विचार तेजी से परिवर्तित हो रहे थे। उधर खिलाफत आंदोलन के कारण तनाव और हिंसा का वातावरण पूरे भारत में फैल गया था। उसका अति रूप 9-10 सितंबर, 1924 को बलूचिस्तान के कोहाट कस्बे में दिखा। चार हजार हिन्दू अल्पसंख्यकों को उनकी जान की रक्षा के लिए एक स्पेशल ट्रेन से रावलपिंडी भेजना पड़ा। वहां उन्हें शरणार्थी शिवरों में रखा गया। बड़ी संख्या में हिन्दुओं की हत्या हुई, हिन्दू महिलाओं का अपहरण और शीलभंग हुआ। हिन्दू संपत्तियों को लूटा और जलाया गया। इस भयंकर कांड के समाचारों ने गांधी जी को झकझोर कर रख दिया।
गांधी जी इसके लिए प्रायश्चितस्वरूप 21 दिन का उपवास शुरू कर दिया। उपवास का स्थान चुना मौलाना मुहम्मद अली का दिल्ली आवास। गांधी जी ने हिन्दुओं पर हो रहे एकपक्षीय अत्याचार के लिए स्वयं को दोषी माना। इस पर उनके अंतरंग सहयोगी और सचिव महादेव देसाई ने पूछा कि इसमें आपका क्या अपराध है। महादेव ने अपना डायरी में लिखा है कि गांधी जी ने इस सवाल का उत्तर दिया ‘मेरी भूल क्यों नही? मुझ पर हिन्दुओं के साथ विश्वासघात करने का आरोप लग सकता है। मैने ही उन्हें मुसलमानों के साथ दोस्ती करने का आग्रह किया। मैने उन्हें मुसलमानों के मजहबी स्थलों की रक्षा के लिए अपने प्राणों और संपत्तियों को दांव पर लगाने का आह्वान किया। आज भी उन्हें अहिंसा का उपदेश दे रहा हूं, कह रहा हूं कि अपने झगड़ो का निपटारा मारकर नहीं स्वयं मरकर करें और इस सबका क्या परिणाम हुआ, वह मै देख रहा हूं। कितने मंदिर अपवित्र हुए। कितनी बहने मेरे पास विलाप करती आती है। हिन्दू महिलाएं मुसलमान गुंड़ों से थर थर कांप रही है। कई स्थानों पर वे अकेले बाहर निकलने से डरती है। मुझे अमुक का पत्र मिला है उसके नन्हें बच्चों को जिस तरह सताया गया है, उसे मै कैसे सहन करूं?’ अब जरा मुसलमानों की कथित पढ़ी लिखी जमात का हाल देखिए। वो मौलाना मुहम्मद अली जिनके यहां गांधी जी उपवास पर थे। वो मुहम्मद अली जो कांग्रेस के काकानाडा अधिवेशन के अध्यक्ष रहे थे वो उस दंगे के लिए हिन्दुओं को दोषी ठहराया। कोहाट दंगों की जांच के लिए गांधी जी और मौलाना शौकत अली की संयुक्त कमेटी बनाई गई। मौलाना शौकत अली मौलाना मुहम्मद अली के बड़े भाई थे। जांच में बडे भाई छोटे भाई के भाई जान बन गए। उसी दिशा में जांच कर रहे थे। उधर गांधी जी वास्तविकता की तह तक जाना चाहते थे। गांधी जी वास्तविकता का पता भी लगा लिया। साबरमती आश्रम पहुंच कर 10 फरवरी 1925 को गांधीजी ने सभी आश्रमवासियों को प्रात: ही सोते से जगा दिया। एक जगह एकत्र कराया। महादेव भाई ने अपने डायरी में लिखा कि बापू ने कहा ‘मै कई रातों से सो नही पा रहा….कोहाट दंगों का मूल कारण मतांतरण है। जब हिन्दू चौकन्ने हुए तो मुसलमानों को यह पसंद नहीं आया। वे बदला लेने का कोई अवसर ढूढने लगे। उन्हें बहाना मिल गया’ महादेव भाई लिखते है बापू ने कहा ‘ भय और प्रलोभन से मुसलमान बनाना मुझे बरदास्त नहीं। वहां यही सब हुआ। आप लोगों से मै ये सब इसलिए कह रहा हूं आप अपने धर्म के प्रति निष्ठा में अडिग रहे। मेरा एकमात्र उद्देश्य इस पवित्र उषा काल में आपको जगाना और चौकस करना है। यह मै इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि हो सकता है कि किसी दिन आपको भी ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ जाए। यदि आश्रम से किसी बच्चे, लड़के या लड़की का अपहरण हो तो आप मेरी अहिंसा का लगत अर्थ लगाकर मूकदर्शक मत बने रहना।’
ऐसी स्थिति में ऐसे में आज जब हम नहीं समझेंगे तो हम मिट जाएंगे। न हम रहेंगें और नही हमारी सभ्यता। वो सभ्यता जो हमारे पुरखों ने बनाई। जिसको गांधी जी उत्तम बता रहे है। वह हम सबको ताकीद भी कर गए थे कि मेरी अहिंसा का अर्थ गलत मत समझ बैठना। परिस्थितियों के हिसाब से निर्णय लेना। हथियार सहेजना। जब संकट आए वह चाहे आपके राष्ट्र पर आए या समाज पर या फिर आपकी सभ्यता पर तो उस हथियार को आजमाना। जिससे फिर कभी यह सुनना न पड़े कि “मै मुसलमानों की हिंसा पर नाराज होने से अधिक एक हिन्दू होने के नाते, हिन्दुओं की कायरता पर अधिक शर्मिंदा हूं”