सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद अब राम जन्मभूमि पर एक भव्य मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त हो गया है। सब जानते हैं कि यह विवाद केवल एक मंदिर के निर्माण को लेकर नहीं था। राम जन्मभूमि भारत के सबसे पवित्र स्थानों में से एक है। भारत पर आक्रमण करने वाली शक्तियों ने उसकी अवमाननापूर्वक वहां एक मस्जिद बनवाई, यह बात स्वीकार्य नहीं हो सकती थी। यह ऐतिहासिक साक्ष्यों से स्पष्ट है कि उसका गौरव लौटाने के लिए भारतीय समाज सदा जागृत और सक्रिय रहा। अब राम जन्मभूमि के रूप में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उसे स्वीकार कर लिए जाने के बाद उस ऐतिहासिक अन्याय की निवृत्ति हो गई है।
यह संतोष की बात है कि सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय का भारत के मुस्लिम समाज और उसके नेताओं ने भी स्वागत किया है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के के.के. मोहम्मद जैसे अनेक लोगों की उसमें महत्वपूर्ण भूमिका रही है। तीन महीने के भीतर राम जन्मभूमि मंदिर के निर्माण के लिए न्यास आदि का गठन कर लिया जाएगा। आशा की जा रही है कि राम नवमी से मंदिर का निर्माण आरंभ हो जाएगा और उसे दो-तीन वर्ष में पूरा कर लिया जाएगा। अभी सारी चर्चा न्यास के स्वरूप और मंदिर के वास्तु-रूप को लेकर हो रही है।
उम्मीद है कि न्यास में राज्य, धर्म तंत्र और समाज का यथोचित प्रतिनिधित्व होगा। भारत में वास्तुशिल्प की अत्यंत समृद्ध परंपरा रही है। उनमें अधिकांश संख्या मंदिरों की है। भारत की पुरातत्व संबंधी निधियों में अन्यतम मूर्तिशिल्प से संपन्न विशाल मंदिरों की ही गणना होती है। निश्चय ही राम जन्मभूमि पर बनने वाला मंदिर उसी भव्य वास्तुशिल्प से संपन्न होगा। हमारे पवित्र मंदिरों के वास्तुशिल्प में अनेक तरह के विधि निषेधों का ध्यान रखना पड़ता है। उनके निर्माण में लोहे का प्रयोग नहीं किया जाता।
उनमें खुली हवा और प्राकृतिक प्रकाश की पूरी व्यवस्था होती है। सभी देवताओं से किसी न किसी वृक्ष को जोड़कर यह परंपरा भी डाल दी गई है कि मंदिर परिसर हरा-भरा हो और प्राकृतिक वैभव से संपन्न हो। हमारे मंदिरों की एक महत्वपूर्ण बात यह है कि वे केवल प्रार्थना गृह नहीं होते। वे किसी सर्वथा अदृष्ट परमात्मा का स्मरण करते हुए उससे प्रार्थना करने के स्थान नहीं हैं। हम मानते हैं कि परमात्मा समूची सृष्टि में व्याप्त है। मंदिर में हम उसकी दृष्ट स्वरूप को साक्षी बनाते हुए अपने भौतिक जीवन का विधि-विधान करते हैं। हमारे लिए धर्म ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग है। इसलिए अपने भौतिक जीवन को हम ईश्वर तक पहुंचने के साधन के रूप में ही देखते हैं। हमारे मंदिरों के विधि-विधान इसी दृष्टि से किए जाते हैं कि वे हमारे भौतिक जीवन की दिव्य प्रेरणा हो सकें।
इसी दृष्टि से मंदिर केवल देव गृह ही नहीं बल्कि भरा-पूरा संसार है, उसमें हमारी उन सब प्रवृत्तियों और विधाओं का समावेश है, जो हमारे जीवन को उन्नत बनाती हैं। उसका नाट्य मंडप ईश्वर की आराधना स्वरूप नृत्य और संगीत की अनवरत साधना के लिए है। उसका सभा मंडप कथा प्रवचनों के लिए है, जिनके माध्यम से धर्म के गूढ़ से गूढ़ तथ्यों को सहज भाव से साधारण गृहस्थों को समझाया जाता रहा है।
सभा मंडप ही समय-समय पर शास्त्रार्थ का आयोजन करने का भी स्थान है। शास्त्रार्थ हमारी विलक्षण परंपरा रही है, जिसके कारण हम शास्त्र के मंतव्य की निरंतर विवेचना करते हैं और उसका परिष्कार करते रह सकते हैं। इससे हम अपनी परंपरा को नित्य नूतन करते रहे हैं। इसी कारण हमारी विधि रूढ़ि होने से बच जाती है। शास्त्र का निरंतर अध्ययन मनन चलता रहे, इसके लिए मंदिरों में पाठशाला का होना आवश्यक किया गया है। निरंतर होने वाले वेदपाठ और मंत्रवाचन से वातावरण की पवित्रता बनाए रखी जा सकती है। श्री विग्रहों के श्रृंगार और उनके निमित्त बनने वाली भोग सामग्री की उत्कृष्टता भी हमारे जीवन में वस्त्राभूषणों और भोजन की उत्कृष्टता की प्रेरणा बनती है। हमारे मंदिरों में पाठशाला और नाट्यशाला की तरह गौशाला का होना भी अनिवार्य है।
गौशाला का महत्व केवल यह नहीं है कि उससे भगवान के भोग के लिए उत्तम दुग्ध उपलब्ध हो जाए और वेदपाठियों तथा पुजारियों आदि के लिए दूध की व्यवस्था हो जाए। मंदिर की गौशाला हममें विशेष रूप से गो-धन के प्रति और सामान्य रूप से पूरे पशु जगत के प्रति आत्मभाव बनाए रखती है। संसार का कोई दूसरा समाज ऐसा नहीं है, जहां समस्त पशु-पक्षियों से इतना आत्मीय भाव रखा जाता रहा हो, जितना भारत में रखा जाता रहा है। मंदिरों की गौशाला उन्नत नस्ल की गऊओं के संवर्धन और असमर्थ गायों की देखभाल का प्रयोजन भी सिद्ध करती हैं। मंदिरों में अन्न क्षेत्र का होना भी अत्यंत आवश्यक है।
यह अन्न क्षेत्र ऐसे होने चाहिए, जहां आगंतुकों को सब समय भोजन उपलब्ध हो सके। देश के विभिन्न भागों में सदा ऐसे धर्म क्षेत्रों की व्यवस्था रही है, जहां कोई बड़ा अन्न क्षेत्र अवस्थित हो। यह अन्न क्षेत्र इस बात की व्यवस्था तो करते ही रहे हैं कि समाज में कोई क्षुधाग्रस्त न रहे। पुराने धर्मस्थलों का वैभव देखना हो तो हमें एक बार कर्नाटक के धर्मस्थल में हो आना चाहिए, जहां प्रतिदिन कई हजार लोग अन्न क्षेत्र में भोजन ग्रहण करते हैं। हमारे यहां बड़े मंदिरों से जुड़े वन्य क्षेत्र और अभयारण्य भी रहे हैं। इसके साथ ही हर मंदिर से जुड़े सरोवर की परंपरा तो रही ही है। मंदिरों का एक आवश्यक अंग कोष है। भगवान को समर्पित किए जाने वाले धन, आभूषण और संपत्तियों का उसमें समावेश होता है। मंदिर की तो सब व्यवस्थाएं कोष से चलती ही हैं।
कोष के साथ यह भावना भी जुड़ी रही है कि वह धर्मार्थ है। उसका उपयोग मंदिर से जुड़े लोगों के जीवनयापन के लिए होगा। मंदिर की नाट्य, कथा-प्रवचन, शास्त्र के अध्ययन-मनन आदि व्यवस्थाओं के लिए होगा। भगवान की शोभायात्रा जैसे उत्सवों के लिए होगा। मंदिर की परंपरा के अनुसार वर्ष भर होने वाले उत्सवों के लिए होगा। गौशाला और अभयारण्य आदि व्यवस्थाओं के लिए होगा। इन सबके उचित भाग की कोष में स्थायी व्यवस्था होनी चाहिए। इन सबके बाद भी उसमें एक भाग ऐसा होना चाहिए, जिसका समाज की किसी आपात स्थिति के लिए या विपत्ति में पड़े किसी व्यक्ति के लिए उपयोग हो सके। मंदिर में यह सब काम सुचारू रूप से हो रहे हैं या नहीं, इसे सुनिश्चित करने का काम जितना प्रबंध समिति का है, उतना ही मुख्य पुजारी और उनके साथ के अर्चक मंडल का है।
इसी कारण पुजारी को वेतनभोगी रखने के बजाय उसका मंदिर के चढ़ावे में भाग नियत कर दिया जाता है। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि पुजारी निष्ठावान, लोभरहित, दयालु और गुणी हो। हमारे यहां मंदिरों के साथ धर्म क्षेत्र की भी व्यवस्था की जाती रही है, जहां साधु-संन्यासी आकर ठहर सकें। उनके निरंतर आते रहने से मंदिर की व्यवस्थाओं में अपरिग्रह का भाव बना रहता है। मंदिर के साथ अतिथिशाला तो होनी ही चाहिए, जहां बाहर से आने वाले सद्गृहस्थ ठहर सकें। श्रीराम जन्मभूमि मंदिर का निर्माण करते हुए इन सभी बातों का ध्यान रखा ही जाएगा, उसके सभी नित्य और नैमित्यक कार्यों की विस्तृत व्यवस्था की ही जाएगी।
श्रीराम जन्मभूमि पर एक भव्य मंदिर का निर्माण करते हुए हमें अपने समाज के उस बड़े लक्ष्य के बारे में सोचना चाहिए। भारतीय समाज सदा रामराज्य की अभीप्सा करता रहा है। हमारा स्वाधीनता आंदोलन भी केवल राजनैतिक स्वतंत्रता के लिए नहीं था, रामराज्य की स्थापना के लिए था। महात्मा गांधी ने स्वाधीनता संग्राम की कमान संभालते ही उसे रामराज्य की संकल्पना से जोड़ दिया था। अब हमें अपनी राज्य और समाज की सब व्यवस्थाओं को उसके अनुरूप ढालने में लगना चाहिए। रामराज्य की अनेक विशेषताओं में दो मुख्य हैं-एक यह कि वह अतुलनीय पराक्रम पर आधारित है। वह अपराजेय है, उसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता।
भारतीय समाज सदा रामराज्य की अभीप्सा करता रहा है। हमारा स्वाधीनता आंदोलन भी केवल राजनैतिक स्वतंत्रता के लिए नहीं था, रामराज्य की स्थापना के लिए था।
राजा राम उस अयोध्या के राजा हैं, जिसका शौर्य ऐसा है कि कोई उससे लड़ने का साहस न करे। वह नीति में इतनी ऊंची है कि किसी को उससे लड़ने की इच्छा न हो। भारत में रामराज्य की स्थापना के लिए हमें उसे यही अपराजेयता, अनुलंघनीयता प्रदान करनी है। रामराज्य की दूसरी विशेषता यह है कि उसमें किसी को दैहिक, दैविक और भौतिक ताप व्याप्त नहीं होते। उसमें कोई असहाय, असमर्थ और असुरक्षित नहीं होना चाहिए। उसकी कसौटी यह है कि उसमें सभी लोग स्वभाव से ही अपने कर्तव्यों के पालन में लगे रहें। रामराज्य सबके हितों की रक्षा करने वाला राज्य है, उसमें मनुष्यों का ही नहीं, पशु-पक्षी और वनस्पति सभी का संरक्षण होता है। श्रीराम जन्मभूमि मंदिर बनाते समय हमें भारत को अपराजेय बनाने और राज्य तथा समाज की व्यवस्थाओं को सर्वहितकारी बनाने का संकल्प लेना चाहिए, तभी उसकी सार्थकता होगी।